रेल का सफर जाने कितने किस्से कहानियों का जनक होता है। कुछ साल पहले तक मैं काफी रेल यात्राएं किया करता था। उस दौरान ऐसे कई अनुभव हुए, जो यादगार बन गए। वहीं कुछ विचित्र और असहज करने वाले वाक़्यात भी हुए।
हिंदुस्तान में रेल केवल लोगों और सामान को यहां से वहां पहुंचाने का जरिया भर नहीं है, लाखों लोगों की आजीविका का साधन भी है। जो सीधे रेलवे में नौकरी करते हैं, उनसे इतर लाखो लोग अपरोक्ष रूप से रेलवे से फायदा उठाते हैं। जैसे भिखारी, अवैध वेंडर, ऑटो रिक्शा वाले, जेबकतरे, उठाईगीर और किन्नर।
इनमें सबसे अनोखी प्रजाति है किन्नरों की। रेल के जनरल डिब्बे और थ्री टियर में ये अकेले या, झुंड बनाकर घुस जाते हैं, और यात्रियों से जबरन पैसे वसूलते हैं। किस बात के पैसे लिए जाते हैं, यह कोई नहीं पूछता। बस एक रवायत है सो चुपचाप दे देते हैं सब। झगड़े और हंगामे से भी डरते हैं लोग। ये भी कहा जाता है कि इनकी दुआओं में असर होता है इसीलिए पैसा देना चाहिए। जो भी हो, पर चूंकि ये समाज से कटे रहते हैं, तो उनका भरण पोषण इस बहाने हो जाता है।
मुझे किसी भी याचक को कुछ देने में समस्या नहीं होती। परंतु किन्नरों का तौर तरीका असहज करने वाला होता है। उन्हें देखकर लोग बेहूदा हरकतें करने लगते हैं। जिस पर उनकी प्रतिक्रिया भी खासी वाहियात होती है। कुल मिलाकर वह दृश्य असहनीय होता है। मेरे विचार से हमारा व्यवहार हर मनुष्य से एक जैसा होना चाहिए। स्त्री, पुरुष या किन्नर सभी सम्मान के बराबर अधिकारी हैं, इसीलिए मुझे ज्यादा कोफ्त होती है।
ऐसे ही, एक बार कई साल पहले, मैं शायद भुसावल जा रहा था, रिजर्वेशन नहीं था तो दरवाजे के पास खड़े होकर सफर कर रहा था। मात्र दो घंटे की यात्रा है, तो कोई खास तकलीफ नहीं होती। भयंकर गर्मी का समय था, लू के थपेड़े चल रहे थे और मेरा किसी बात से मूड भी बुरी तरह उखड़ा हुआ था। आमतौर पर मुझे गुस्सा नहीं आता, लेकिन आ जाए तो मामला गंभीर हो जाता है।
उसी समय एक किन्नर डिब्बे के दूसरी तरफ से चढ़ा और ताली बजा बजाकर सबसे पैसे मांगने लगा। वह हर एक से दस रुपये ले रहा था, और साथ ही यह बोलता जा रहा था कि “केवल मूँछ वाले पैसे देना, मैं बिना मूँछ वाले का पैसा नहीं लेती” इसी तरह वह सब पुरुषों के सामने जाए, किसी से पैसा ले किसी से नहीं। हर बार एक फ़हश मजाक और लोगों की भद्दी हंसी, माहौल को बेहद घटिया बना रही थी।
मेरा पारा पहले से ही गर्म था, उससे बचना चाहता था। डर था कि कहीं वो मजाक करे और मैं उसे एकाध धर ना दूँ। स्टेशन आने वाला था, जगह बदलने की गुंजाइश नहीं थी, इसलिए चुपचाप खड़ा रहा। अपनी मस्ती में मगन वह मेरे सामने आ गया। मैं क्लीन शेव था, लेकिन इसके पहले की वो कुछ कहे, मैंने जेब से दस रुपये का नोट निकाला और उसकी तरफ बढ़ा दिया। चेहरे पर गुस्सा तो था ही, जलती आंखों से घूरने लगा उसे।
वो एकदम से सकपका गया, मजाक नहीं किया, कुछ क्षण मेरी तरफ देखता रहा, चुपचाप हाथ से नोट ले लिया, फिर मुस्कुराकर बोलता है “हां तो लेती हूँ ना डराता कायको है, बड़ा फौजी आया कैसे घूर रहा है, जाती हूँ, मत गुस्सा कर”। इस अप्रत्याशित जवाब पर मेरा क्रोध एकदम से ठंडा हो गया, बाकी लोग भी हंसने लगे।
बहरहाल स्टेशन आ गया सब नीचे उतर गए। मुझे अपने व्यवहार पर मलाल हुआ। खैर मुझ पढ़े लिखे से तो वो अनपढ़ किन्नर ज्यादा समझदार निकला। जो एक क्षण में मिजाज समझ गया, चाहता तो हंगामा भी कर सकता था, जैसा अक्सर करते हैं ये लोग, पर वो एक परिपक्व इंसान निकला, जो सिर्फ हालात के चलते वैसा काम कर रहा था। बेहद दुखद है कि हमारा समाज लैंगिक पक्षपात के चलते इन निरपराध लोगो को ऐसा विषम जीवन जीने को मजबूर करता है, जो अगर सामान्य तरीके से रह पाते तो शायद बहुत कामयाब इंसान बनते है।
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