उसी मेघङ्कर नगरमें कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे , जो ब्रह्मचर्यपरायण , ममता और अहंकारसे रहित , वेद – शास्त्रोंमें प्रवीण , जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेवके शरणागत थे । उनका नाम सुनन्द था । प्रिये ! वे शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान्के पास गीताके ग्यारहवें अध्याय विश्वरूपदर्शनयोगका पाठ किया करते थे । उस अध्यायके प्रभावसे उन्हें ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी । परमानन्द – संदोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधिके द्वारा इन्द्रियोंके अन्तर्मुख हो जानेके कारण वे निश्चल स्थितिको प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगीकी स्थितिमें रहते थे । एक समय जब बृहस्पति सिंह राशिपर स्थित थे , महायोगी सुनन्दने गोदावरीतीर्थकी यात्रा आरम्भ की । वे क्रमशः विरजतीर्थ , तारातीर्थ , कपिलासंगम , अष्टतीर्थ , कपिलाद्वार , नृसिंहवन , अम्बिकापुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रोंमें स्नान और दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगरमें आये ।
वहाँ उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहरनेके लिये स्थान माँगा , परंतु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला । अन्तमें गाँवके मुखियाने उन्हें एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी । ब्राह्मणने साथियोंसहित उसके भीतर जाकर रातमें निवास किया । सबेरा होनेपर उन्होंने अपनेको तो धर्मशालाके बाहर पाया , किंतु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये । वे उन्हें खोजनेके लिये चले , इतनेमें ही ग्रामपाल ( मुखिये ) से उनकी भेंट हो गयी । ग्रामपालने कहा – ‘ मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकारसे दीर्घायु जान पड़ते हो । सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषोंमें तुम सबसे पवित्र हो । तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान है । तुम्हारे साथी कहाँ गये ? और कैसे इस भवनसे बाहर हुए ? इसका पता लगाओ । मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे – जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता । विप्रवर ! तुम्हें किस महामन्त्रका ज्ञान है ? किस विद्याका आश्रय लेते हो तथा किस देवताकी दयासे तुम्हें अलौकिक शक्ति आ गयी है ? भगवन् ! कृपा करके इस गाँवमें रहो । मैं तुम्हारी – सब सेवा – शुश्रूषा करूँगा ।
यों कहकर ग्रामपालने मुनीश्वर सुनन्दको अपने गाँवमें ठहरा लिया । वह दिन – रात बड़ी भक्तिसे उनकी सेवा – टहल करने लगा । जब सात – आठ दिन बीत गये , तब एक दिन प्रात : काल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्माके सामने रोने लगा और बोला – ‘ हाय ! आज रातमें राक्षसने मुझ भाग्यहीनके बेटेको चबा लिया है । मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था । ग्रामपालके इस प्रकार कहनेपर योगी सुनन्दने पूछा – ‘ कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है ? ‘
ग्रामपाल बोला –
ब्रह्मन् ! इस नगरमें एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है । वह प्रतिदिन आकर इस नगरके मनुष्योंको खा लिया करता था । तब एक दिन समस्त नगरवासियोंने मिलकर उससे प्रार्थना की ‘ राक्षस ! तुम हम सब लोगोंकी रक्षा करो । हम तुम्हारे लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं । यहाँ बाहरके जो पथिक रातमें आकर नींद लेने लगें , उनको खा जाना । ‘ इस प्रकार नागरिक मनुष्योंने गाँवके ( मुझ ) मुखियाद्वारा इस धर्मशालामें भेजे हुए पथिकोंको ही राक्षसका आहार निश्चित किया । अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा । तुम भी अन्य राहगीरोंके साथ इस घरमें आकर सोये थे ; किंतु राक्षसने उन सबोंको तो खा लिया , केवल तुम्हें छोड़ दिया है । द्विजोत्तम ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है , इस बातको तुम्हीं जानते हो । इस समय मेरे पुत्रका एक मित्र आया था , किंतु मैं उसे पहचान न सका । वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था , किंतु अन्य राहगीरोंके साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशालामें भेज दिया ।
मेरे पुत्रने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है , तब वह उसे वहाँसे ले आनेके लिये गया ; परंतु राक्षसने उसे भी खा लिया ।इस प्रकार उस राक्षसका संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ ।
ब्राह्मणने पूछ –
ग्रामपाल ! जो रातमें सोये हुए मनुष्योंको खाता है , वह प्राणी किस पापसे राक्षस हुआ है ?
