एक गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था. भिक्षा मांगकर वो जैसे-तैसे अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाता था. एक दिन उसके घर कुछ अतिथि आ गए. अतिथि आगमन से उसकी पत्नी चिंतित हो गई, क्योंकि घर में खाने-पीने को कुछ भी नहीं था. उसने ब्राह्मण को सारी स्थिति की जानकारी दी.
ब्राह्मण बोला, “मैं भिक्षा मांगने के लिए पड़ोस के गाँव जा रहा हूँ. कल सुबह कर्क-संक्रांति है, एक ब्राह्मण सूर्यदेव की उपासना के लिए कुछ दान देने वाला है.”
पत्नी बोली, “किंतु, आज मैं क्या करूं? तुझसे विवाह करके मैंने कोई सुख नहीं देखे, खाने को तरसी हूँ. दूसरी स्त्रियों की तरह सुंदर वस्त्र, आभूषणों की कामना तो मैं कर ही नहीं सकती. क्या जीवन मिला है मुझे?”
ब्राह्मण बोला, “देवी, ऐसा क्यों कह रही हो, पेट की क्षुधा शांत करने जितना अन्न तो मैं भिक्षा में लेकर आ ही जाता हूँ. अधिक तृष्णा मत करो. अति-तृष्णा से मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है.”
ब्राह्मणी ने पूछा, “कैसे?
तब ब्राह्मण ने उसे सूअर, शिकारी और गीदड़ की कथा सुनाई –
एक दिन की बात है, एक शिकारी जंगल में शिकार की खोज में भटक रहा था. अचानक उसे काले रंग का विशाल सूअर दिखा. उसे देख उसने तीर कमान पर चढ़ाया और निशाना साध दिया. निशान सटीक था, सूअर घायल हो गया, किंतु उसी घायल अवस्था में शिकारी की ओर दौड़ा और शिकारी के पेट में अपने तीखे दांत गड़ा दिए. शिकारी वहीं गिर पड़ा और सूअर भी वहीं ढेर हो गया.
कुछ देर बाद वहाँ से एक गीदड़ शिकार गुज़रा. मरे हुए सूअर और शिकारी को देख उसके मुँह से लार टपकने लगी. वह सोचने लगा, “मेरे पुनर्जन्म का प्रताप है कि आज बिना किसी परिश्रम के इतना सारा भोजन प्राप्त हो गया.”
वह सूअर और शिकारी के समीप गया और उनके मृत शरीर की छोटी-छोटी चीज़ों को खाने लगा. वह सोचने लगा कि इस भोजन का भक्षण मैं इस रीति से करूंगा कि ये कई दिनों तक मेरी क्षुधा शांत कर सके. रोज़ थोड़ा-थोड़ा खाऊंगा. इस तरह मेरे कई दिन आराम से कटेंगे.
सबसे पहले उसने धनुष की डोरी को खाने का निश्चय किया. शिकारी द्वारा सूअर पर प्रहार के लिए जो धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाई गई थी, वह अब तक चढ़ी हुई थी. उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर बंधी हुई थी. गीदड़ ने अपने दांतों से डोरी को ज्यों ही चबाया, वह टूट गई और धनुष का सिरा उसके माथे को भेदकर इस प्रकार ऊपर से निकल गया, जैसे उसके सिर पर शिखा निकल आई हो. घायल गीदड़ भी मर गया.
कहानी सुनाने के उपरांत ब्राह्मण बोला, “इसलिए अति-लोभ नहीं करना चाहिए, माथे पर शिखा निकल आती है.”
ब्राह्मणी बोली, “तुम ठीक कहते हो, मुझे अपनी चिंता नहीं, किंतु घर पर आये अतिथि की चिंता है, ऐसा करती हूँ, घर पर पड़े तिल को कूटकर उसे खिला देती हूँ”.
ब्राहमण ने उसे वैसा ही करने को कहा और भिक्षा मांगने दूसरे गाँव की ओर चला गया.
ब्राह्मणी ने घर में पड़े तिलों को निकाला, उसे साफ़ किया और धूप में सुखाने के लिए फैला दिया. कुछ देर बाद वहाँ कहीं से एक कुत्ता आ गया और उसने तिलों को मूत्र-विष्ठा से ख़राब कर दिया.
यह देख ब्राह्मणी की चिंता बढ़ गई. वह सोचने लगी कि अब क्या करूं? ऐसे अशुद्ध तिल तो मैं अतिथि को खिला नहीं सकती. ऐसा करती हूँ, गाँव में जाकर किसी घर से शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल मांग लेती हूँ, इसके लिए भला कौन मना करेगा, किसी को क्या पता कि इन तिलों पर कुत्ते ने मूत्र-विष्ठा की है.
यह सोच वह उन तिलों को छाज में रखकर गाँव में निकल गई, घर-घर जाकर वह आवाज़ लगाने लगी, “कोई इन छने हुए तिलों के बदले बिना छने हुए तिल दे दो”.
कई घर घूमने के बाद वो एक घर पहुँची और दरवाज़े पर खड़े होकर आवाज़ लगाई, “बिना छने हुए तिलों के बदले छने तिल ले लो.”
उस घर में रहने वाली स्त्री ब्राह्मणी से सौदा करने तैयार हो गई, तभी उसका पुत्र आ गया, जो अर्थशास्त्र का ज्ञाता था. वह बोला, “माँ, इन तिलों को मत लो. अकारण कौन छने हुए तिलों के बदले बिना छने हुए तिल देगा. अवश्य इसमें कोई दोष है.” पुत्र के कहने से उस स्त्री ने सौदा नहीं किया.
सीख (Moral of the story)
अकारण कोई कार्य नहीं किया जाता.