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आप भी डायन

आंगन में चारपाई पर बैठे हुए रोज की तरह ये देखो अभी तलक बर्तन ना धुले इस डायन से … ग्यारह बजने को आए … जाने कब दोपहर का खाना चढाऐगी चूल्हे पर …और जाने कब खाने को मिलेगा … आऊ… आऊ… पहले सुबह का नाश्ता तो पचा लो दादीमाँ… तीन पराठे खाइ हो ….ही ही …. कहकर छुटकी हंसने लगी तुम खेलो छुटकी … हम तुमसे नही इस डायन से कह रहे है समझी ….

वहीं छुटकी की ओर देखकर छोटी बहु आँखें बंदकर इशारे से दादीमाँ से बहस ना करने को कह बर्तनों की टोकरी उठाकर रसोईघर में चली गई… अचानक ना जाने खेलते खेलते छुटकी रुकी और दादीमाँ की ओर बढते हुए बोली…. एक बात पूछे दादीमाँ आपसे हां हां… पूछो छुटकी तुम तो हमारी प्यारी बिटिया हो पूछो ..

दादीमाँ आप चाची पर हमेशा चिल्लाती क्यों रहती है जबकि वो आपके और घरके सभी काम बराबर करती है… जो मम्मी कहें वो भी और जो बुआजी कहे वो भी … चाहे सिर में तेल लगाना हो मालिश करनी हो चाय पकौड़े जो जब बोले बनाकर भी देती है फिर भी आप चाची को उनके नाम से नही बुलाती … मेरी या बुआजी की तरह

बिटिया या मम्मी की तरह बहु नही कहती… कहती है तो बस डायन… ऐसा कयुं दादीमाँ… शोभादेवी से वैसे कोई भी ऐसे बात नहीं करता था मगर छुटकी ठहरी उनके बडे बेटे जोकि घर का कमाऊं बेटा था उसीके पैसों से उनकी हर इच्छाएं पूरी होती थी तो बिना किसी गुस्सा किए शोभादेवी बोली… बिटिया… तेरी चाची सचमुच की डायन है डायन… अच्छा… वो कैसे…

छुटकी ने हैरतअंगेज नजरों से दादीमाँ की ओर देखते हुए कहा… अरे बिटिया तुम नही समझोगी इस कुलच्छनी ने इस घर में पैर धरे नही की खा गई तुम्हारे चाचा को… खा गई… मगर चाचा तो रोड एक्सीडेंट मे… तो…चले गए ना तुम्हारे चाचा हम सबको छोड़ कर… डायन है डायन अपने सुहाग को खा गई अच्छा… तो इसलिए आप चाची को डायन कहती हो… छुटकी फिर से नये सवाल लिए बोली… और नही तो कया… अपने आदमी को खानेवाली डायन ही तो होती है…

तब तो बुआजी भी डायन हुई वो भी तो फूफा जी को खा कर आई है यहां… है ना… और देखा जाए तो आप भी डायन हुई … दादाजी भी नही है इस दुनिया में… छुटकी की बातें सुनकर जहां रसोईघर में छोटी बडी बहु एकदूसरे का चेहरा देखकर हैरत में थी वहीं शोभादेवी कभी अपनी घर लौटी बेटी तो कभी अपने आप को देखकर शर्मिंदा सी थी… आज आखिर उन्हें किसी ने सच्चाई का आइना जो दिखा दिया था एक निशब्द सी कर देनेवाली रचना…

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