हमारे टाइम पुराने। लाइट आया नहीं करती थी, आती थी तो बस इतना ही सानी काट ली, चून पीस लिया। बाकी तो बाहर आंगन या गली में में चारपाइयां होती थी, दोपहर को आंगन के पेड के नीचे कब घंटों बीत जाया करते थे पता कहां चलता था। जमाना बीत गया अब तो वैसी नींद लिए।
खाने का मैन्यू भी फिक्स ही था, एक दिन रायता, एक दिन चने की दाल, एक दिन कढी, एक दिन टिंडसी, घीया, पेठा या जो फस जाए और बाकी दिन चटनी। सुबह सबकी रोटी एक साथ बनती थी थी और फिर दिनभर खाई जाती थी। शाम को दलिया या खिचडी। किसी के घर बटेऊ चटेऊ आया होता तो भी सब्जी पडोस से मांगकर ही खिला देते थे।
दादी पीढे पर बैठया करती थी और सबको बांट बांटकर परोसा करती। कई बार तो उनकी थाली के लिए कुछ भी नहीं बचता था लेकिन मजाल है दादी के चेहरे से कभी सुकून गायब हुआ हो। बाजरे की रोटी दादी ही बनाया करती थी, कहा करती, इन बऊआं ने कै बेरा बाजरे की रोटियां का।
करियर क्या होता है ना बडों को पता था और ना छोटों को फिक्र। दिन में दादी चरखा कातया करती, मां दरी बनाया करती। दिन में तो सोते देखा नहीं कभी। कोई कोई बात फोडण काकी ताई पहुंच जाया करती थी और काम का भी जोटा सा मरवा दिया करती।
दादा की बैठक की तो पूछो ना। पूरा दिन होक्के बाजया करते। दादा नोहरे में रहा करता और रोटी सबसे पहले दादा की पहुंचा करती। दोपहर में दादा की पहुंची चाय में बचे दो घूंट आज भी स्वाद याद है।
हम वो पीढी हैं जिन्होंने वो टाइम भी देखा और अब ये एसी वाला भी देख रहे हैं। सच कहता हूं क्या दिन थे यारों, ये तरक्की, ये पैसा सब बेमानी है हमारे गांव वाले उन दिनों के सामने।
Check Also
बेजुबान रिश्ता
आँगन को सुखद बनाने वाली सरिता जी ने अपने खराब अमरूद के पेड़ की सेवा करते हुए प्यार से बच्चों को पाला, जिससे उन्हें ना सिर्फ खुशी मिली, बल्कि एक दिन उस पेड़ ने उनकी जान बचाई। इस दिलचस्प कहानी में रिश्तों की महत्वपूर्णता को छूने का संदेश है।