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देशराज एवं वत्सराज आदि राजाओं का आविर्भाव

deshraj Avem Vatsraj Adi Rajao ka Abhibharv

सूत जी ने कहा – भोजराज के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनके वंश में सात राजा हुए, पर वे सभी अल्पायु, मंद बुद्धि और अल्पतेजस्वी हुए तथा तीन सौ वर्ष के भीतर ही मर गये । उनके राज्यकाल में पृथ्वी पर छोटे – छोटे अनेक राजा हुए । वीर सिंह नाम के सातवें राजा के वंश में तीन राजा हुए, जो दो सौ वर्ष के भीतर ही मर गये । दसवां जो गंगासिंह नाम का राजा हुआ, उसने कल्पक्षेत्र में धर्मपूर्वक अपना राज्य चलाया । अंतर्वेदी में कान्यकुब्ज पर राजा जयचंद्र का शासन था । तोमरवंशा में उत्पन्न अनंगपाल इंद्रप्रस्थ का राजा था । इस तरह से गांव और राष्ट्र ( जनपदों ) में बहुत से राजा हुए । अग्निवंश का विस्तार बहुत हुआ और उसमें बहुत से बलवान राजा हुए । पूर्व में कपिलस्थान (गंगासागर), पश्चिम बाह्लीक, उत्तर में चीन देश और दक्षिण में सेतुबंध – इनके बीच में साठ लाख भूपाल ग्रामपालक थे, जो महान बलवान थे । इनके राज्य में – प्रजाएं अग्निहोत्र करनेवाली, गौ ब्राह्मण का हित चाहनेवाली तथा द्वापरयुग के समान धर्म कार्य करने में निपुण थीं । सर्वत्र द्वापरयुग ही मालूम पड़ता था । घर – घर में प्रचुर धन तथा जन जन में धर्म ‘विद्यमान’ था । प्रत्येक गांव में देवताओं के मंदिर थे । देश देश में यज्ञ होते थे । म्लेच्छ भी आर्य धर्म का सभी तरह से पालन करते थे । द्वापर के समान ऐसा धर्माचरण देखकर कलि ने भयभीत होकर म्लेच्छा के साथ नीलाचल पर्वत पर जाकर हरि की शरण ली । वहां उसने बारह वर्ष तक तपश्चर्या की । इस ध्यानयोगात्मक तपश्चर्या से उसे भगवान श्रीकृष्ण चंद्र का दर्शन पाकर उसने मन से उनकी स्तुति की ।

कलि ने कहा – हे भगवन् ! आप मेरे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम को स्वीकार करें । मेरी रक्षा कीजिए । हे कृपानिधे ! मैं आपकी शरण में आया हूं । आप सभी पापों का विनाश करते हैं । सभी कालों का निर्माण करने वाले आप ही हैं । सत्ययुग में आप गौरवर्ण के थे, त्रेता में रक्तवर्ण, द्वापर में पीतवर्ण के थे । मेरे समय (कलियुग) – में आप कृष्णरूप के हैं । मेरे पुत्रों ने म्लेच्छ होने पर भी अब आर्य धर्म स्वीकार किया है । मेरे राज्य में प्रत्येक घर में द्यूत, मद्य, स्वर्ण, स्त्री – हास्य आदि होना चाहिये । परंतु अग्निवंश में पैदा हुए क्षत्रियों ने उनका विनाश कर दिया है । हे जनार्दन ! मैं आपके चरण – कमलों की शरण हूं । कलियुग की यह स्तुति सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुरा कर कहने लगे –

‘कलिराज ! मैं तुम्हारी रक्षा के लिये अंशरूप में महावती में अवतीर्ण होऊंगा, वह मेरा अंश भूमि में आकर उन महाबली अग्निवंशीय राजाओं की प्रतिष्ठा करेगा ।’ यह कहकर भगवान अदृश्य हो गये और म्लेच्छा के साथ वह कलि अत्यंत प्रसन्न हो गया ।

आगे चलकर इसी प्रकार संपूर्ण घटनाएं घटित हुईं । कौरवांशों की पराजय और पाण्डवांशों की विजय हुई । अंत में पृथ्वीराज चौहान ने वीरगति प्राप्त की तथा सहोड्डीन (मोहम्मदगोरी) अपने दास कुतुकोड्डीन को यहां का शासन सौंपकर यहां से बहुत सा धन लूटकर अपने देश चला गया ।

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