ग्रामपाल बोला –
ब्रह्मन् ! पहले इस गाँवमें कोई किसान ब्राह्मण रहता था । एक दिन वह अगहनीके खेतकी क्यारियोंकी रक्षा करने में लगा था । वहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राहीको मारकर खा रहा था । उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले , जो उस राहीको बचानेके लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहे थे । गिद्ध उस राहीको खाकर आकाशमें उड़ गया । तब तपस्वीने कुपित होकर उस किसानसे कहा – ‘ ओ दुष्ट हलवाहे ! तुझे धिक्कार है । तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है । दूसरेकी रक्षासे मुँह मोड़कर केवल पेट पालनेके धंधे में लगा है । तेरा जीवन नष्टप्राय है । अरे ! जो चोर , दाढ़वाले जीव , सर्प , शत्रु , अग्नि , विष , जल , गीध , राक्षस , भूत तथा बेताल आदिके द्वारा घायल हुए मनुष्योंकी शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है , वह उनके वधका फल पाता है । जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदिके चंगुलमें फँसे हुए ब्राह्मणको छुड़ानेकी चेष्टा नहीं करता , वह घोर नरकमें पड़ता और पुनः भेड़ियेकी योनिमें जन्म लेता है । जो वनमें मारे जाते हुए तथा गृध्र और व्याघ्रकी दृष्टिमें पड़े हुए जीवकी रक्षाके लिये ‘ छोड़ो , छोड़ो ‘ की पुकार करता है , वह परम गतिको प्राप्त होता है ।
जो मनुष्य गौओंकी रक्षाके लिये व्याघ्र , भील तथा दुष्ट राजाओंके हाथसे मारे जाते हैं , वे भगवान् विष्णुके उस परम पदको पाते हैं जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है । सहस्त्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत – रक्षाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते । दीन तथा भयभीत जीवकी उपेक्षा करनेसे पुण्यवान् पुरुष भी समय आनेपर कुम्भीपाक नामक नरकमें पकाया जाता है * तूने दुष्ट गिद्धके द्वारा खाये जाते हुए राहीको देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो इसकी रक्षा नहीं की , इससे तू निर्दयी जान पड़ता है , अतः तू राक्षस हो जा ।
हलवाहा बोला –
महात्मन् ! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था , किंतु मेरे नेत्र बहुत देरसे खेतकी रक्षामें लगे थे , अतः पास होनेपर भी गिद्धके द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्यको मैं नहीं जान सका । अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये ।
तपस्वी ब्राह्मणने कहा –
जो प्रतिदिन गीताके ग्यारहवें अध्यायका जप करता है , उस मनुष्यके द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा , उस समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा । यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया ; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्यायसे तीर्थके जलको अभिमन्त्रित करो । फिर अपने ही हाथसे उस राक्षसके मस्तकपर उसे छिड़क दो ।
ग्रामपालकी यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर आया । वे ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर उसके साथ राक्षसके निकट गये । वे ब्राह्मण योगी थे । उन्होंने विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला । गीताके ग्यारहवें अध्यायके प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया । उसने राक्षस – देहका परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्त्रों पथिकोंका भक्षण किया था , वे भी शङ्ख , चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुजरूप हो गये । तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए
इतनेमें ही ग्रामपालने राक्षससे कहा – ‘ निशाचर ! मेरा पुत्र कौन है ? उसे दिखाओ । ‘ उसके यों कहनेपर दिव्य बुद्धिवाले राक्षसने कहा – ‘ ये जो तमालके समान श्याम , चार भुजाधारी , माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य मणियोंके बने हुए कुण्डलोंसे अलंकृत हैं , हार पहननेके कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं , जो सोनेके भुजबंदोंसे विभूषित , कमलके समान नेत्रवाले , स्निग्धरूप तथा हाथमें कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं , इन्हींको अपना पुत्र समझो । ‘ यह सुनकर ग्रामपालने उसी रूपमें अपने पुत्रको देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा । यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा ।
पुत्र बोला –
ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो । पहले मैं तुम्हारा पुत्र था , किंतु अब देवता हो गया हूँ । इन ब्राह्मण – देवताके प्रसादसे वैकुण्ठधामको जाऊँगा । देखो , यह निशाचर भी चतुर्भुजरूपको प्राप्त हो गया । ग्यारहवें अध्यायके माहात्म्यसे यह सब लोगोंके साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है ; अतः तुम भी इन ब्राह्मणदेवसे गीताके ग्यारहवें अध्यायका अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो । इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी । तात ! मनुष्योंके लिये साधु पुरुषोंका सङ्ग सर्वथा दुर्लभ है । वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है ; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो । धन , भोग , दान , यज्ञ , तपस्या और पूर्वकर्मोंसे क्या लेना है । विश्वरूपाध्यायके पाठसे ही परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है । पूर्णानन्दसंदोहस्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुखसे कुरुक्षेत्रमें अपने मित्र अर्जुनके प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था , वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है ।
तुम उसीका चिन्तन करो । वह मोक्षके लिये प्रसिद्ध रसायन है । संसार – भयसे डरे हुए मनुष्योंकी आधि – व्याधिका विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखोंका नाश करनेवाला है । मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं देखता , अतः उसीका अभ्यास करो ।
श्रीमहादेवजी कहते हैं –
यों कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया । तब ग्रामपालने ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ा । फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये । पार्वती ! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्यायकी माहात्म्य – कथा सुनायी है । इसके श्रवणमात्रसे महान् पातकोंका नाश हो जाता है ।