श्रद्धालुजनों को संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्र बंधन का त्यौहार अनंत चतुर्दशी हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है।
अनंत चतुर्दशी व्रत कथा
भविष्य पुराण के अनुसार जुए में पांडव राजपाट हार कर जब जंगल में भटक रहे थे और कई प्रकार के कष्टों को झेल रहे थे तब भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी और उसी व्रत के प्रभाव से पांडव सभी कष्टों से मुक्त हुए और महाभारत के युद्ध में उन्हें विजयी की प्राप्ति हुई थी।
अनंत चतुर्दशी व्रत विधि
इस दिन व्रती को प्रातः काल स्नान कर कलश की स्थापना कर कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनंत की स्थापना करना चाहिए और फिर शास्त्रानुसार भगवान अनंत के साथ- साथ भगवान विष्णु और विघ्नहर्ता गणेश जी का आवाहन कर उनकी पूजा करनी चाहिए।
अनंत चतुर्दशी का पर्व हिंदू हिन्दुओं के साथ- साथ जैन समाज के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। जैन धर्म के दशलक्षण पर्व का इस दिन समापन होता है। जैन अनुयायी श्रीजी की शोभायात्रा निकालते हैं और भगवान का जलाभिषेक करते हैं।
जिस व्रत से युधिष्ठिर को मिला अपना खोया हुआ राजपाट
महाभारत की कथा के अनुसार दुर्योधन ने जुए में युधिष्ठिर को छल से हरा दिया। युधिष्ठिर को अपना राज-पाट त्यागकर पत्नी एवं भाईयों सहित 12 वर्ष वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। वन में पाण्डवों को बहुत ही कष्टमय जीवन बिताना पड़ रहा था। एक दिन भगवान श्री कृष्ण पाण्डवों से मिलने वन में पधारे।
युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि हे मधुसूदन इस कष्ट से निकलने का और पुनः राजपाट प्राप्त करने का कोई उपाय बताएं। भगवान ने कहा कि आप सभी भाई पत्नी समेत भद्र शुक्ल चतुर्दशी के दिन व्रत रखकर अनंत भगवान की पूजा करें। ‘यह व्रत इस वर्ष 18 सितम्बर को है।’ इस व्रत का नाम अनंत चतुर्दशी है।
युधिष्ठिर ने पूछा कि अनंत भगवान कौन हैं इनके बारे में बताएं। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने बताया कि यह भगवान विष्णु ही हैं। चतुर्मास में भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर अनंत शयन में रहते हैं। अनंत भगवान ने वामन रूप धारण करके दो पग में ही तीनों लोकों को नाप लिया था।
इनके ना तो आदि का पता है न अंत का इसलिए भी यह अनंत कहलाते हैं। इनकी पूजा से नश्चित ही आपके सारे कष्ट समाप्त हो जाएंगे। युधिष्ठिर ने परिवार सहित यह व्रत किया और पुनःराज्यलक्ष्मी ने उन पर कृपा की। युधिष्ठिर को अपना खोया हुआ राज-पाट फिर से मिल गया।