प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष के मध्य आने वाले इस व्रत में पुत्र की कल्याण-कामना के लिए जितिया को विधी पूर्वक निभाया जाता है. पुत्रों की लंबी उम्र के लिए माताएं जितिया व्रत को पितराइनों (महिला पूर्वजों) तथा जिमूतवाहन को सरसों का तेल व खल्ली चढ़ाती हैं. तथा इस पर्व से जुड़ी कथा की चील (चिल्हो )व सियारिन (सियारो) को भी चूड़ा-दही चढ़ाया जाता है. सूर्योदय से काफी पहले ओठगन की विधि पूरी की जाती है इसके पश्चात व्रती जल पीना भी बंद कर देते हैं.
यत्राष्टमी च आश्विन कृष्णपक्षे
यत्रोदयं वै कुरुते दिनेश:
तदा भवेत जीवित्पुत्रिकासा।
‘यस्यामुदये भानु: पारणं नवमी दिने।
अर्थात जिस दिन सूर्योदय अष्टमी में हो उस दिन जीवित्पुत्रिका व्रत करें और जिस दिन नवमी में सूर्योदय हो, उस दिन पारण करना चाहिए. इसी प्रकार इस व्रत को करने का विधान है. सुबह में स्नान के उपरांत जिमूतवाहन की पूजा कि जाती है तथा सारा दिन बिना अन्न व जल के व्रत किया जाता है. जिमूतवाहन की पूजा और चिल्हो-सियारो की कथा सुनी जाती है व खीरा व भींगे केराव का प्रसाद चढ़ाया जाता है तथा इसी प्रसाद को ग्रहण कर व्रत पूर्ण किया जाता है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. पूरी निष्ठा व आस्था के साथ यह व्रत किया जाता है जिसमें पुत्र के दीर्घ-जीवन के साथ ही अपने परिवार के लिए कल्याण-कामना भी कि जाती है. मान्यता है कि कुश का जीमूतवाहन बनाकर पानी में उसे डाल बांस के पत्ते, चंदन, फूल आदि से पूजा करने पर वंश की वृद्धि होती है.
जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व – Significance of Jitiya Fasting
आश्विन माह कि कृष्ण अष्टमी के दिन प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं. इस दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहनकी पूजा करती हैं तथा कथा श्रवण करती हैं वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. प्राय: इस व्रत को स्त्रियां करती हैं प्रदोष काल में व्रती जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा की धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि से पूजा-अर्चना करते हैं. मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की प्रतिमा बनाई जाती है इनके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाते हैं.
पूजा के समय व्रत महत्व की कथा का श्रवण किया जाता है. पुत्र की दीर्घायु, आरोग्य तथा कल्याण की कामना से स्त्रियां इस व्रत का अनुष्ठान करती हैं. जो स्त्रीयां जीमूतवाहन की अनुकम्पा हेतु पूजन-अर्चन व आराधना करतीं हैं एवं विधि-विधान से निष्ठापूर्वक कथा श्रवण कर ब्राह्माण को दान-दक्षिणा देती हैं उन्हें पुत्रों का सुख व उनकी समृद्धि प्राप्त होती है.