हर बार की तरह राजा विक्रम फिर बेताल को पेड़ से नीचे उतारता है और पीठ पर लादकर उसे योगी के पास ले जाने के लिए चल देता है। ऐसे में एक बार फिर बेताल राजा विक्रम को बोलने पर विवश करने के लिए एक नई कहानी कहना शुरू करता है। कहानी है, राजा रूपसेन और अंगरक्षक वीरवर की।
वर्धमान राज्य में रूपसेन नाम का एक राजा राज किया करता था। राजा बहुत ही साहसी, दयालु और न्यायप्रिय था। यही वजह थी कि केवल वर्धमान में ही नहीं बल्कि उसके राज्य से सटे सभी राज्यों में भी राजा रूपसेन के व्यक्तित्व की मिसाल दी जाती थी। एक दिन रूपसेन के दरबार में वीरवर नाम का एक व्यक्ति आया। जब राजा ने उसके आने की वजह पूछी तो वीरवर बोला, “मुझे नौकरी चाहिए और मैं अंगरक्षक के तौर पर आपकी सेवा करना चाहता हूं।”
वीरवर की यह बात सुनकर राजा ने कहा, “ मैं तुम्हे अपना अंगरक्षक बना सकता हूं, लेकिन उसके लिए तुम्हें अपनी कार्यकुशलता सिद्ध करनी होगी। ताकि मैं यह तय कर सकूं कि तुम मेरे अंगरक्षक बनने के लायक हो भी या नहीं।”
राजा की यह बात सुन वीरवर फौरन तैयार हो गया। उसने अपने बाहुबल के साथ अपना शस्त्र कौशल भी दिखाया। वीरवर की सभी विशेषताओं को देखकर राजा रूपसेन बहुत प्रभावित हुआ। राजा ने पूछा, “वीरवर बताओ अगर मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक बनाता हूं, तो तुम्हें प्रतिदिन खर्च के लिए क्या चाहिए?”
राजा के इस सवाल पर वीरवर बोला, “महाराज आप मुझे हजार तोले सोना दे देना।” वीरवर का इतना कहना था कि दरबार में मौजूद सभी लोग हैरान होकर वीरवर की ओर देखने लगे। राजा रूपसेन भी वीरवर की मांग पर आश्चर्य में पड़ गया। हो भी क्यों न, वेतन के रूप में वीरवर ने इतनी बड़ी रकम जो मांग ली थी।
राजा ने गंभीर होकर वीरवर से पूछा, “तुम्हारे परिवार में कितने लोग हैं?”
वीरवर ने उत्तर दिया, “कुल चार महाराज, मैं, मेरी पत्नी, एक बेटा और एक बेटी।”
वीरवर का जवाब सुन राजा ने मन ही मन सोचा कि आखिर चार लोगों के भरण-पोषण के लिए इसे इतने धन की क्या आवश्यकता। फिर कुछ सोचकर उसने वीरवर को हजार तोला सोना प्रतिदिन बतौर खर्च देने की बात मान ली। काम सिर्फ इतना था कि उसे हर रात राजा की सुरक्षा के लिए राजा के कक्ष के बाहर पहरा देना था।
राजा यह जानना चाहता था कि वीरवर इतने धन का क्या करेगा। उसने वीरवर को हजार तोला सोना देकर रात में नौकरी पर आने को कहा और गुप्त रूप से कुछ सैनिकों को उसके पीछे लगा दिया। वीरवर नौकरी और मनचाहा वेतन पाकर बहुत खुश हुआ।
वीरवर सोना लेकर खुशी-खुशी घर गया और आधा सोना ब्राह्मणों में बांट दिया। बाकी जो आधा बचा उसके दो हिस्से किए। एक हिस्सा वैरागियों, संन्यासियों और मेहमानों को दिया। फिर बचे हुए सोने से अनाज मंगाया और बढ़िया पकवान बनवाए। तैयार पकवान को पहले गरीबों को खिलाया और फिर उसके बाद जो बचा उसे अपने परिवार के साथ मिल बांट कर खाया।
वीरवर की निगरानी कर रहे सैनिकों ने यह सारा नजारा देख जाकर राजा को बताया। राजा को यह जान संतोष हुआ कि उसके द्वारा दिए धन को वीरवर अच्छे काम में लगा रहा है। अब राजा को यह देखना था कि वीरवर अपने काम में कितना खरा उतरता है।
वीरवर जब महल पहुंच राजा के कक्ष के बाहर पहरा देने लगा, तो राजा सोया नहीं। राजा पूरी रात चुपके से जांच करता रहा कि वीरवर अपना काम कितनी ईमानदारी से करता है। राजा ने पाया कि वीरवर बिना पलक झपकाए पूरी मुस्तैदी से कक्ष के बाहर पहरा दे रहा था। वीरवर की ऐसी कर्तव्यनिष्ठता देख राजा बहुत ही खुश हुआ।
वीरवर प्रतिदिन इसी तरह सूरज ढलते ही महल पहुंच जाता और राजा की सुरक्षा में तैनात रहता। जब भी राजा को किसी भी चीज की जरूरत होती, वीरवर हमेशा हाजिर रहता। ऐसे ही देखते-देखते कई माह गुजर गए। एक रात कुछ अजीब घटना घटी। राजा ने आधी रात किसी स्त्री की रोने-बिलखने की आवाज सुनी।
स्त्री की आवाज सुन राजा बहुत हैरान हुआ। राजा ने वीरवर को बुलाया और कहा, “जाओ और पता लगाकर आओ कि इतनी रात को कौन रो रहा है। साथ ही उसके रोने की वजह भी मालूम करना।” राजा का आदेश मिलते ही वीरवर वहां से फौरन उस स्त्री के रोने का कारण जानने के लिए निकल पड़ता है।
