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राहचबेनी: एक अनूठी क़हानी

सुनो”लल्ला मदन! जो हमारे पेंशन के पैसे जमा हैं तुम्हारे पास उनसे इक्कीस किलो की खस्ता-कचौड़ी और उतने बूँदी के लड्डू बनाकर उनके चार-चार के पैकेट बनाकर जो सामने से मिले उसे देते जाना, बचे उसे तुम रख लेना, सेवानिवृत्त शिक्षिका सावित्रीदेवी ने साधिकार कहा, मदन हलवाई एक छोटी सी दुकान का मालिक था। उनके खुले हाथ से परिचित था ,वो एक बड़ी रकम उसके पास जमा कर देतीं थीं और मदन उनकी इच्छानुसार उससे ज़रूरतमंद लोगों को भोजन पानी करवा देता।

न कभी वो हिसाब लेतीं और न वो उनसे बेईमानी करता,अबूझ नाता था दोनो के मध्य क्या चाची आपके घर कोई कार्यक्रम है,मदन ने चौंक कर पूछा?

अरे नहीँ लल्ला ! बस हमारी राह चबेनी करवाने की इच्छा हो गयी।अभी कल बैंक में भी अपने अन्तिम क्रियाकर्म के लिए पचास हजार की एफ डी करवायी है। अब बुरी तरह मदन चौंकते हुए बोला ,काहे चाची ऐसा क्यों कर रहीं हो,माना लड़के आपका उतना ध्यान नहीं रखते पर अभी जीवित रहते हुए…?

मदन के द्वारा उनके बैठने के लिए रखी गयी कुर्सी पर हाँफते हुए बैठने के बाद उन्होंने कहा,”लल्ला अभी खबर मिली कि मुहल्ले में रहने वाली सुशीला जिज्जी…

“कौन सुशीला ….मोहन की बुआ जो पिछले साल खत्म हुईं थीं”,मदन ने उनकी बात बीच में ही लपकते हुए कहा

हाँ….उसी अभागी की बात कर रही हूँ,ससुराल में कष्ट पाई तो मायके में रहने लगी,मेहनत मजदूरी करके जिन्दगी काट दी।

जब मरी ….तो बड़ी दुर्गति हुई उस बेचारी की …..अंतिम सँस्कार के कार्यक्रम में भी,उसके ससुरालियों ने दाहसंस्कार तो कर दिया किसी तरह सामाजिक दबाव में आकर…पर तेरहवीं नहीं हुई उसकी…आजतक ,वजह उसकी सम्पत्ति मायके वालों ने कहा हमने किया है उसका तो हम ही लेंगे ,ससुराल वाले बोले लोगे तो करोगे भी तुम ।

हाय ये बड़ा दुःख की बात है चाची ,बचपन में हमने भी देखा कि मोहल्ला पड़ोस भी ये सब काम आपस मे मिलकर कर दिया करते थे । और जो सामर्थ्यवान होते थे वो पैसे भी नहीं लिया करते थे। बस लल्ला छाती फटती हैं ये देखसुनकर कि जीवनकाल में हम जिन्हें अपना मानते हैं ,उनके लिए जोड़ते हैं वो कुछ मिलते ही कैसे बदलते हैं।

“हाँ चाची” आजकल कोई किसी का नहीं मदन ने मुँह लटका कर कहा।

पुरुष सदस्य की तो कोई बात नहीं पर स्त्री तो कफ़न की भी अधिकारी नहीं होती कभी कभी मायके ससुराल के सीमा विवाद में मृत शव को भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसीलिये लल्ला हम ये राहचबेनी कर के जाएंगे जीतेजी पता नहीं बच्चों ने की या नहीं,सावित्रीदेवी ने कहा।

मदन भी उनके तीनोँ बेटों के झगड़ालू स्वभाव से परिचित था ,चाची धीरज रखो उसने तसल्ली देने के स्वर में कहा।

न बेटा मृत्यु अँतिम सत्य है डरना कैसा इससे शास्त्रों में कहा है कि अगर कोई करनेवाला न हो तो व्यक्ति स्वयँ अपने लिए हाथपैर चलते कर दे।

मदन -पर चाची इसमें करना क्या होता है?

