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मुंशी प्रेमचंद की कहानी : वफा का खंजर!!

विजयगढ़ और जयगढ़ राज्य में कई तरह की समानताएं थीं। दोनों ही बेहद संपन्न, मजबूत और धार्मिक राज्य थे। दोनों राज्य के रस्म-ओ-रिवाज ही नहीं, बल्कि बोली भी एक सी ही थी। यहां तक की विजयगढ़ और जयगढ़ राज्यों की लड़कियों की शादी भी एक दूसरे राज्य में होती थी। अंतर की बात करें, तो यही था कि जयगढ़ की कविताएं विजयगढ़ वालों को पसंद नहीं आती थी और विजयगढ़ वालों का शास्त्र जयगढ़ वालों के लिए धर्म के समान था। दोनों राज्य के लोगों के बीच लड़ाई-झगड़ा हमेशा ही रहता था। इन राज्यों में से किसी में भी तरक्की से जुड़ा कोई कार्य होता, तो दूसरा राज्य वाला यह समझता था कि उससे उनका नुकसान होगा।

ऐसा नहीं है कि इन तरक्की के कार्यों से सिर्फ कम पढ़े लिखे लोगों को ही परेशानी होती थी, बल्कि बुद्धिमान लोग भी सिर्फ आपसी ईर्ष्या की वजह से उसे खराब ही कहते थे। विजयगढ़ की एक छोटी सी बात भी जयगढ़ बालों के लिए बहुत बड़ी होती थी। उनके मन में होता था कि इसका बदला हम विजयगढ़ वालों से लेंगे। ठीक ऐसा ही जयगढ़ वालों के साथ भी था। दोनों राज्य इसी कोशिश में रहते थे कि कुछ ऐसा करें कि सामने वाले का अस्तित्व ही खत्म हो जाए।

नियम और व्यवस्था से जुड़ी चीजें, तो जैसे आग की तरह फैलती थीं। अखबार हो या लोगों का मन हर जगह यही आवाज आती कि विजयगढ़ वालों की शिक्षा और अन्य नियम-कानून जयगढ़ राज्य के लिए खराब हैं। उन्हें इसका मुंहतोड़ जवाब देना होगा। उधर, विजयगढ़ वाले सोचते कि जयगढ़ वालों ने उनके नए कानून के बारे में अखबार में कुछ छपने नहीं दिया है। वो सबका मुंह बंद करना चाहते हैं। वो यहां के सारे मामलों को दबाना चाहते हैं। वो हथियार तैयार करके हमें खत्म करना चाहते हैं। ऐसे में हमारा भी फर्ज है कि हम उन्हें बताएं कि भगवान जिनके साथ होता है, उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है।

जयगढ़ में कई सारे हुनरमंद लोग थे। इन्हीं में से एक नाम था शीरीं बाई का। उनकी खूबसूरती के चर्चे चारों तरफ थे। वो जयगढ़ में लोगों को अपनी कला का कायल करके विजयगढ़ की ओर बढ़ गई। उनके विजयगढ़ पहुंचते ही वहां के लोग जयगढ़ से दुश्मनी जैसे भूल ही गए थे। विजयगढ़ के थिएटर, नृत्यशाला और बाजार जैसे खाली हो चुके थे। शीरीं बाई की कला के लोग इतने दीवाने हो गए कि हर कोई उनके ही ठिकाने की ओर ही दौड़ते थे। सभी लोगों के इस तरह के रवैये की वजह से विजयगढ़ के लोग अपना पैसा ही उसपर बर्बाद नहीं कर थे, बल्कि अपने राज्य को भी बर्बादी की ओर ले जा रहे थे।

मनोरंजन का लोगों के लिए केंद्र बन चुकी शीरीं बाई को लेकर जयगढ़ के मंत्रियों, पुरोहितों और अन्य सम्मानित लोगों ने यह राय बनाई की इस नाचने वाली महिला को देश छोड़ने के लिए कहा जाए। विचार करने के बाद शीरीं बाई के नाम यह शाही फरमान पहुंचा, जिसमें लिखा था कि आपके यहां होने से अप्रिय घटनाएं होने की आशंका है। ऐसे में शाही फरमान है कि आप इस देश को छोड़कर चली जाएं। वैसे यह आदेश अंतरराष्ट्रीय संबंधों के एकदम खिलाफ था। इसी वजह से शीरीं बाई के साथ ही उसके देश जयगढ़ ने भी इस पर आपत्ति जताई।

