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माँ का स्नेह!!

जब हम छोटे थे तब माँ रोटियां एक स्टील के कटोरदान में रखा करती थी। रोटी रखने से पहले कटोरदान में एक कपडा बिछाती वो कपडा भी उनकी पुरानी सूती साड़ी से फाड़ा हुआ होता था।
वो कपडा गर्म रोटियों की भाप से गिरने वाले पानी को सोख लेता था, जैसे माँ की साड़ी का पल्लू सोख लेता था, हमारे माथे पर आया पसीना। कभी वह धूप में छाँव बन जाता, कभी ठण्ड में कानों को गर्माहट दे जाता।
कभी कपडा न होता तो अख़बार भी बिछा लेती थी माँ…..लेकिन कुछ बिछातीं ज़रूर थी।
समय बीतता गया और हम बड़े हुए। एक बार दीपावली पर बिटिया रानी मम्मी के साथ बाजार गयी तो बर्तनो की दुकान पर देखा केसरोल…..चमचमाते लाल रंग का,बाहर से प्लास्टिक और अंदर से स्टील का था। दुकानदार ने तपाक से कहा ये लेटेस्ट है माँ जी, इसमें रोटियां गर्म रहती है।
बिटिया रानी तो माँ के पीछे ही पड़ गयी कि अब तो इसी में रोटियां रखी जाएँगी। तब माओं की कहाँ चलती थी बेटियों की ज़िद के आगे। अब रोटीयां कैसेरोल में रखी जाने लगी और कटोरदान में माँ अब पापड़ रखने लगी थी।
अगले महीने, माँ की एक सहेली ने ,पापड़ मंगवा के दिए पर, वो तो बहुत बड़े थे, तो कटोरदान में फिट ही नहीं हो पIये। इसलिए उन्हें एक दूसरे बड़े डब्बे में रखा गया और अब कटोरदान में माँ ने पलोथन(परथन) रख दिया। पलोथन माने सूखा आटा जो रोटी को चिपकने नहीं देता।
जैसे जैसे समय बीतता गया, कटोरदान की भूमिका भी बदलती गई। पर वो मायूस न हुआ जैसा था वैसा ही रहा बस ढलता गया नयी भूमिकाओं में।
कुछ और समय बीता तो बिटिया रानी की शादी हो गयी और वो एक नए शहर में आ गयी।
माँ ने बिटिया रानी को बहुत सुन्दर कीमती और नयी नयी बस्तुएँ दी अपनी गृहस्थी को सजाने के लिए….पर बिटिया रानी को हमेशा कुछ कमी लगती थी।
बिटिया रानी एक बार जब गर्मी की छुटियों में माँ से मिलने गई तो माँ ने मुझे उसे एक लेटेस्ट मॉडल का कैसेरोल का सेट दिया तो बिटिया रानी ने कहा मुझे ये नहीं वो कटोरदान चाहिए।
माँ हंस दी ….
उसका क्या करेगी ?
ये ले के जा लेटेस्ट है।
बिटिया रानी कंहा मानने वाली थी, बोली कहा हाँ ठीक है पर वो भी..
माँ मुस्कुरा दी और पलोथन निकाल कर कटोरदान धोने लगी। उसे अपनी साड़ी के पल्लू से सुखाया और उसमे लडडू रख कर बिटिया रानी के बैग में में रख दिए।
अब खुश?
बिटिया रानी ने कहा,-” हाँ “
बिटिया रानी उस कटोरदान को बहुत काम में लेती है।
सच कहें तो उसका अकेलापन कुछ कम हुआ। कभी बेसन के लड्डू भर के रखती थी तो कभी शक्कर पारे, कभी उसमें ढोकला बना रखती है तो कभी सूजी का हलवा भी जमा कर रखती है। हाँ कभी कभी पापड़ भी रखती है… और एक दिन बच्चों की जिद्द पर उसी में केक भी बना डाला।
नित नयी भूमिका में ढल जाता है माँ का ये कटोरदान।
ससुराल आने बाद बिटिया रानी को माँ की बहुत याद आती थी, पर बिटिया रानी कहती नहीं थी कि माँ को दुःख होगा।
बिटिया अपने बारे में सोचते सोचते कभी कभी सोचती है कि क्या इस कटोरदान को भी माँ की याद आती होगी ?
ये भी तो बिटिया रानी की तरह मम्मी के हाथों के स्पर्श को तरसता होगा। आखिर इसने भी तो अपनी लगभग आधी ज़िन्दगी उनके साथ बिताई है।
बस दोनों ऐसे ही अक्सर माँ को याद कर लेते हैं। एक दूसरे को छूकर माँ का प्यार महसूस कर लेते है। बस ऐसे ही एक दूसरे को सहारा दे देते हैं। ऐसा कटोरदान शायद हर बेटी के पास होता ही होगा या होना ही चाहिए।
क्यों कि बेटियों के लिए मम्मी का कटोरदान भी माँ की थाती है, स्नेह है, स्पर्श है, स्पंदन है और भी पता नहीं क्या क्या है…………..

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