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एक सम्राट का बेटा बिगड़ गया

एक सम्राट का बेटा बिगड़ गया। गलत संग-साथ में पड़ गया। बाप नाराज हो गया। बाप ने सिर्फ धमकी के लिए कहा कि तुझे निकाल बाहर कर दूंगा; या तो अपने को ठीक कर ले या मेरा महल छोड़ दे। सोचा नहीं था बाप ने कि लड़का महल छोड़ देगा। छोटा ही लड़का था। लेकिन लड़के ने महल छोड़ दिया। बाप का ही तो बेटा था, सम्राट का बेटा था, जिद्दी था। फिर तो बाप ने बहुत खोजा, उसका कुछ पता न चले। वर्षों बीत गए। बाप बूढ़ा; रोते-रोते उसकी आंखें धुंधिया गईं। एक ही बेटा था। उसका ही यह सारा साम्राज्य था। पछताता था बहुत कि मैंने किस दुर्दिन में, किस दुर्भाग्य के क्षण में यह वचन बोल दिया कि तुझे निकाल बाहर कर दूंगा!

ऐसे कोई बीस साल बीत गए और एक दिन उसने देखा कि महल के सामने एक भिखारी खड़ा है। और बाप एकदम पहचान गया। उसकी आंखों में जैसे फिर से ज्योति आ गई। यह तो उसका ही बेटा है। लेकिन बीस साल! बेटा तो बिल्कुल भूल चुका कि वह सम्राट का बेटा है। बीस साल का भिखमंगापन किसको न भुला देगा! बीस साल द्वार-द्वार, गांव-गांव रोटी के टुकड़े मांगता फिरा। बीस साल का भिखमंगापन पर्त-पर्त जमता गया, भूल ही गई यह बात कि कभी मैं सम्राट था। किसको याद रहेगी! भुलानी भी पड़ती है, नहीं तो भिखमंगापन बड़ा कठिन हो जाएगा, भारी हो जाएगा। सम्राट होकर भीख मांगना बहुत कठिन हो जाएगा। जगह-जगह दुतकारे जाना; कुत्ते की तरह लोग व्यवहार करें; द्वार-द्वार कहा जाए, “आगे हट जाओ’–भीतर का सम्राट होगा तो वह तलवार निकाल लेगा। तो भीतर के सम्राट को तो धुंधला करना ही पड़ा था, उसे भूल ही जाना पड़ा था। यही उचित था, यही व्यवहारिक था कि यह बात भूल जाओ।

और कैसे याद रखोगे? जब चौबीस घंटे याद एक ही बात की दिलवाई जा रही हो चारों तरफ से कि भिखमंगे हो, लफंगे हो, आवारा हो, चोर हो, बेईमान हो; कोई द्वार पर टिकने नहीं देता, कोई वृक्ष के नीचे बैठने नहीं देता, कोई ठहरने नहीं देता–“लो रोटी, आगे बढ़ जाओ’– मुश्किल से रोटी मिलती है। टूटा-फूटा पात्र! फटे-पुराने वस्त्र! नए वस्त्र भी बीस वर्षों में नहीं खरीद पाया। दुर्गंध से भरा हुआ शरीर। भूल ही गए वे दिन–सुगंध के, महल के, शान के, सुविधा के, गौरव-गरिमा के। वे सब भूल गए। बीस साल की धूल इतनी जम गई दर्पण पर कि अब दर्पण में कोई प्रतिबिंब नहीं बने।