थोड़ी दूर जाने के बाद वीरवर को एक स्त्री दिखाई दी। वह स्त्री सिर से पांव तक गहनों से लदी हुई थी। वह कभी नाचती, कभी कूदती और कभी सिर पीट-पीट कर रोती। यह सब देख वीरवर उस स्त्री के पास गया। उसने स्त्री के ऐसा करने के पीछे का कारण पूछा।
वीरवर के पूछने पर स्त्री बोली, “मै राजलक्ष्मी हूं। रोती इसलिए हूं कि राजा रूपसेन की जल्द ही मौत होने वाली है। उनकी कुंडली में अकाल मृत्यु लिखी है। अब उनके जैसा न्याय प्रिय और कुशल राजा चला जाएगा, तो मुझे किसी और के अधिकार में रहना पड़ेगा। इसी बात का मुझे बहुत दुख है।”
राजा की मौत की बात सुनकर वीरवर ने राजलक्ष्मी से पूछा, “क्या इस मुसीबत को टालने का कोई उपाय नहीं है?” इस पर राजलक्ष्मी बोली, “उपाय तो है, लेकिन क्या तू कर पाएगा।” वीरवर बोला, “आप मुझे उपाय बताएं, मुझसे जो भी बन पड़ेगा मैं अवश्य करूंगा।”
वीरवर के हामी भरते ही राजलक्ष्मी बोली, “पूर्व की दिशा में यहां से कुछ दूर एक देवी का मंदिर है। अगर उस मंदिर में तू देवी के चरणों में अपने बेटे की बलि दे देता है, तो राजा पर आने वाला संकट टल जाएगा। उसके बाद राजा 100 साल तक बिना किसी तकलीफ के जीवित रहेगा और राज कर पाएगा।”
वीरवर का बेटा कहता है, “सबसे पहले यह आपका आदेश, दूसरा राजा का जीवन बचा पाऊं, तीसरा देवी के चरणों में मृत्यु, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिए और क्या होगा पिता जी। आप अभी चलिए, मैं आपके साथ चलता हूं।”
बेटे की यह बात सुन वीरवर अपने पूरे परिवार को साथ लेता है और देवी के मंदिर पहुंच जाता है। मंदिर पहुंच वीरवर ने अपनी तलवार निकाली और यह कहते हुए, “मां यह बलि स्वीकार करो और मेरे राजा को लम्बी आयु प्रदान करो” बेटे का सिर धड़ से अलग कर दिया।
भाई की मौत पर वीरवर की पुत्री भी माता के चरणों में सिर पटक कर अपनी जान दे देती है। पुत्र और बेटी दोनों के मर जाने पर वीरवर की पत्नी कहती है, “पुत्र और पुत्री दोनों को खोने के बाद मैं भी जीना नहीं चाहती।” इतना कहते हुए वीरवर की पत्नी वीरवर के हाथ से तलवार छीन अपना शीश माता के चरणों में चढ़ा देती है।
पत्नी की मृत्यु के बाद अब वीरवर सोचता है कि मैं अपने परिवार में अकेला रह गया हूं तो फिर मेरे जीने का भी क्या फायदा। यह सोचते हुए सामने पड़ी तलवार से वह खुद को भी खत्म कर लेता है।
जब इस बारे में राजा रूपसेन को मालूम हुआ, तो वह भी मंदिर पहुंचे और सारा नजारा देख बहुत दुखी हुए। उन्होंने सोचा कि मेरी जान बचाने के लिए चार लोगों ने अपनी जिंदगी गंवा दी, ऐसे में धिक्कार है मेरे राजा होने पर, ऐसे जीवन का मैं क्या करूंगा। बस यही सोचकर राजा अपनी तलवार खींच लेता है। राजा अपनी तलवार से अपनी गर्दन काटने जा ही रहा था कि तभी अचानक वहां देवी प्रकट हो जाती हैं।
देवी कहती हैं, “राजन मैं तेरे साहस से प्रसन्न हूं। तू जो भी वर मांगेगा तुझे वह हासिल हो जाएगा।” देवी की यह बात सुन राजा कहता है, “देवी आप वीरवर और उसके परिवार को जिंदा कर दो।” देवी तुंरत वीरवर और उसके पूरे परिवार को दोबारा जिंदा कर देती हैं।
इतना कहकर बेताल बोला, “बताओं विक्रम, इन सब में सबसे बड़ा बलिदान किसका।”
विक्रम बोला, “बेताल सबसे बड़ा बलिदान राजा का हुआ।”
बेताल ने पुछा, “वो क्यों?”
विक्रम बोला सुनो, “पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का धर्म होता है। सेवक का अपने राजा के लिए अपने प्राण दे देना, उसका कर्म। वहीं, अगर राजा अपने सेवक के लिए अपनी जान देने को तैयार हो जाए तो वह बड़ी बात है। इसीलिए, राजा का बलिदान ही सबसे बड़ा हुआ।”
विक्रम से यह जवाब पाकर बेताल कहता है, “बहुत खूब विक्रम, तूने सही जवाब दिया, लेकिन तू भूल गया, मैंने कहा था कि तू बोला तो मैं चला।” इतना कहकर बेताल फिर वहीं पेड़ पर जाकर उल्टा लटक जाता है।
कहानी से सीख:
एक सच्चा राजा और नेता वो होता है, जो अपनी प्रजा के लिए हमेशा समर्पित रहता है और उसके लिए जान की बाजी भी लगाने को तैयार रहता है।