प्राचीनकाल में एक गुरुकुल से एक विद्यार्थी स्नातक की उपाधि प्राप्त करके जब घर जाने लगा, तो गुरुजी ने उसे उपदेश दिया कि प्रतिदिन कुछ न कुछ अवश्य पढ़ना और पढ़ाना चाहिए।
शिष्य ने गुरु की बात गांठ बांध ली। घर वापस आकर उसने प्रतिदिन अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। लेकिन गुरु की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन पढ़ाना भी आवश्यक था। इसके लिए उसने गांव के बच्चों को पढ़ाने का विचार किया।
उसने ग्रामीणों से बात की तो वे अपने बच्चों को उसके पास भेजने को तैयार हो गए। विद्यालय से वापस आकर बच्चे उस स्नातक के पास अध्ययन के लिए आने लगे। धीरे-धीरे वे बच्चे इतने होशियार हो गए कि विद्यालय में अपने शिक्षकों के पढ़ाने में भी कमियां निकालने लगे।
शिक्षकों ने सोचा कि ये अचानक इतने तेज कैसे हो गए ? पता करने पर पता चला कि गांव में एक स्नातक आया है जो रोज इन बच्चों को पढ़ाता है। शिक्षकों ने सोचा कि वही इन्हें सिखाता होगा कमियां निकालने के लिए।
इसलिए सभी शिक्षकों ने मिलकर विचार किया कि बच्चों को इसके पास जाने से रोका जाए। सभी ने किसी बच्चे को प्रलोभन देकर तो किसी को भय दिखाकर स्नातक के पास पढ़ने जाने से रोक दिया।
दूसरे दिन बच्चे उसके पास पढ़ने नहीं गए। तब दूसरे दिन शिक्षकों ने सोचा कि चलकर देखना चाहिए कि अब वह स्नातक क्या कर रहा है ? जब वे लोग उसके घर पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उसके घर के सामने दस-बारह खूंटे गड़े हैं और वह उनके सामने बैठकर विद्याभ्यास कर रहा है।
शिक्षकों ने उससे पूछा कि यह क्या है ? तब उसने उत्तर दिया कि मुझे केवल विद्याभ्यास से मतलब है। जब बच्चे नहीं आ रहे हैं तो मैं इन खूँटों के सामने ही अभ्यास कर रहा हूँ। यह सुनकर सभी शिक्षकों को आभास हुआ कि यह सच्चा विद्याध्यायी है।
उन्होंने उसे आचार्य की उपाधि प्रदान की। संस्कृत में खूंटे को शंकु कहा जाता है। इसलिए उसका नाम आचार्य शंकुक पड़ा। जो कि काव्यशास्त्र एवं न्यायशास्त्र के मूर्धन्य विद्वान माने जाते हैं। जिनका रस संबंधी अभिमत- अनुमितिवाद (चित्र- तुरगन्याय) आज भी पढ़ा और पढ़ाया जाता है।
सीख- Moral
किसी भी विद्या अथवा कला का नियमित अभ्यास आवश्यक है। अन्यथा वह क्षीण हो जाती है। इसलिए विद्यार्थियों, विद्वानों एवं कलाकारों को नियमित अभ्यास अवश्य करना चाहिए।