संसार के मूल तत्त्वों को हम दो भागों में बांट सकते हैं । जड़ और चेतन या प्रकृति और पुरुष । चाहे जड़ कहिये या प्रकृति कहिये, बात एक ही है । चेतन अधिष्ठाता के बिना जड़ वस्तु की क्रियाएं नियमित और श्रृंखलाबद्ध नहीं हो सकतीं और न इसके बिना एक अधिष्ठान में विरोधी गुण कर्म दिख सकते हैं, अत: प्रकृति अथवा जड़ जगत का कोई अधिष्ठाता माना जाता है । यदि कोई मोटर आगे भी बढ़ती है, पीछे भी हटती है और दाएं – बाएं भी घूमती है तो मानना पड़ेगा कि उसके भीतर कोई चलानेवाला (चेतन) अवश्य बैठा है । यदि ऐसा न हो और मोटर को खुला छोड़ दिया जाएं तो वह एक ही दिशा में एक से वेग से दौड़ती चली जाएंगी और उसके आगे जड या चेतन (मनुष्य या वृक्ष) जो कुछ भी आ जाएंगा उसी से टकरा जाएंगी । भीड़ को देखकर भोंपू बजाना और भैंस को अड़कर खड़ी देखकर मुड़ जाना, यह बिना चेतन अधिष्ठाता के नहीं हो सकता ।
इस जड़ या प्रकृति को आप फिर तीन विभागों में बांट सकते हैं ।
1. मूल – प्रकृति, (सत्त्व, रजस्, तमस्)
2. प्रकृति – विकृति (स्थूल पंचभूत, दस इंद्रियां और मन) ।
इसी प्रकार चेतन को भी आप तीन श्रेणियों में रख सकते हैं ।
1. शुद्धब्रह्म
2. मायाशबलब्रह्म
3. जीव
शुद्धब्रह्म और शुद्धप्रकृति, एक प्रकार से प्रलय की दशा है । न शुद्धब्रह्म में कोई कार्यकलाप संभव है, न शुद्धप्रकृति में । प्रलय का अर्थ है प्रत्येक वस्तु का अपने कारण में लीन हो जाना । हर एक वस्तु अपने उपदान कारण में लीन हुआ करती है । जो आभूषण सोने के बने हैं उन्हें यदि गला दिया जाएं तो वे सब गलकर सोना हो जाएंगे और चांदी के आभूषण गलकर चांदी बन जाएंगे । जो वस्तु जिससे बनी है वह उसी के स्वरूप में लीन होती है । संसार के स्थूलभूत – पृथ्वी, जल, तेज आदि पंचमात्राओं में लीन होते हैं, ये तन्माज्त्राएं अहंकार में, अहंकार महत्त्व में और महत्त्व मूल प्रकृति में विलीन होता है । यहीं प्रलयावस्था है । यदि संसार की सभी कार्य वस्तुएं मूल – प्रकृति में विलीन हो जाएं तो महाप्रलय समझिये ।
प्रकृति के तीन गुण हैं, सत्त्व, रजस और तामस । विक्षोभ आरंभ होने पर सत्त्वप्रधान प्रकृति से जो कार्य संपन्न हुआ उसका नाम पड़ा माया और रजस्तम:प्रदान परिणाम का नाम हुआ अविद्या । पहले में सत्त्व के चिन्ह ज्ञान, प्रकाश, आनंद और वशीकरण आदि प्रकट हुए तथा अंतिम में मोह, अज्ञान, दु:ख, अधीरता, चंचलता आदि उत्पन्न हुए । पूर्वोक्त एक ही ब्रह्म का प्रतिबिंब इन दोनों अंशों में पड़ा, परंतु फल भिन्न भिन्न हुआ ।
दर्पण (आईना) और मृत्पिण्ड दोनों ही पार्थिव हैं, परंतु एक में तेजोभाग प्रधान होने के कारण उसपर पड़ी आपके मुख की छाया स्पष्ट दिखती है लेकिन दूसरे पर उसका पता भी नहीं चलता । आतिशी – शीशा और साधारण शीशा दोनों को धूप में रख दीजिये और दोनों पर एक रूप में सूर्य का प्रतिबिंब पड़ने दीजिये । एक में से निकली किरण कपड़ा और करीष (शुष्क गोमय) आदि पर पड़कर क्षणभर में उसे जला देगी, परंतु दूसरी कुछ न कर सकेगी । कड़ाही की तली पर आतिशी शीशे के द्वारा डाले गये प्रकाश की गरमी से, बिना अग्नि के, पूरी पकते हमने स्वयं देखा है । सूर्यकांतममि पर सूर्यकिरणें पड़ने से अग्नि पैदा होती है और चंद्रकांतमणि पर चंद्रमा की किरणें पड़ने पर स्वच्छ जल टपकता है, परंतु गीले गोबर पर पड़कर ये दोनों व्यर्थ हो जाती हैं । आप आईना, पानी, तेल और तलवार इनमें अपना मुंह देखिये । सबमें कुछ न कुछ भिन्नता दिखेगी, यद्यपि मुख वहीं है ।