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शब्द का संबोधन

सागर द्वारा श्रीराम के लिए ‘ प्रभु ‘ तथा ‘ नाथ ‘ शब्द का संबोधन
पिछले अंक में सागर ने श्रीराम के लिए ‘ प्रभु ‘ तथा ‘ नाथ ‘ शब्द का दो बार प्रयोग किया है। दोनों शब्दों को समझने का प्रयास करें। प्रभु अर्थात् जिसका प्रभाव हो। इस सृष्टि में जड़ – चेतन सभी पदार्थों का कुछ-न-कुछ प्रभाव है। सूर्य , पृथ्वी , चंद्रमा जैसे खगोलीय पिंड भी अपना एक विशेष प्रभाव रखते हैं , जिसे हम गुरुत्वाकर्षण शक्ति कहते हैं। सूर्य के कारण पृथ्वी सौरमंडल के बाहर नहीं जा पाती। चंद्रमा के प्रभाव के कारण महासागरों में ज्वार-भाटा होता है।

पृथ्वी के प्रभाव के कारण वायुमंडल धरती को छोड़कर बाहर नहीं जाता है। अतः इन जड़ पिंडों को भी प्रभुवत् समझकर ही पूजा – आराधना की जाती है। अथाह एवं विशाल जल-भंडार को सागर कहते हैं। इसमें अगणित जीव-जंतु आश्रय लिए रहते हैं। ऐसे विशाल सागर पर श्री राम के बाण-संधान का ही गंभीर अग्निवत् प्रभाव पड़ा। इस अप्रतिम प्रभाव के कारण सागर ने श्रीराम को ‘ प्रभु ‘ कहा है। अब ‘ नाथ ‘ शब्द को लें। नाथ अर्थात् जो सर्वसमर्थ हो , जो सबका स्वामी हो। संकट आने पर जब कोई भी सहायता करने में सक्षम न हो , तब जो सहायता करता है उसे ‘नाथ’ शब्द से विभूषित किया जाता है।
तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में अपने तथा प्रभु श्री राम के संबंधों के बारे में लिखा है

” नाथ तू अनाथ हौं अनाथ कौन मोसो “
अर्थात् आप (तू) नाथ हैं और मैं (हौं) अनाथ हूं। मेरे समान अनाथ कौन है?
इसका अच्छा उदाहरण महाभारत में देखने को मिलता है। हस्तिनापुर की राजसभा में असहाय द्रौपदी ने अपनी लाज बचाने के लिए भगवान का स्मरण कर कहा –

हे नाथ ! हे रमानाथ ! ब्रजनाथार्तिनाशन। कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन ।।
हे नाथ ! हे लक्ष्मीनाथ ! हे ब्रजनाथ ! हे दु:खनाशन ! हे जनार्दन ! कौरव-समुद्र में डूबती हुई मुझको बचाइए।
संसार में श्रीराम के अतिरिक्त कोई बचाने वाला नहीं है – यह जानकर सागर ने श्रीराम को ‘ नाथ ‘ शब्द से संबोधित किया। लेकिन यहां द्रौपदी से भिन्न परिस्थिति है। वहां दु:शासन से बचाने के लिए प्रभु को आना पड़ा था , पर यहां तो श्री राम की क्रोधाग्नि से बचने के लिए श्रीराम के ही शरण में सागर को आना पड़ रहा है।

अस्तु , अब आगे की चौपाई पर चलते हैं। सागर श्री राम को कहते हैं –
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजानदा पुनि तुम्हरिअ कीन्ही।।
हे प्रभु ! आपने अच्छा किया कि जो मुझे शिक्षा दी। पर रही मर्यादा की बात ! तो वह आपकी ही बनाई हुई है। उसका उल्लंघन मैं कैसे कर सकता हूं ? श्री राम के कोपित होने के कारण सागर को साक्षात् प्रभु श्रीराम का दर्शन हुआ। शरणागत होकर उसने आशीर्वाद पाया तथा उसका प्रभु से संवाद हुआ। प्रभु श्रीराम के कारण सागर की महिमा बढ़ गई।

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