कुछ नहीं रास्ते में मिलने वाले राहगीर को भोजन पानी देते हैं ,जिससे भगवान के दरबार में भूख प्यास न सताये। और हाँ ये दही बांध दे पाव भर ।,इतना कहकर लाठी टेकती उठ खड़ी हुईं। फिर ठिठक कर बोलीं मदन अगर हमें कुछ हो जाये तो तुम ये पर्चा लेकर बैंक चले जाना और अपना पैसा ले लेना पर मेरा कामकाज सही से करवा देना।

मदन उनकी इस बात पर मौन रह गया,सावित्री देवी उसी शहर में सबके होते हुए भी अकेले बनाती खाती थीं ,बंटवारा हो चुका था,बस वो अपनी पेंशन पर गुजारा करती थीं। कभी खाना बनाने का मन न होता तो मदन से ही कुछ खरीद कर खा लेतीं उनकी गली के नुक्कड़ पर ही दुकान जो थी मदन हलवाई की।

उसने उनको आश्वासन देते हुए कहा भरोसा रखो चाची और वो सन्तुष्ट होकर चली गयी। विगत कुछ दिनों से उनकी कोई ख़बर भी न थी ,नियमित ग्राहक थीं स्वयँ न आ पातीं तो किसी को भिजवा देतीं सौदा लेने को। सो मदन को फ़िक्र हो जाती थी, मन मे सोचा आज चाची स्वस्थ लग रही हैं और अपने काम में व्यस्त हो गया।

खाते से उनका हिसाब मिलान किया तो उसके पास अच्छा खासा पैसा भी जमा था,क्योंकि जितना जमा करतीं थीं उतना तो वो खा थोड़े ही न पाती थीं।

मदन ने सावित्री देवी के बताये अनुसार राहचबेनी के पैकेटों को अपने नौकरों की सहायता से बंटवा दिया। तब भी उनका समान ज्यादा था,सो उसने सोचा कि सावित्रीजी से ही पूछ लें कि उस सामान का किया क्या जाय। जब वो उनके घर गया तो पाया भीड़ लगी है वो भीड़ चीरते हुए गया तो उसके कानों में आवाज पड़ी आ गया मदन?

जब अचकचाया हुआ भीतर गया तो पाया कि उनके प्राण दोपहर को ही पहले महाप्रयाण कर चुके थे । अँतिम सँस्कार के खर्च को लेकर आँगन में बच्चों में विवाद भी अपनी चरम सीमा पर था।भीड़ तमाशा देख रही थी।

उसका आँखें पोंछते हुए हाथ, अपनी जेब मे गया,सावित्रीजी के हाथ का लिखा पत्र था। उसने जल्दी से कहा कि आपलोग खर्च को लेकर लड़िये मत आपकी माता जी ये दायित्व मुझे सौंप गयी हैं। बस इतना सुनकर सम्पन्न बच्चों में खर्च को हुआ विवाद झाग की तरह बैठ गया | पत्र को सबके सामने पढ़ा गया….

जिसमें लिखा था,मृत्यु अंतिम सत्य है ,परन्तु जिस तरह मैंने स्वाभिमान पूर्वक जीवन काट दिया। उसी तरह मेरी मृत्यु भी सम्मानजनक हो इसके लिए मेरी मृत्यु होने की दशा में मेरे मदन की उपस्थिति में उसके हाथों ही सारे होने वाले खर्च का भुगतान किया जाय। क्योंकि मेरे सारे दायित्व उसे ने निभाये हैं ,मेरे मकान को बेंचकर मदन उस धन से एक भोजनालय बनवा दे ताकि कोई भूखे पेट ,बिना कफ़न न रहे । शेष धन उसे दे दिया जाय ताकि यदि कोई ये खर्च वहन करने की स्थिति में न हो तो ये खर्च मदन के द्वारा ही मेरे पैसों से किया जाय।

मदन को उनके दिए गए इस दायित्व से कोई आपत्ति न थी ,अपने स्वार्थी बच्चों का कानूनी इंतज़ाम सावित्रीदेवी ने कर ही दिया था। शवयात्रा से लेकर सभी दायित्व मदन ने निभाये और भोजनालय का नाम रखा राहचबेनी……ताकि किसी के मरणोपरांत शेष दायित्व अपूर्ण न रहे ।

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