इस फरमान की वजह से जयगढ़ में खामोशी छा गई थी। हर कोई गुस्से में था। कुछ चाहते थे कि विजयगढ़ से बातचीत करके सुलह कर ली जाए और कुछ की मांग युद्ध थी। फरमान आए हुए लगभग एक दिन हो चुका था। लोगों की तरफ से आवाज आने लगी युद्ध-युद्ध। यह सब सुनने के बाद युद्ध मंत्री सैयद असकरी ने कहा कि अब तो लोगों ने भी बता दिया है कि वो क्या चाहते हैं। अब लड़ाई का एलान करने में देर कैसी?

इसपर एक सेठ ने कहा कि क्या सारे लोग लड़ने के लिए तैयार होंगे?

युद्ध मंत्री ने कहा कि शायद बहुत ज्यादा तैयार।

सेठ ने पूछा कि क्या आपको यकीन है कि फतह मिलेगी?

असकरी ने जवाब दिया, “हां, बिल्कुल यकीन है।”

तभी लोग आपस में जंग-जंग कहते हुए हथियार एक दूसरे को बांटने लगे।

ठीक तीस साल पहले भी एक जबरदस्त लड़ाई हुई थी, जिसके कारण जयगढ़ हिल गया था। युद्ध में कई सारे खानदान तबाह हो गए थे। सब कोई एक दूसरे के खून का प्यासा हो गया था। उस वक्त पूरा जेल देशभक्तों से भर गई थी। आजादी की लड़ाई लड़ने वाले जांबाज में मिर्जा मंसूर भी थे। मिर्जा को पूरा दिन जेल में हथौड़ा चलाना पड़ता था और बस आधे घंटे के लिए नमाज की छुट्टी मिलती थी। उसे हमेशा ही अपने बेटे मंसूर की याद आती थी। इस याद में उसका मन करता कि गंगा में डुबकी मारकर भाग जाऊं और अपने बेटे से मिल आऊं।

एक दिन यह इच्छा इतनी प्रबल हुई कि वो सही में गंगा में कूद गया। रात भर वो गंगा में गोते लगाता रहा। किसी तरह सुबह वह किनारे, तो पहुंचा लेकिन उसके शरीर में बिल्कुल जान नहीं बची थी। सांसें चल रही थी, लेकिन हालत अधमरी जैसी थी। किसी तरह हिम्मत करके वो आगे बड़ा और अपने बेटे असकरी से मिलने के लिए पहुंच गया।

फिर तीन दिन बाद मंसूर अपने बेटे असकरी को अपने गोद में लिए हुए विजयगढ़ पहुंच गया। अपने हुलिया और पहचान बदलकर मंसूर ने मिर्जा जलाल नाम रख लिया। शरीर इतना हट्टा कट्टा था कि उसे सिपाही बना लिया गया और होते-होते वो पहाड़ी किले का सूबेदार बन गया।

भले ही वो जयगढ़ को पीछे छोड़ आया था, लेकिन देश भक्ति उसके दिल में कूट-कूटकर भरी हुई थी। वो हमेशा अपने बेटे असकरी को जयगढ़ दिखाकर कहता था कि वो तुम्हारा वतन है। वहीं के तुम हो। जब भी तुम्हें मौका मिले अपने देश की सेवा करने से पीछे मत हटना। पिता की इन सभी बातों से असकरी के दिल में बड़ा प्रभाव पड़ता था। वो भी बड़ा होकर बहुत बड़ा देशभक्त बना। वो सीधे विजयगढ़ से जयगढ़ गया और फौज में भर्ती हो गया और कुछ ही समय में अपने युद्ध कौशल से युद्ध मंत्री बन गया था।

