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करुणा और प्रेम !!

दक्षिण भारत के एक नगर में तिरुविशनल्लूर अय्यावय्यर नामक एक निश्छल हृदय के विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि करुणा और प्रेम ही धर्म का सार है।

एक बार उनके पिता के श्राद्ध का दिन था। ब्रह्मभोज की तैयारी हो रही थी। श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को जो भोजन दिया जाता है, उसे विष्णु भोजन कहा जाता है।

ब्राह्मण श्राद्ध-तर्पण कराने आने ही वाले थे कि अय्यावय्यर दूब (श्राद्ध में उपयोग होने वाली घास) लेने घर के पिछवाड़े गए। उन्होंने देखा कि वहाँ भूख से व्याकुल एक व्यक्ति खड़ा है।

अय्यावय्यर को देखते ही वह बोला, ‘चार दिन से कुछ नहीं खाया है। भूख के कारण प्राण निकले जा रहे हैं। जूठा-बासी जैसा भी भोजन हो, देकर मेरे प्राण बचाओ।’ उसके करुणा भरे शब्द सुनकर अय्यावय्यर का हृदय द्रवित हो उठा।

वे घर के अंदर गए और श्राद्ध की जो सामग्री पत्ते पर रखी थी, लाकर उस भूखे व्यक्ति को भेंट कर दी।

पुरोहित ने यह देखा, तो वह क्रोधित होकर बोला, ‘पंडित होकर भी बिना भोग की सामग्री निम्न जाति के भिखारी को देकर तुमने घोर पाप किया है।

अब तुम्हें प्रायश्चित्त करना पड़ेगा, तभी हम ब्राह्मण भोजन करेंगे।’ क्रोध-अभिमान में पगलाए पुरोहित ने श्राद्ध का भोजन करने से इनकार कर दिया।

तभी अचानक पुरोहित ने देखा कि भगवान् आसन पर बैठे अय्यावय्यर को उपदेश दे रहे हैं, ‘तुम्हारे पिता तुम्हारी करुणा भावना से प्रसन्न हैं। उन्होंने भोजन प्राप्त कर लिया है।’

यह देख पुरोहित अय्यावय्यर के चरणों में झुककर बोला, ‘तुम धन्य हो, भूखे में भगवान् के दर्शन करनेवाला ही सच्चा धर्मात्मा है।

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