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कठिन परिस्थिति बीत गयी

ऑपरेशन होने के बाद नर्स, देव की मां को स्टेचर पर लिटाकर आई सी यू रूम की ओर ले जा रही है घंटे भर से प्रतीक्षारत देव अम्मा-अम्मा पुकार कर दौड़ते हुए, नर्स को रोकने का असफल प्रयास करता है। उसी उहाफोह में उसने शून्य सी पड़ी मां की एक झलक पा लेता है। पर मां की ओर से कोई प्रतिक्रया न पाकर वह नि:शब्द हो जलहीन मछली की तरह फड़फड़ाने लगता है, उसके मन में अनहोनी की आशंका कौंध जाती है।

वह सोचने लगता है- दसवीं के बाद से जब मैं पढ़ाई करने के लिए शहर चला गया था तब मेरे अम्मा-बाबूजी अपनी जरूरतें कम कर, इच्छाएं दबा कर, एक-एक पैसा जमा कर, मेरे लिए भेजा करते, हमारे पास तब मोबाइल फोन भी नहीं था। न ही उसकी जरूरत महसूस होती, कुशल-क्षेम लेने-देने का माध्यम चिट्ठी ही थी। मेरी छुट्टियों का इंतजार करती अम्मा, मेरा रास्ता देखती जब वह दूर से मुझे आते देखती तो दौड़ कर आती और मेरा बैग लेकर अपने कंधे पर लाद लेती। अपनी सामर्थ्य के अनुसार छुट्टियों भर न जाने कौन-कौन से पकवान बनाकर मुझे खिलाती? शायद आज भी उसने मेरा रास्ता देखा होगा, मैं ही समय पर नहीं पहुंचा। बाबूजी ने फोन पर बताया कि डाक्टर का कहना है- खराब किडनी निकालने के बाद एक किडनी के बल पर वह स्वस्थ जीवन जी लेगी।

पास ही व्यस्तता में इधर-उधर भाग रहे बाबूजी की बात ने उसका ध्यान भंग किया- बेटा! तू चिंता न कर, तेरी अम्मा ठीक है। कुछ देर में होश आने पर तुझसे बात करेगी। पर बेटा! जो रुपया तूने भेजा था, उससे अधिक तेरी अम्मा के इलाज में लग गया है। अपनी दुधारू गाय को भी बेचना पड़ा मुझे। अगर तेरे पास पैसा है तो तुरंत बीस हज़ार रुपए निकाल ला। देव पिता की मन:स्थिति को समझ गया। वह उनसे लिपटकर सिसकियां भरने लगा। अपने मन की उथल-पुथल को संयमित करते हुए उसने पिता को सब प्रकार से आस्वस्त किया। अब इंतजार था कि मां को होश में आए। और पहले की तरह उसे को गले लगाकर उससे बातचीत करे।

पांच दिन बाद डाक्टर ने बताया कि वह कोमा में चली गईं हैं। कब होश आएगा? कुछ कहा नहीं जा सकता। यह सुनकर बाप-बेटे के “होश उड़ गए”। पर उनके वश में कुछ था भी नहीं। दो महीने बाद छुट्टियां न मिल पाने के कारण देव माता-पिता को भी अपने साथ शहर ले आया। उसने किराए पर एक घर ले लिया। डाक्टरों के कहने के अनुसार मां की देखभाल के लिए एक नर्स रख ली। सामान्य सी नौकरी में देव के लिए इतना खर्चा मुश्किल होता देख, पिता को भी छोटा-मोटा काम करना पड़ा। न चाहते हुए भी देव उन्हें रोक नहीं पाया। परंतु महीने भर में ही उसे पदोन्नति मिलने से उसकी आर्थिक समस्या का समाधान हो गया। पिता के मना करने के बाद भी उसने अपनी सामर्थ्य के अनुसार अम्मा का यथासंभव इलाज करवाया। समय बीतता गया। एक साल में ही उसने अपनी मां के नाम से एक मकान खरीद लिया। पिता के आग्रह पर उसने शादी भी कर ली। उन्होंने देव से कहा- बेटा ! तू अब नर्स को मना कर दे, मैं और बहू मिलकर तेरी मां की देखभाल कर लेंगे। तुझे भी अपने भविष्य की निश्चित और अनिश्चत आवश्यकताओं के लिए रुपए बचाने चाहिए।

परंतु कुछ ही महीनों में बहू को ससुर और बीमार सास बोझ लगने लगे। अकस्मात एक दिन देव की मां मूर्छा से जाग गई। पिता के मुकाबले बेटा बहुत खुश था। वह मां के चरन-कमलों में सारे सुख बिछाने को उतावला था। चार-छ: महीनों में मां तो स्वस्थ हो गई, पर देव की पत्नी बहुत दुःखी हो गई। उसने देव से स्पष्ट कह दिया कि- वह उसके अम्मा-बाबूजी के साथ नहीं रह सकती। धीरे-धीरे दोनों में तनाव बढ़ने लगा। अम्मा-बाबूजी को सारी बात समझते अधिक समय न लगा। उन्होंने जब अपनी बहू को बताया कि जल्दी ही वे अपने गांव चले जाएंगे। तो परिवार का माहौल थोड़ा संतोषजनक हुआ। लेकिन देव उन्हें अपने से दूर नहीं करना चाहता था। वह जानता था कि अम्मा-बाबूजी को इस उम्र में सर्वाधिक जरूरत उसी की है।

अम्मा ने उसके सिर पर लाड़ से हाथ फेरकर समझाया- बेटा! जो कठिन परिस्थिति बीत गयी उसमें तो हम सब साथ ही थे ना? मैं तेरी सफल गृहस्थी देखने के स्वार्थ से यहां रुक नहीं सकती। अभी हमारा यहां से जाना ही सबके लिए हितकर होगा। मैं जानती हूं तू हमारे बिना दुःखी होगा, पर हमारे रहते सुखी भी नहीं रहेगा। हम दुःख-तकलीफ में तेरे ही पास तो आएंगे ना?

देव उनसे रुकने की विनती कर पुनः जलहीन मछली की तरह तड़पता रह गया। अम्मा-बाबूजी देव को ढेरों आशीष देकर खुशी-खुशी अपने गांव की ओर निकल पड़े।

लेखन विधा- “गद्य”
प्रभा पाण्डेय (शिक्षिका)
टनकपुर (उत्तराखंड)

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