भाईचारे की भावना मन को मन से व हृदय से हृदय को जोड़ती है। परिवार और समाज भाईचारे की भावना पर खड़े हैं। परिवार में समरूपता और सभ्य समाज इसी के परिणाम हैं। भाईचारे के वातावरण में प्रेम एवं सद्भाव की दिव्यता छलकने लगती है। इसके अभाव में वैमनस्य, विघटन, अलगाव और अविश्वास का वातावरण बनता है। समाज में दुर्भावनाएं और कटुता फैलती हैं। भ्रातृत्व की भावना का विकास करना ही एकमात्र समाधान है।
उपनिषद् कहते हैं कि जहाँ भ्रातृत्व भाव होता है, वहाँ सुख, शान्ति और प्रसन्नता छलकती रहती है। एकाकी जीवन और अलगाव में न सुख है और न शान्ति। मनुष्य एक मननशील और सामाजिक प्राणी है। वह समाज से दूर रह कर अकेला जीवन नहीं व्यतीत कर सकता। हमारे जीवन निर्वाह के लिए समाज को सौहार्दपूर्ण वातावरण की आवश्यकता पड़ती ही है।
अकेला रहना किसी दंड से कम नहीं है। अत: समाज में रहने का न्यूनतम मापदंड एक ही है-भ्रातृत्व भावना का होना। जब हम इस गुण को विकसित कर लेते हैं तो अपने आप ही समाज का एक अभिन्न और महत्वपूर्ण इकाई बन जाते हैं। एकाकीपन की कठोर यातना से बचने के लिए भ्रातृत्व का भाव विकसित करना जरूरी है। हाथ की पांच उंगलियों के समान मिलजुल कर रहने में ही सुख है। सभी में भ्रातृत्व की भावना किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है। हाँ, किसी में कम या किसी में अधिक हो सकती है। जरूरत है, केवल आपसी प्रेम एवं भाईचारे की।
मनुष्यता के बिना मनुष्य की कल्पना संभव नहीं। जैसे सूरज की उष्णता, चन्द्रमा की शीतलता, जल की तरलता और दीपक का प्रकाश ही उनकी सच्ची विशेषता है, उसी प्रकार मनुष्यता मनुष्य का गुण धर्म है। भ्रातृत्व भाव इस गुण का अभिवद्र्घन है। हम मनुष्य एक हरे-भरे वृक्ष की एक टहनी के समान हैं। हमारा अस्तित्व तभी तक है, जब तक वृक्ष विद्यमान हैं।
भाई चारे में भगवान विराजते हैं, इस लिए मिलजुल कर सभी समस्याओं का हल ढूंढना चाहिए