यदि हमें पिछले 200-250 वर्षों में हुए विश्व के 10 सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं की सूची बनाने को कहा जाए तो हम अपनी सूची में पहला नाम बाबू वीर कुंवर सिंह परमार का रखेंगे । जिस 80 वर्ष की वृद्धावस्था में लोग खाट पकड़ लेते हैं लोगों के लिए चलना फिरना दूभर होता है उस अवस्था में बाबू साहब रणभूमि में थे और रणभूमि में सिर्फ थे नहीं बल्कि आधुनिक हथियारों से लैस तत्कालीन दुनिया सबसे सशक्त ब्रिटिश सेना को बताया था कि भीष्म पितामह कोई कल्पना नहीं ।
बाबू साहब 1857 के एकमात्र योद्धा थे जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्य एक भी युद्ध में पराजित नहीं कर पाया उसे 80 वर्ष के जवान से लगातार सात युद्धों में मात खानी पड़ी । ब्रिट्रिश इतिहासकार डा. होम्स लिखते हैं, कि यह ब्रिटिश सरकार का सौभाग्य ही था कि यह राजा बाबू वीर कुंवर सिंह की विद्रोह के समय उम्र 80 थी । अगर 25 साल युवास्था के होते, तो अंग्रेजों की भारत भूमि से विदाई 1857 में ही हो जाती, और भारत का इतिहास और भूगोल दोनो ही अलग होता । आज 23 अप्रैल को 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के राष्ट्रीय नायक बाबू कुंवर सिंह जी के विजयोत्सव पर उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि और नमन ।
ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें सात युद्धों में जिस भारतीय राजा से हार गई थी, उस राजा का नाम था- बाबू वीर कुंवर सिंह। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे । अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया । बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ । उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे ।
इनके चरित्र की सबसे बड़ी ख़ासियत यही थी कि इन्हें वीरता से परिपूर्ण कार्यों को करना ही रास आता था। इतिहास प्रसिद्ध 1857 की क्रांति में भी इन्होंने सम्मिलित होकर अपनी शौर्यता का प्रदर्शन किया । बाबू कुंवर सिंह ने रीवा के ज़मींदारों को एकत्र किया और उन्हें अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया । उन्हें बचपन से ही शिक्षा से अधिक शौर्य-युक्त कार्यों में रुचि थी ।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी । मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के यशस्वी लेखक पंडित सुंदर लाल ने उन छह युद्धों का विस्तार से विवरण लिखा है । लेखक के अनुसार ‘जगदीशपुर के राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे । कुवंर सिंह 1857 के बिहार के क्रांतिकारियों के प्रमुख नेता और सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में थे ।
बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया । उन्होंने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया. इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ । 25 जुलाई, 1857 को जब क्रान्तिकारी दीनापुर से आरा की ओर बढ़े तो बाबू कुंवर सिंह उनमें सम्मिलित हो गए । उनके विचारों का अनुमान अंग्रेज़ों को पहले ही हो गया था इसीलिए कमिश्नर ने उन्हें पटना बुलाया था कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाये पर अंग्रेज़ों की चालाकी समझकर कुंवर सिंह बीमारी का बहाना बनाकर वहाँ नहीं गए । आरा में आन्दोलन की कमान कुंवर सिंह ने संभाल ली और जगदीशपुर में विदेशी सेना से मोर्चा लेकर सहसराम और रोहतास में विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित की । उसके बाद वे 500 सैनिकों के साथ रीवा पहुँचे और वहाँ के ज़मींदारों को अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया । वहाँ से बांदा होते हुए कालपी और फिर कानपुर पहुँचे ।
तब तक तात्या टोपे से उनका सम्पर्क हो चुका था । कानपुर की अंग्रेज़ सेना पर आक्रमण करने के बाद वे आजमगढ़ गये और वहाँ के सरकारी ख़ज़ाने पर अधिकार कर छापामार शैली में युद्ध जारी रखा । यहाँ भी अंग्रेज़ी सेना को पीछे हटना पड़ा । किले को दूसरों के लिए छोड़कर कुंवर सिंह बनारस की तरफ बढ़े । लार्ड केनिंग उस समय इलाहाबाद में था ।
इतिहासकार मालेसन लिखता है कि बनारस पर कुंवर सिंह की चढ़ाई की खबर सुनकर कैनिंग घबरा गया । उन दिनों कुंवर सिंह जगदीशपुर से 100 मील दूर बनारस के उत्तर थे । लखनऊ से भागे कई क्रांतिकारी कुंवर सिंह की सेना में आ मिले । लार्ड कैनिंग ने लार्ड मारकर को सेना और तोपों के साथ कुंवर सिंह से लड़ने के लिए भेजा ।
किसी ने उस युद्ध का विवरण इन शब्दों में लिखा है, ‘उस दिन 81 साल का बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार ठीक घमासान लड़ाई के अंदर बिजली की तरह इधर से उधर लपकता हुआ दिखाई दे रहा था ।’ अंततः लार्ड मारकर हार गया, उसे पीछे हटना पड़ा । कुंवर सिंह की अगली लड़ाई सेनापति लगर्ड के नेतृत्व वाली सेना से हुई । कई अंग्रेज अफसर व सैनिक मारे गए । कंपनी की सेना पीछे हट गयी । कुंवर सिंह गंगा नदी की तरफ बढ़े । वे जगदीशपुर लौटना चाहते थे । एक अन्य सेनापति डगलस के अधीन सेना कुंवर से लड़ने के लिए आगे बढ़ी । नघई नामक गांव के निकट डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ । अंततः डगलस हार गया । कुंवर सेना के अपनी साथ गंगा की ओर बढ़े ।
कुंवर सिंह गंगा पार करने लगे । बीच गंगा में थे, अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया । एक अंग्रेजी सैनिक ने गोली चलाई । गोली कुंवर सिंह के दाहिनी कलाई में लगी । विष फैल जाने के डर से कुंवर सिंह ने बाएं हाथ से तलवार खींचकर अपने दाहिने हाथ को कुहनी पर से काटकर गंगा में फेंक दिया । 22 अप्रैल को कुंवर सिंह ने वापस जगदीशपुर में प्रवेश किया । आरा की अंग्रेजी सेना 23 अप्रैल को लीग्रैंड के अधीन जगदीशपुर पर हमला किया । इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे । घायल कुंवर सिंह की 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हो गयी ।
23 अप्रैल को बाबू कुंवर सिंह जी की याद में विजयोत्सव मनाया जाता है