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अनूठी सेवा भावना !!

गीता मर्मज्ञ सद्गृहस्थ संत जयदयाल गोयंदका ने आजीवन गीता का प्रचार करने का संकल्प लिया था। इसी उद्देश्य से गीता प्रेस गोरखपुर ) की स्थापना की गई थी।

उन्होंने स्वयं भी अनेक धार्मिक ग्रंथों की रचना की । वे प्रायः कहा करते थे, ‘पीड़ितों की सेवा सबसे बड़ा धर्म है। जिसका हृदय दूसरे के दुःख को देखकर द्रवित नहीं होता, वह धार्मिक हो ही नहीं सकता।’ 

एक बार वह अपनी जन्मस्थली चुरु ( राजस्थान) में ठहरे हुए थे। उन्हें पता लगा कि गरीब दलितों की बस्ती में आग लग गई है। उनका सबकुछ राख हो गया है। यह सुनते ही गोयंदकाजी का हृदय द्रवित हो उठा।

वे अपने साथियों को लेकर घटनास्थल पर पहुँचे। पीड़ितों की अन्न व वस्त्रादि से सहायता की । धर्मशाला में उन्हें ठहरने की व्यवस्था की और अपने धन से उन लोगों के लिए पुनः झोंपड़ियाँ बनवाईं।

कुछ दिनों बाद उस बस्ती में फिर आग लग गई। इस बार भी गोयंदकाजी ने उन लोगों की झोंपड़ियाँ बनवा दीं। किसी व्यक्ति ने उनसे कहा, ‘बार-बार झोंपड़ियाँ बनवाने की जिम्मेदारी क्या आपने ही ली है?’

उन्होंने कहा, ‘यदि कोई बार-बार बीमार होता है, तो क्या उसका इलाज नहीं कराया जाता? इसी प्रकार हमें यह मानना चाहिए कि हम आपदाग्रस्त लोगों की सेवा कर भगवान् की ही पूजा-उपासना कर रहे हैं । ‘ गोयंदकाजी ने आजीवन दरिद्रों की सेवा अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की तरह की ।

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