चंद्रनगर में एक विद्वान् रहा करते थे। वे कहते थे, ‘विद्या से बड़ा धन दूसरा नहीं। विद्यावान की सर्वत्र पूजा होती है।’ पंडितजी के तीन पुत्र थे।
तीनों ने कड़ी मेहनत से शास्त्रों का अध्ययन किया बड़ा पुत्र आयुर्वेद का प्रकांड विद्वान् बन गया, जबकि दूसरा धर्मशास्त्रों का और तीसरा नीतिशास्त्र का विद्वान् बना। तीनों ने एक-एक ग्रंथ की रचना की। प्रत्येक ग्रंथ में एक-एक लाख श्लोक थे।
चंद्रनगर के राजा पंडितों का बहुत सम्मान करते थे। एक दिन तीनों पंडित अपने ग्रंथ लेकर दरबार में पहुँचे। राजा ने बड़े-बड़े ग्रंथ हाथों में देखे, तो बहुत प्रसन्न हुए। पूछा, ‘आपने इन ग्रंथों में कितने-कितने श्लोक लिखे हैं?’
तीनों ने बताया, ‘एक-एक लाख।’ राजा ने कहा, ‘मैं राज-काज में इतना व्यस्त रहता हूँ कि तमाम श्लोक सुनना या पढ़ पाना असंभव है। मैं चाहता हूँ कि आप तीनों मुझे अपने-अपने ग्रंथ का सार तत्त्व एक-एक श्लोक सुनाने की कृपा करें।
सबसे पहले आयुर्वेद के पंडित ने कहा, ‘आयुर्वेद में स्वस्थ रहने का एक सरल साधन बताया गया है-जीर्ण भोजनमानेयः। यानी पहला भोजन पच जाने के बाद ही दूसरा भोजन करना चाहिए, तभी स्वस्थ रहा जा सकता है।’
धर्मशास्त्र के पंडित ने कहा, ‘कपलः प्राणिनां दया। अर्थात् ऋषि कहते हैं कि दया से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है।
नीतिशास्त्र के पंडित ने कहा, ‘शुक्राचार्य कहते हैं-त्यजेदुर्जन संगतम्। यानी दुर्जन की संगति कदापि न करें। सदाचारियों के सत्संग से ही कल्याण होता है।’
राजा तीनों पंडितों से शास्त्रों का सार सुनकर गद्गद हो उठे। उन्हें पुरस्कार में एक-एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर ससम्मान विदा किया।