अब देश में उठ रही युद्ध की मांग को देखते हुए जयगढ़ ने विजयगढ़ को शीरीं बाई को उनके देश पहुंचाने के लिए 24 घंटे का अल्टीमेटम दिया। विजयगढ़ ने भी साफ कह दिया कि वो जयगढ़ की फौज का सामना करने के लिए तैयार हैं, लेकिन शीरीं बाई को वो छोड़ेंगे नहीं। उसे अदालत से सजा जरूर मिलेगी। जयगढ़ को विजयगढ़ के मामलों में दखल न देते हुए अपने कदम पीछे खींच लेने चाहिए।

विजयगढ़ से ऐसा जवाब मिलने के बाद असकरी ने अपने पिता मिर्जा जलाल को खुफिया तरीके से एक पत्र भिजवाया। उसमें लिखा था कि विजयगढ़ से हमारी लड़ाई शुरू होने वाली है। अब सबको जयगढ़ की ताकत का अंदाजा लगेगा। अगर लड़ाई के दौरान आपको कोई आंच आई तो आप उन्हें मेरे द्वारा भेजी गई यह मोहर दिखा देना, वो आपकी किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाएगा और मेरे कैंप तक ले आएगा। साथ ही कभी मुझे आपकी जरूरत पड़ी, तो मुझे पता है आप हमेशा मेरे साथ खड़े रहेंगे। धन्यवाद!

यह खेत भेजने के तीसरे दिन ही जयगढ़ ने पूरे बल के साथ विजयगढ़ पर आक्रमण कर दिया। दोनों राज्य की फौज का मुकाबला एक दूसरे से मंदौर से करीब पांच मील की दूरी पर हो रहा था। लड़ाई में विजयगढ़ के पास तोप की ताकत ज्यादा थी, तो जयगढ़ के पास पराकर्मी सैनिक थे। होते-होते लड़ाई एक महीने तक चली। इस दौरान सबकुछ श्मशान सा बन गया, लेकिन दोनों देश के बीच युद्ध रुक नहीं रहा था। फिर ऐसा समय आया कि विजयगढ़ पूरी तरह से जयगढ़ पर भारी पड़ने लगा। हर बार जयगढ़ को हार का मुंह देखना पड़ रहा था।

असकरी को पूरा जयगढ़ कोस रहा था कि इसकी वजह से युद्ध शुरू हुआ और सारे लोग तितर-बितर हो गए। ऐसे हाल में असकरी को सूझा कि मेरे पिता जिस किले की रखवाली करते हैं, वो विजयगढ़ से अलग हो जाए, तो आसानी से इन्हें हराया जा सकता है। उसने पिता को खत लिखकर कहा कि अब आप ही मेरी मदद कर सकते हैं। आपको अपने वतन का वास्ता है। आपको जयगढ़ को जिताने के लिए उस किले पर जीत हासिल करने में हमारी मदद करनी होगी।

यह खत पढ़ते ही असकरी के पिता मिर्जा जलाल किले पर बैठ-बैठे सोचने लगे कि आखिर मेरे बेटे की हिम्मत कैसे हुई मुझे ऐसा खत लिखने की। मैं भले ही अपने वतन से बेहद प्यार करता हूं, लेकिन विजयगढ़ ने मुझे मुसीबत के समय सहारा दिया है। मैं इसके साथ गद्दारी कैसे करूं। ऐसा करके ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाऊंगा। वहां मेरे कर्म को भोगने के लिए बेटा या कोई दूसरा थोड़ी आएगा, जो भी करूंगा मैं, उसे खुद ही भोगना पड़ेगा। तभी मन में हुआ कि बेटा का मोह भी कैसे छोड़ दूं।

तबतक शाम ढल गई थी और जयगढ़ में विजयगढ़ की अफसर की वर्दी पहना एक इंसान असकरी के टेंट से बाहर निकाला। फिर वो विजयगढ़ के घायलों की लाइन में जाकर जमीन पर तुरंत लेट गया।

