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अग्निदेव और मातृका

धृतराष्ट्र द्वारा कहे गये श्लोक की संख्या मात्र एक ही है एवं संजय द्वारा कहे गए श्लोकों की संख्या 699 है।
४. धृतराष्ट्र का एक ही श्लोक है , पर ” धृतराष्ट्र उवाच ” लिखा गया है , जबकि दुर्योधन द्वारा प्रथम अध्याय में 9 श्लोक कहे गए हैं (तीसरे श्लोक से 11 वें श्लोक तक) तथापि “दुर्योधन उवाच ” नहीं लिखा गया । इसका कारण यह है कि दुर्योधन द्वारा कहे गए वक्तव्य का कोई जवाब गुरु द्रोणाचार्य ने नहीं दिया था।
५. धृतराष्ट्र – सञ्जय संवाद हस्तिनापुर के राजप्रासाद (राजमहल) के भीतर हुआ था , जबकि श्रीकृष्ण – अर्जुन संवाद कुरुक्षेत्र के खुले मैदान में हुआ था।
६. भगवद्गीता में वर्णित दोनों संवाद एकल संवाद हैं अर्थात् दोनों के मध्य कोई तीसरा व्यक्ति नहीं था।
७. संजय ही एकमात्र ऐसे हैं , जो दोनों संवादों के मध्य एक सेतु का काम करते हैं।
८. यह भी बड़ा अद्भुत है कि संजय धृतराष्ट्र के संधिदूत बने थे , तो भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन (पांडव) के संधि- दूत बने थे।
९. धृतराष्ट्र एवं सञ्जय संवाद करते समय आमने-सामने बैठे हैं , जबकि श्रीकृष्ण – अर्जुन आमने सामने नहीं बैठे हैं । रथ में आगे बैठे हुए श्रीकृष्ण मुंह घुमा कर अर्जुन से संवाद कर रहे हैं।
१०. राज महल में धृतराष्ट्र अपने सिंहासन पर ऊपर आसीन हैं , जबकि संजय उनसे नीचे बैठकर संवाद कर रहे हैं। लेकिन श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के संवाद करने का तरीका बड़ा ही अद्भुत है। सारथी के रूप में रथ में
श्रीकृष्ण नीचे बैठे हैं तथा अर्जुन रथ में ऊपर बैठे हुए संवाद कर रहे हैं। शिष्य ऊपर और गुरु नीचे हो – ऐसी अवस्था में सारे जगत में कदाचित् ही संवाद हुआ हो। है न ! यह अद्भुत शैली।
११. भगवान श्रीकृष्ण – अर्जुन के संवाद के परिणाम स्वरूप युद्ध से विरत एवं निराश अर्जुन संवाद सुनने के बाद युद्ध करने को उत्साह के साथ तत्पर हो गया था अर्थात् संवाद का प्रभाव अर्जुन पर पड़ा था।
लेकिन संजय द्वारा भीष्म के घायल हो जाने का संदेश पाने के बावजूद तथा भगवत् – वाणी सुनने के बाद भी धृतराष्ट्र ने युद्ध रुकवाने का कोई प्रयास नहीं किया। अर्थात् धृतराष्ट्र पर भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन संवाद का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
१२. यह भी अद्भुत है कि संवाद के अंतर्गत भगवद्गीता में संजय को छोड़कर धृतराष्ट्र , अर्जुन एवं भगवान श्रीकृष्ण तीनों ने प्रश्न किया है।
१३. महर्षि वेदव्यास जी ने श्री कृष्ण -अर्जुन संवाद को रथी – सारथी संवाद , गुरु – शिष्य संवाद , भगवान – भक्त संवाद के रूप में नहीं लिखा और न ही परमात्मा – जीवात्मा एवं नारायण – नर संवाद के रूप में लिखा है। महर्षि वेदव्यास जी तो बड़ी सरलता एवं सहजता से मात्र ” श्रीकृष्ण-अर्जुन संवादे ” ऐसा प्रत्येक अध्याय के अंत में दिए गए पुष्पिका में लिखा है। महर्षि वेदव्यास जी ने हम सब पर यह छोड़ दिया कि श्री कृष्ण – अर्जुन संवाद को उपरिलिखित संवादों में से किस संवाद के रूप में ग्रहण करते हैं ?
१४. महाभारतकार वेदव्यास जी ने श्रीकृष्ण – अर्जुन संवाद के पहले किसी प्रकार का विशेषण नहीं लगाया है। भगवत गीता के अंतर्गत भगवान श्रीकृष्ण इस संवाद को “धर्ममय संवाद” की संज्ञा देते हैं , तो संजय इस संवाद को ” अद्भुत संवाद ” कहकर इसकी विशेषता को प्रकट करते हैं।
।। अद्भुत भगवत् गीता की जय ।।


अग्नि पुराण में मंदिर स्थापत्य
अग्नि पुराण मंदिरों के निर्माण पर महत्वपूर्ण बल देता है। कहते हैं कि देवता के निमित्त मंदिर जलाशय आदि बनवाने की इच्छा रखने वाले के शुभ संकल्प से उसके हजारों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। आगे कहते हैं कि मंदिर बनने के बाद सभी तीर्थों में स्नान करने का समान आनंद प्राप्त होता है। यदि कोई दुर्भाग्य से मिट्टी से भी मंदिर बनाता है, तो भी वह स्वर्ग जाने का अधिकारी होता है।
आगे कहा गया है कि जो मनुष्य एकायतन मंदिर का निर्माण करता है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। त्रिरत्न मंदिर के निर्माता को ब्रह्मलोक, पंचायतन मंदिर को शिवलोक तथा अष्टायतन मंदिर के निर्माण से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। षोडसायतन मंदिर का निर्माण करने वाले को भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है। जो बाल्यकाल में खेलते-खेलते धूल से गलती से भगवान हरि का मंदिर बना लेते हैं, वे भी परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। जो लोग भगवान के मंदिर को चूने से सजाते हैं और उन्हें सुंदर पैटर्न से रंगते हैं, वे अंततः भगवान के धाम को पहुँचते हैं। मौजूदा जीर्ण-शीर्ण मंदिर के संरक्षण, जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण पर सबसे विशेष ध्यान दिया जाता है। जो व्यक्ति गिरे हुए, गिरे हुए या आधे गिरे हुए मंदिर का जीर्णोद्धार करवाता है, उसे नया मंदिर बनाने की अपेक्षा दुगुना भाग्य प्राप्त होता है।
अग्नि पुराण में देवता की स्थापना का स्थान भी बताया गया है। पाठ के अनुसार देवताओं को हमेशा शहर का सामना करना चाहिए और उनका कभी भी शहर की ओर मुंह नहीं होना चाहिए। कुरुक्षेत्र, गया आदि जैसे तीर्थ स्थान और नदी के आस-पास के मंदिर मंदिर निर्माण के लिए सबसे पवित्र स्थान हैं। ब्रह्मा का मंदिर केंद्र में, इंद्र का मंदिर पूर्व में, अग्निदेव और मातृका का मंदिर दक्षिण पश्चिम में, भूतगण और यम का मंदिर दक्षिण में बनाना चाहिए।

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