कई वर्षों पहले जब शिक्षा गुरुकुल में ही प्राप्त होती थी | तब एक राज कुमार थे जिनका नाम था विराज | विराज हमेशा एशों आराम में पले बड़े थे | कभी सेवकों के बिना कही नहीं गए थे लेकिन अब उन्हें शिक्षा प्राप्त करने हेतु गुरुकुल जाना पड़ा | पहली बार उन्होंने अपना सामान उठाया | वे इस तरह के वातावरण में रखे गए जहाँ उनके सेवक भी नहीं रह सकते थे |और इतना सादा भोजन उन्हें दिया जाता जो उनके गले के नीचे नहीं उतरता था पर गुरुकुल की गरिमा को देखते हुए वे चुपचाप उसे खाते |पर उनके अन्दर एक अजीब सी बैचेनी थी जो उन्हें परेशान कर रही थी| जैसे तैसे एक दिन गुजरा उन्होंने अपने एक साथी शिष्य से बात की | विराज ने उनसे पूछा- वे कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? और उनकी सिद्धी क्या हैं ? साथी शिष्य ने हँसकर उत्तर दिया हे सखा ! मैं भी एक राज कुमार हूँ | शिक्षा प्राप्त करने आया हूँ और यह मेरा अंतिम वर्ष हैं | और मैंने जीवन जीने की कला सीखी हैं यही मेरी सिद्धी हैं |
अगले दिन, सभी शिष्यों के साथ विराज को भी भिक्षा हेतु नगर में जाना था | भिक्षा लेने जाना अनिवार्य था जो सभी को समान जीवन का अनुभव देता था| इससे सभी में समेकता का भाव आता था | साथ ही विपरीत परिस्थतियों में जीना की कला आती थी |
विराज को यह सब अजीब लग रहा था | जहाँ उनके द्वारा जिन लोगो का पालन पोषण किया जाता था| उनके सामने उन्हें हाथ फैलाना था | मन में कई प्रश्नों के साथ विराज ने नगर में प्रवेश किया |उनके मुख पर अजीब से भाव थे जिन्हें नगर में एक कन्या ने देखा और भिक्षा देते वक्त उस कन्या ने धान झोली के बाहर फेंक दिया |विराज ने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा | विराज के कुछ पूछने से पहले ही कन्या ने कहा – भाई जिस तरह यह धान व्यर्थ हुआ उसी तरह आप अपने जीवन को व्यर्थ गँवा रहे हैं | आपको इतना अच्छा जीवन मिला हैं , ज्ञान अर्जन करने हेतु गुरु का साथ मिला हैं , पर आपका मन ही नहीं लग रहा हैं |जिस तरह यह धान व्यर्थ हुआ उसी तरह आपका जीवन व्यर्थ जा रहा हैं |आप इस धान की तरह ही अपने अंदर के गुणों को व्यर्थ फेंक रहे हैं |
यह सुनकर विराज की आँखे खुल गई और उन्होंने पूरी श्रद्धा के साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की और सभी परिस्थितियों में सभी के साथ मिलकर शिक्षण प्राप्त किया | इस बदलाव के बाद विराज को अपने अहम् से उपर उठकर जीवन का महत्व समझ आया और उन्होंने जल्द जी जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया |
कहानी की शिक्षा :
जीवन विपरीत परिस्थितियों से भरा हुआ हैं जब तक व्यक्ति अहम् से ऊपर उठकर जीवन व्यापन नहीं करता | तब तक वह अशांत और निसहाय होता हैं | जब व्यक्ति अहम् भाव को छोड़कर जीवन जीता हैं तो उसे सहजता से लक्ष्य की प्राप्ति होती हैं साथ ही वह इस अमूल्य जीवन में उचित खुशियाँ प्राप्त करता हैं |