कल महापंडित राहुल सांकृत्यायन का 130 वां जन्मदिन था…हम उन्हें महा पंडित भले ही कहें पर उनकी विद्वत्ता के कायल इस देश के विश्व विद्यालयों के अलावा पूरी दुनिया के शैक्षणिक संस्थान थे।
इतिहास,पुरातत्व और दर्शन को हिंदी में जानने के लिए उनकी किताबें पहली सीढ़ी का काम करती हैं,मैं भी उनकी किताबों के माध्यम से दुनिया से परिचित हुआ था।पर वैज्ञानिक संस्थान में काम करते हुए उनकी अल्पज्ञात किताब “बाईसवीं सदी” जब पढ़ने को मिली तो बचपन से घरबार छोड़कर आश्रम और मठ की ख़ाक छानने वाले गंवई पंडित की वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि पर मुग्ध हो गया।
इस किताब के बारे में मैंने बोलना लिखना तब शुरू किया जब जॉर्ज ऑरवेल की किताब 1984 की चर्चा दुनियाभर में इसलिए हो रही थी कि 1984 आते आते किताब की अनेक परिकल्पनाएं वास्तविक धरातल पर मौजूद हो चुकी थीं।मैंने पहली बार मैसूर विश्वविद्यालय में आयोजित सोशल साइंस कॉंग्रेस के विज्ञान सत्र में 1984 और बाईसवीं सदी का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था और सेशन अध्यक्ष प्रो पुष्प भार्गव सरीखे वैज्ञानिक के कहने पर पूरा पर्चा हिंदी में सुनाया था।बाद में वह लेख कई पत्रिकाओं में छप कर चर्चित हुआ।
उस समय जब अनेक अध्येताओं ने यह किताब प्राप्त करने की इच्छा ज़ाहिर की तो मालूम हुआ आउट ऑफ़ प्रिंट है।मेरे पास 1977 में छपा चतुर्थ संस्करण है,अब मालूम नहीं इसकी उपलब्धता की क्या स्थिति है।
1918 में एक मिडिल पास साधु सन्यासी समाज की बेहतरी के जितने उन्नत वैज्ञानिक साधनों की कल्पना करेगा उनमें से तीन चौथाई वास्तविक धरातल पर उपस्थित हो जायेंगे यह सोचकर रोमांच होता है-किसी समाज को ऐसी विभूति पर गर्व होगा।