तो बेटे को तो कुछ पता नहीं, वह तो ऐसे ही भीख मांगता हुआ इस गांव में भी आ गया है, जैसे और गांवों में गया था। यह भी और गांवों जैसा गांव है। लेकिन बाप ने देखा खिड़की से यह तो उसका बेटा है। नाक-नक्श सब पहचान में आता है। धूल कितनी जम गई हो, बाप की आंखों को धोखा नहीं दिया जा सका। बेटा भूल जाए, बाप नहीं भूल पाता है। मूल स्रोत नहीं भूल पाता है। उद्गम नहीं भूल पाता है। उसने अपने वजीर को बुलाया कि क्या करूं? वजीर ने कहा, ज़रा संभल कर काम करना। अगर एकदम कहा तो यह बात इतनी बड़ी हो जाएगी कि इसे भरोसा नहीं आएगा। यह बिल्कुल भूल गया है, नहीं तो इस द्वार पर आता ही नहीं। इसे याद नहीं है। यह भीख मांगने खड़ा है। थोड़े सोच-समझ कर कदम उठाना। अगर एकदम से कहा कि तू मेरा बेटा है, तो यह भरोसा नहीं करेगा, यह तुम पर संदेह करेगा। थोड़े धीरे-धीरे कदम, क्रमशः।

तो बाप ने पूछा, क्या किया जाए? तो उसने कहा, ऐसा करो कि उसे बुलाओ। उसे बुलाने की कोशिश की तो वह भागने लगा। उसे महल के भीतर बुलाया तो महल के बाहर भागने लगा। नौकर उसके पीछे दौड़ाए तो उसने कहा कि ना भाई, मुझे भीतर नहीं जाना। मैं गरीब आदमी, मुझे छोड़ो। मैं गलती हो गई कि महल में आ गया, राजा के दरबार में आ गया। मैं तो भीख मांगता हूं। मुझे भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं।

वह तो बहुत डरा कि सजा मिले कि कारागृह में डाला जाए कि पता नहीं क्या अड़चन आ जाए! लेकिन नौकरों ने समझाया कि मालिक तुम्हें नौकरी देना चाहता है, उसे दया आ गई है। तो वह आया। लेकिन वह महल के भीतर कदम न रखता था। महल के बाहर ही झाड़ू-बुहारी लगाने का उसे काम दे दिया। फिर धीरे-धीरे जब वह झाड़ू-बुहारी लगाने लगा और महल से थोड़ा परिचित होने लगा, और थोड़ी पदोन्नति की गई, फिर थोड़ी पदोन्नति की गई। फिर महल के भीतर भी आने लगा। फिर उसके कपड़े भी बदलवाए गए। फिर उसको नहलवाया भी गया। और वह धीरे-धीरे राजी होने लगा। ऐसे बढ़ते-बढ़ते वर्षों में उसे वजीर के पद पर लाया गया। और जब वह वजीर के पद पर आ गया तब सम्राट ने एक दिन बुला कर कहा कि तू मेरा बेटा है। तब वह राजी हो गया। तब उसे भरोसा आ गया। इतनी सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं। यह बात पहले दिन ही कही जा सकती थी।

तुमसे मैं कहता हूं, तुम परमात्मा हो। तुम्हें भरोसा नहीं आता। तुम कहते हो कि सिद्धांत की बात होगी; मगर मैं और परमात्मा! मैं तुमसे रोज कहता हूं, तुम्हें भरोसा नहीं आता। इसलिए तुमसे कहता हूंः ध्यान करो, भक्ति करो। चलो झाड़ू बुहारी से शुरू करो। ऐसे तो अभी हो सकती है बात, मगर तुम राजी नहीं। ऐसे तो एक क्षण खोने की जरूरत नहीं है। ऐसे तो क्रमिक विकास की कोई आवश्यकता नहीं है। एक छलांग में हो सकती है। मगर तुम्हें भरोसा नहीं आता, तो मैं कहता हूं चलो झाड़ू-बुहारी लगाओ। फिर धीरे-धीरे पदोन्नति होगी। फिर धीरे-धीरे-धीरे-धीरे बढ़ना। फिर एक दिन जब आखिरी घड़ी आ जाएगी, वजीर की जगह आ जाओगे, जब समाधि की थोड़ी-सी झलक पास आने लगेगी, ध्यान की स्फुरणा होने लगेगी, तब यही बात एक क्षण में तुम स्वीकार कर लोगे। तब इस बात में श्रद्धा आ जाएगी।

In English

The son of an emperor got worn Fell into the wrong side The father became angry The father said only to threaten that you will get rid of me; Either fix your own or leave my palace. The thought was that the father would leave the palace. Was a little boy. But the boy left the palace. The father was the only son, the son of the emperor was stubborn. Then the father searched a lot, he did not know anything. Years passed. Father old His eyes were scorched and crying. There was only one son. He was all this empire. I regret that in what bad day, in the moment of misfortune, I spoke this word that I will get rid of you!