जैसे-जैसे रात हुई जयगढ़ वालों ने विजयगढ़ के किले पर हमला कर दिया। इस अंधेरे में गोला-बारूद उन्होंने चला दिए। आराम से सब कुछ करते, तो कम-से-कम ज्यादा लोगों की जान भी नहीं जाती और विजयगढ़ वालों को कुछ पता भी नहीं चलता। तभी मिर्जा के मन में हुआ कि ये लोग यहां तक पहुंच तो नहीं पाएंगे और अगर पहुंच गए, तो मुझे क्या करना चाहिए। फिर मन से आवाज आई कि तीस साल से जिस जगह से इज्जत मिली, उनके साथ दगा करने की मैं सोच भी नहीं सकता। बस तो क्या करना है वो तो तय ही है।

फिर अंदर से आवाज आई क्या दगा करना हमेशा गुनाह होता है। अपने वतन के दुश्मनों से दगा करना गलत होगा क्या? तभी आसमान की तरफ से शोर होने लगा। शायद हवाई जहाज का शोर था। जयगढ़ वाले जीतते हुए नजर आ रहे थे। वो तेजी से किले की तरफ बढ़ रहे थे। मिर्जा के मन में हुआ कि ऐसा करना उनकी गलती है। किले का दरवाजा काफी मजबूत है। किले के पास पहुंचते ही वहां से बंदूकें चलेंगी, जिनके आगे एक घंटे भी टिक पाना मुश्किल होगा।

मिर्जा ने सोचा कि इतने सारे लोगों की जान क्या मैं जाने दूं? यह सिर्फ लोगों की जान जाने से भी ज्यादा खतरनाक है। जयगढ़ की पूरी सेना यही खत्म हो गई, तो जयगढ़ की तबाही होना निश्चित है। ऐसा ही चला, तो विजयगढ़ कल तक जयगढ़ पर जीत हासिल कर लेगा और मेरे देश की मां-बहनों की जिंदगी भी खतरे में आ जाएगी। क्या अपने मजहब और लोगों को विजयगढ़ का इस तरह से निशाना बनने के लिए छोड़ दूं?

उफ्फ! ये जहरीली गैस किले के अंदर से कैसे आ रही है? क्या किसी जयगढ़ वाले ने कुछ किया होगा। ओह, यह तो यहां से सैनिक भेजे जा रहे हैं और किले की छत पर तोपों को चढ़ाया जा रहा है। अब जयगढ़वाले किले के पास पहुंच गए। विजयगढ़ में होने वाली जयगढ़ियों की दुर्दशा को अब कोई नहीं रोक सकता। काश! मैं कुछ कर सकता। मुझसे कोई जबरदस्ती किले की चाबी छीन लेता। कोई मुझे मार डालता। मैं अपने वतन का नाश होते कैसे देख पाऊंगा।

मैं बेबस हूं। मेरे हाथों में जंजीरें हैं, पैरों में बेड़ियां लगी हैं। शरीर का एक-एक रोम जैसे जकड़ रखा है। मन है इन सारी जं

जीरों और बेड़ियों को तोड़कर बेटे के लिए किले के दरवाजे खोल दूं। पता है मुझे ये सब गुनाह है, लेकिन अब इससे क्या डरना।

जयगढ़ वाले किले के पास बाहरी आक्रमण से बचने के लिए बनाए गए गड्ढों तक पहुंच गए। अब कुछ नहीं हो सकता। मेरा बेटा असकर भी घड़े में सवार होकर आ रहा है। मन में हुआ कि मैं नमकहरामी कर देता हूं। इससे कुछ नहीं, तो कम-से-कम मेरा बेटा तो बच जाएगा। तभी तोप बरसने लगे। मेरा बेटा मेरी आंखों के सामने खून से लथपथ पड़ा था। हाय मेरा बेटा। मैंने अपनी वफा पर बेटे को कुर्बान कर डाला। मैं इसका बाप नहीं दुश्मन बन गया।

कहानी से सीख :

प्रेमचंद की कहानी वफा का खंजर यह सीख देती है कि लड़ाई विनाश लेकर आती है, जितना हो सके युद्ध को टालकर बातों से चीजें सुलझानी चाहिए। दूसरी सीख यह है कि हमेशा अपनी काबिलियत के दम पर ही फैसला लें। अपने रिश्तेदारों पर भी भरोसा करने से कई बार दगा मिल जाती है।

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