देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की धर्म व भारतीय संस्कृति में अनूठी निष्ठा थी । वे अपने भाषणों में प्रायः कहा करते थे कि भारतीय संस्कृति मानवता, करुणा,
सत्य और अहिंसा रूपी सद्गुणों को अपनाने की प्रेरणा देती है। गांधीजी के सान्निध्य में रहकर उन्होंने सत्य पर अडिग रहने का संकल्प लिया था।
राजेंद्र बाबू समय-समय पर संतों के सत्संग के लिए भी जाया करते थे। देवरहा बाबा, माँ आनंदमयी जैसी विभूतियों के दर्शन कर वे बहुत संतुष्ट होते थे। राजेंद्र बाबू ने संकल्प लिया था कि वे चमड़े से बने जूते नहीं पहनेंगे।
एक बार उनके जूते पुराने पड़ गए, तो उनका सचिव बाजार जाकर नए जूते खरीद लाया । राजेंद्र बाबू ने देखा कि जूता मुलायम चमड़े कर बना है और कीमती है।
उन्होंने सचिव से कहा, ‘मैं कपड़े के जूते ही पहनता हूँ। चमड़े के जूते मैं नहीं पहनता । यदि संभव हो, तो इन्हें लौटा दो।’ कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा, ‘केवल जूते लौटाने के लिए इतनी दूर सरकारी गाड़ी से न जाना । जब किसी अन्य काम से बाजार जाओ, तब जूते लौटा आना।’
राजेंद्र बाबू चरखे पर स्वयं के काते गए सूत से बुने कपड़े ही पहनते थे। इस बारे में पूछे जाने पर वे कहा करते थे, ‘हमने स्वाधीनता से पूर्व स्वदेशी खादी का प्रचार किया था । इसलिए देश के स्वाधीन होने के बाद हमें स्वदेशी वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिए । ‘