Such twenty years have passed and one day he saw a beggar standing in front of the palace. And father was totally identified Like his eyes again flame. This is his only son. But twenty years! The son forgot that he was the son of the emperor. Twenty-year-old beggar will not forget! For twenty years door-gate, village-village roti, demand for fira. Twenty-year-old Bhikhamanapada, the perpetuation was frozen, it was forgotten that sometimes I was the emperor. Who will remember! It does not even have to be forgotten, otherwise the beggar will become very difficult, it will be heavy. Being emperor will be very difficult to beg. Go to the place; People behave like dogs; The gate-door should be called, “Go forward” -in the inner emperor, he will take the sword. So the inner emperor had to be blurred, he had to forget. That was right, it was practical to forget that it was forgotten.

And how will you remember? When the twenty-four hours are recalled, the same thing is being received from all sides that be shackled, be laughing, straying, thieves, be dishonest; Do not let a door stand on the door, does not let anyone sit down under a tree, no one gives a lodging – “lo roti, go ahead” – hardly got bread. Broken pot! Tired clothing! New clothes could not be bought in twenty years. Body full of odor Forgetting those days, the fragrance, the palace, the beauty of the glory, the convenience, the dignity and dignity. They forgot all Twenty years of dust on the mirror so frozen that there is no reflection in the mirror.

So the son does not know anything, he has come to this village also asking for such begging as he went to the villages. This is also a village like villages and villages. But the father saw that this was his son from the window. The nose-map comes in all the identities. The dust of the father could not be deceived. Forget the son, the father does not forget. Can not forget the original source Do not forget the origin. He called his wazer what should I do? Wazir said, doing some kind of work. If absolutely said then this thing will become so big that it will not be trusted. It has completely forgotten, otherwise it does not come at this door. Do not miss it. It stands for begging. Take a little thoughtful step. If you absolutely said that you are my son, then he will not believe it, it will doubt you. Slowly move steps, respectively, respectively, respectively.

So the father asked, what to do? So he said, do this so call him. When he tried to call him, he started running away. Calling him inside the castle, he started running out of the palace. If the servant ran behind him then he said that no brother, I do not go in. I’m poor man, leave me I went to the palace that went into the palace, came to the king’s court. I beg you. I do not need to go in.

He is so scared that he should be sent to jail that he does not know what obstacles will come! But the servants explained that the master wants to give you a job, he has been pity. So he came. But he did not move within the palace. He gave the work to put broom-chairs outside the palace. Then slowly when he started planting broom and started to become acquainted with the palace, and a slight promotion was made, then some promotion was done. Then came to come within the palace too. Then her clothes were also changed. Then he was nailed. And he slowly started to agree In these ever-increasing years, he was brought to the post of Wazir. And when he came to the position of the Wazir, the monarch called one day and said that you are my son. Then he agreed. Then he came to trust. There were so many stairs to climb. This thing could only be said the first day.

I say to you, you are divine, you are divine. You do not trust You say that it will be a matter of principle; But me and the divine! I say to you everyday, you do not trust. Therefore, I say to you: meditate, do devotion. Let’s start with Broom Bihari. It may be just such a thing, but you do not agree. There is no need to lose such a moment. There is no need for gradual development of such. May be in a leap. But if you do not believe, then I say let’s start broom-killer. Then there will be promotion gradually. Then gradually increase gradually. Then one day when the last watch will arrive, the place of the Wazir will come, when a glimpse of the samadhi starts coming closer, the meditation will begin to form, then you will accept this same thing in a moment. Then there will be reverence in this matter.

 

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