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जब भारत में गुप्त साम्राज्य था

उसी समय मध्य एशिया के एक बर्बर कबीले ने भारत पर आक्रमण किया जिन्हें हूण कहते थे, लेकिन स्कन्दगुप्त ने उन्हें बुरी तरह पराजित किया जिसके कारण वे ईरान की तरफ चले गए। लेकिन गुप्त साम्राज्य के पतन के दौरान ये फिर भारत पर आक्रमण करने लगे। इस बार इनका नेतृत्व कर रहा था

तोरमाण जिसने पंजाब, सिंध, गुजरात, राजस्थान और उत्तरप्रदेश तक आक्रमण किए, गुप्तकाल का प्रमुख नगर एरण (सागर म.प्र.) और कौशाम्बी भी उनके कब्जे में थे। लेकिन तोरमाण 515 ईस्वी से पहले कभी यशोधर्मन के पिता प्रकाशधर्मन से बुरी तरह पराजित हुआ जिसकी पुष्टि रिश्थलपुर के अभिलेख से होती है।

यशोधर्मन औलिकार वंश से सम्बंधित थे जिनका शासन मालवा में चौथी शताब्दी से 6 वीं सदी तक लगातार रहा है। औलिकार मूलतः मालवगण संघ के क्षत्रिय थे जिन्होंने कभी सिकंदर का सामना किया था और आज के पंजाब में रहते थे, लेकिन पहले यूनानी और बाद में शकों के लगातार आक्रमण होने के कारण यह दक्षिण की तरफ पलायन कर गए और आज के राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश तक स्थापित हो गए

और दशपुर या दशार्न को अपनी राजधानी बनाया। मालवा जो पहले अवन्ति कहलाता था इन्हीं मालव क्षत्रियों के कारण मालवा कहलाने लगा। इन मालवों के लगातार शकों से संघर्ष होते रहते थे, लेकिन बाद में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने इन्हें विजित कर लिया और अपना सामंत बना लिया।

तोरमाण अत्यंत बर्बर था जिसका जिक्र अभिलेखों और चीनी यात्री ह्वेन-सांग के विवरणों में दर्ज है। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल(मिहिरगुल) हूणों का शासक बना, उसने सियालकोट को अपनी राजधानी बनाई और गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करने लगा उसके नेतृत्व में हूण गुप्तों की राजधानी पाटिलीपुत्र तक चले गए। इसका एक अभिलेख ग्वालियर से प्राप्त हुआ है, लेकिन 528 से 532 के मध्य कभी मिहिरकुल और यशोधर्मन के बीच मंदसौर के निकट सोंधनी बड़ा भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मिहिरकुल बुरी तरह पराजित हुआ।

अभिलेखों से ज्ञात होता है यशोधर्मन प्रकाशधर्मन का पुत्र था उसका मूल नाम विष्णुवर्धन था, उसके अभिलेख में उसका नाम जैनेंद्र विष्णुवर्धन मिलता है।उसके जीवन के बारे में हमें मंदसौर के निकट सोंधनी के दो स्तम्भों से पता चलता है। इन स्तम्भों में से एक में तिथि मालव संवत 589 ( 532ईस्वी) दर्ज है।

पहले स्तम्भ के लेख में उसकी परंपरागत दिग्विजय के बारे में बताया गया जिसके अनुसार उसने पूर्व और उत्तर के अनेक राजाओं को पराजित कर ‘ राजाधिराज ‘ और ‘ परमेश्वर ‘ की उपाधियाँ धारण की। इसी अभिलेख के अनुसार उसके प्रान्तपाल अभयदत्त के अधिकार में विंध्य पर्वत से से लेकर पारियात्र पर्वत तक क्षेत्र था। जबकि दूसरे अभिलेख के अनुसार उसकी विजयों की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि उसका (यशोधर्मन) अधिकार उन क्षेत्रों में भी था जहाँ गुप्त राजाओं का शासन स्थापित नहीं हो पाया था, और हूणों की आज्ञा भी नहीं पहुँच पाई थी।

पूरब में लौहित्य(ब्रम्हपुत्र ) से लेकर पश्चिमी सागर तक, और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में महेंद्र पर्वत (ओड़िसा ) तक उसका अधिकार था। इसी अभिलेख के अनुसार सुप्रसिद्ध राजा मिहिरकुल ने उसके चरणों की पूजा की थी। इस अभिलेख में काव्यात्मक ढंग से कहा गया है ” जिसने भगवान शिव के अलावा किसी दूसरे के सामने मस्तक नहीं झुकाया,

ऐसे मिहिरकुल के मस्तक को यशोधर्मन ने अपने बाहुबल से झुकाया और उसके मस्तक के जूड़े में लगे पुष्पों से अपने चरणों की पूजा करवाई, हालांकि काव्य में कुछ अतिश्योक्ति भी हो सकती है लेकिन यह निश्चित है कि यशोधर्मन ने मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों को करारी शिकस्त दी।

इन विजयों के बाद यशोधर्मन ने खुद को गुप्तों से मुक्त कर लिया और स्वम्भू शासकों की तरह चक्रवर्तिन जैसी उपाधियाँ धारण की। हालांकि चीनी यात्री ह्वेन-सांग के अनुसार गुप्त सम्राट नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य’ ने मिहिरकुल को पराजित कर हूणों को उत्तरभारत से खदेड़ दिया।

उस समय बंगाल और मध्यप्रदेश से मिले कुछ अभिलेखों के अनुसार गुप्त अभी भी उत्तरभारत के सम्राट थे। इसीलिए इतिहासकारों में यशोधर्मन को लेकर भारी मतभेद हैं। लेकिन इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि यशोधर्मन ने हूणों को पराजित किया और और गुप्तों से खुद को स्वतंत्र कर लिया, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद उसके वंशज अयोग्य थे जिसके कारण इन्हें परवर्ती गुप्तों, कन्नौज के मौखरियों और स्थानेश्वर के पुष्यभूति (वर्धन ) वंश से पराजित होना पड़ा।

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