बहुत समय पहले की बात है. एक नगर में भद्रसेन नामक एक राजा का राज्य था. उसकी एक अति-रूपवती कन्या थी, जिसका नाम रत्नवती था. अपने रूप के कारण रत्नवती को सदा यह भय रहता था कि कोई राक्षस आयेगा और उसका अपहरण कर ले जायेगा. वह दिन-रात इसी भय में जीती थी.
राजा ने उसका भय दूर करने महल के चारों ओर पहरा लगाया हुआ था. किंतु राजकुमारी का भय था कि जाता ही नहीं था. एक रात एक राक्षस किसी तरह छुपकर राजा के महल में घुस गया और सबकी दृष्टि से बचते हुए राजकुमारी रत्नवती के कक्ष में पहुँच गया.
रात्रि का पहर था. इस पहर राजकुमारी रत्नवती का भय सर्वाधिक होता था. वह दर से थर-थर कांपा करती थी. उस रात भी वह सो नहीं पा रही थी. उसकी सखियाँ उसके साथ थी और वह उनसे कह रही थी कि दुष्ट विकाल का कुछ करना होगा. वह सदा मुझे परेशान करता रहता है.”
राक्षस ने यह बात सुन ली. उसे लगा कि अवश्य की विकाल नामक कोई दूसरा राक्षस होगा, जिससे राजकुमारी को भय है. वह जानना चाहता था कि यह दूसरा राक्षस कौन है और कितना बलशाली है? इसलिए उसने घोड़े का रूप धारण किया और महल के अस्तबल में जाकर छुप गया.
उस रात घोड़ों का चोर महल में घुस आया था. वह अस्तबल में ही छुपा हुआ था. उसकी मंशा उस रात एक घोड़ा चोरी कर वहाँ से भागने की थी. उसने अश्वरुपी राक्षस को अपने कब्जे में लिया और उस पर चढ़कर उस पर लगाम चढ़ा दी. इधर अश्वरुपी राक्षस ने सोचा कि यही विकाल राक्षस है. मुझे पहचानकर अब मेरा वध करना चाहता है. वह बचने का उपाय सोचने लगा.
अश्वचोर ने अश्वरुपी राक्षस पर चाबुक चला दिया. चाबुक लगते ही वह भागने लगा. वह सरपट भागा जा रहा था. कुछ दूरी तय करने के बाद चोर ने घोड़े को रोकने के लिए लगाम खींची, किंतु घोड़े के भेष में राक्षस रुका नहीं और भागता ही रहा. चोर को आशंका हुई कि अवश्य ही ये कोई राक्षस है, जिसने घोड़े का भेष धरा हुआ है और ये मुझे पटककर मारना चाहता है.
कुछ दूर आगे बढ़ने पर चोर को एक वटवृक्ष दिखाई पड़ा. उसकी शाखा नीचे लटक रही थी. जैसे ही अश्वरुपी राक्षस वटवृक्ष के नीचे से गुजरा, अपन प्राण बचाने के लिए चोर वह शाखा पकड़कर कर वृक्ष पर लटक गया. अश्वरुपी राक्षस तेज गति में वहाँ से आगे बढ़ गया.
उस वटवृक्ष पर राक्षस का मित्र बंदर रहता था. वह समझ गया कि उसका मित्र अश्व के रूप में भयभीत होकर भाग रहा है. उसने उसे आवाज़ लगाकर कहा, “मित्र! भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है. ये कोई राक्षस नहीं, बल्कि साधारण चोर है.”
मित्र बंदर की आवाज़ सुनकर अश्वरूपी राक्षस वापस आने लगा, लेकिन भय अब भी उसके मन में समाया हुआ था. इधर चोर को बंदर पर बड़ा क्रोध आ रहा था. उसने देखा कि बंदर की पूंछ उसके सामने ही लटक रही है. क्रोधवश उसने उसे अपने दांतों में दबा लिया और जोर से काटने लगा. बंदर को इससे अति-पीढ़ा हुई. किंतु वह अपने मित्र राक्षस के सामने स्वयं को कमज़ोर और चोर को बलशाली नहीं दिखाना चाहता था. इसलिए पीढ़ा सहकर भी अपने स्थान से डिगा नहीं और बैठा रहा. लेकिन उसके मुख पर पीढ़ा की झलक थी, जिसे वह चाहकर भी छुपा नहीं पाया.
अश्वरुपी राक्षस ने जब बंदर का मुख देखा, तो बोला, “मित्र! चाहे तुम कितना ही छुपाओ, तुम्हारा मुख कह रहा है कि तुम राक्षस के चंगुल में हो. मेरा भागना ही उचित है.” कहकर वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ.
सीख (Moral of the story)
विपत्ति समाने हो और आप कमज़ोर हो, तो भागने में ही भलाई है.