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धन की तृष्णा

सभी धर्मशास्त्रों में धन-संपत्ति तथा अन्य सांसारिक पदार्थों के प्रति तृष्णा को पतन का मूल कारण बताया गया है। महाभारत के वन पर्व में कहा गया है, तृष्णा ही सर्वपापिष्ठा अर्थात् तृष्णा सर्वाधिक पापमयी है। तृष्णा के कारण मानव घोर पाप कर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता।

विष्णु पुराण में कहा गया है, ‘जो व्यक्ति धन-संपत्ति को भगवान् की धरोहर मानकर उसका सत्कर्मों में उपयोग करता है और सांसारिक वस्तुओं पर अपना अधिकार नहीं मानता, वह तृष्णा से बचा रह सकता है।’

पुराण में कहा गया है, ‘इस पृथ्वी पर जितने धान, जौ, सुवर्ण, पशु आदि द्रव्य हैं, वे सब यदि किसी एक पुरुष को मिल जाएँ, तो भी उसे संतोष नहीं होगा। पुरुष की आशा-आकांक्षा की कोई सीमा नहीं है। तृष्णा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं। ‘

धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए देवर्षि नारद कहते हैं, ‘मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उसकी भूख आदि की पूर्ति हो सके।

धर्मशास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि न्यायपूर्वक अर्जित धन का दशांश सेवा-परोपकार आदि सत्कर्मों पर अवश्य व्यय किया जाना चाहिए। जो अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, उन्हें पाँचवाँ अंश अभावग्रस्त लोगों के कल्याण पर खर्च करना चाहिए।

भगवान् शिव पार्वती से कहते हैं, ‘देवी, अर्थ को अनर्थ का मूल समझो। धनवान् पर सदा पाँच शत्रु चोट करते हैं-राजा, चोर, उत्तराधिकारी भाई बंधु, अन्यान्य प्राणी और क्षय।’ वस्तुतः आज यह बात सत्य सिद्ध हो रही है कि धन की बढ़ती हुई तृष्णा के कारण ही अनाचार और भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं।

English Translation

In all the scriptures, craving for wealth and other worldly things is said to be the root cause of the downfall. In the Van Parva of Mahabharata, it is said, Trishna is the most sinful. Human beings do not hesitate to commit serious sins because of craving.
It is said in Vishnu Purana, ‘A person who considers wealth and property as the property of the Lord and uses it in good deeds and does not consider it his right over worldly things, he can be saved from craving.’

It is said in the Purana, ‘If any one person gets all the things like paddy, barley, gold, animal etc. on this earth, he will not be satisfied. There is no limit to a man’s aspirations. Craving is like the ocean, it never fills. ‘

Answering the question of Dharmaraja Yudhishthira, Devarshi Narada says, ‘Man’s right is only on that amount of money, which can satisfy his hunger etc.

Even in the scriptures, it has been said that one-tenth of the money earned justly should be spent on good deeds like service, charity etc. Those who earn more money should spend the fifth part on the welfare of the needy people.

Lord Shiva says to Parvati, ‘Devi, consider Artha to be the root of misfortune. The rich are always attacked by five enemies – kings, thieves, successor brothers, other creatures, and decay. In fact, today it is proving true that malpractices and corruption are increasing due to the increasing craving for money.

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