प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके। उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही …
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गुरुभक्ति के लिए एकलव्य का त्याग
निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य एक दिन हस्तिनापुर में आया और उसने उस समय के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य, कौरव-पाण्डवों के शस्त्र-गुरु द्रोणाचार्य जी के चरणों में दूर से साष्टांग प्रणाम किया। अपनी वेश-भूषा से ही वह अपने वर्ण की पहचान दे रहा था। आचार्य द्रोण ने जब उससे अपने पास आने का कारण पूछा, तब उसने बताया—‘मैं श्रीचरणों के …
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