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दान का मूल्यांकन

प्रत्येक धर्मशास्त्र में सत्य, अहिंसा, दया, दान, उपवास आदि की महत्ता बताई गई है। इन्हें धर्म का अंग बताया गया है। साथ ही इनका पालन करते समय विवेक-बुद्धि से आकलन की भी प्रेरणा दी गई है।

सत्य पर अटल रहना चाहिए, झूठ कदापि नहीं बोलना चाहिए, किंतु यदि सत्य बोलने के संकल्प के कारण किसी निर्दोष के प्राणों पर संकट की आशंका हो, तो विवेक से काम लेकर असत्य बोलना भी धर्म है।

ध्यान पद्धति विपश्यना के आचार्य सत्यनारायण गोयनका उदाहरण देते हुए लिखते हैं, ‘दान धर्म का एक अंग है, किंतु दान का नैतिक मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है।

दान देते समय किसी भी लोभ या लालसा की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। यदि दान देते समय बदले में कुछ प्राप्त करने की लालसा है या यश की कामना है, तो ऐसा दान शुद्ध निष्काम निरहंकार चित्त से दिए गए दान की अपेक्षा बहुत हल्का होता है।

श्री गोयनका उपवास का उदाहरण देते हैं, ‘उपवास द्वारा शरीर को स्वस्थ रखते हैं, जिससे शरीर को धर्म -सेवा -उपकार और सत्कर्मों में लगाया जा सके।’

शास्त्रों के अध्ययन को धर्म का अंग माना गया है, किंतु यदि कोई व्यक्ति सभी वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा अन्य मत संप्रदायों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन करने के बाद भी उन सिद्धांतों को जीवन में नहीं उतारता या शील-सदाचार का पालन नहीं करता,

तो उसे धार्मिक कैसे माना जा सकता है? अतः धर्मशास्त्रों में बताए गए उपायों को सबसे पहले स्वयं अपने जीवन में उतारना चाहिए । शील – सदाचार ही सच्चा धर्म है।

English Translation

The importance of truth, non-violence, mercy, charity, fasting etc. has been told in every theology. They are said to be part of religion. Along with this, while following them, motivation has also been given to assess wisely.

One should remain firm on the truth, should never lie, but if there is a danger of danger to the life of an innocent because of the determination to speak the truth, then acting with discretion and speaking untruth is also religion.

Giving the example of Vipassana Acharya Satyanarayan Goen, he writes, “Charity is a part of religion, but it is necessary to make an ethical assessment of charity.

While giving charity there should be no desire for any greed or greed. If at the time of giving charity there is a desire to receive something in return or if there is a desire for fame, then such a donation is much lighter than a donation given from a pure selfless mind.

Shri Goenka gives the example of fasting, ‘By fasting the body is kept healthy, so that the body can be engaged in dharma-seva-benevolence and good deeds.’

The study of scriptures is considered to be a part of religion, but if a person does not implement those principles in life or does not follow modesty and morality, even after studying the principles of all the Vedas, Upanishads, Puranas and other schools of thought,

So how can he be considered religious? Therefore, the remedies mentioned in the scriptures should first be implemented in one’s own life. Modesty – Virtue is the true religion

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