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दुःख ही दुःख है !!

हेलो दोस्तों जैसा की हम जानते हैं, कि दुख हम सब की लाइफ में है और कोई भी दुखी नहीं होना चाहता है। हम सब चाहते हैं, कि अपने जीवन में हम सुखी रहे और आजकल जिसे देखो वह केवल अपने दुख की बात करता है।

लेकिन कोई अपने आर्थिक दुख की बात करता है, तो कोई अपने परिवारिक दुख की और कोई अपने शारीरिक दुख की बात करता है| लेकिन दुनिया में शायद ही कोई ऐसा मनुष्य होगा| जिसको कोई दुख ना हो। लेकिन हमारे जीवन में सुख-दुख तो आते जाते ही रहते हैं ।

यहा पर तीर्थकर महावीर से एक जिज्ञासु ने पूछा, ‘विभिन्न धर्मशास्त्रों में धर्म कर्म के तरह-तरह के साधन बताए गए हैं। आपकी दृष्टि में धर्म की क्या व्याख्या है?

महावीर कहते हैं, ‘अहिंसा, क्षमा, दया, सत्य, शौच (पवित्रता), संयम, तप, त्याग, विनयशीलता, निष्कपटता आदि धर्म के लक्षण हैं। कर्मकांड को धर्म समझना भ्रम है।

जो व्यक्ति दूसरे के दुःख को देखकर दुःखी हो जाता है और उसके हृदय में करुणा उत्पन्न हो जाती है, तो वह धार्मिक है। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार का उत्पीड़न सहन करने के बाद भी अहिंसा पर अटल रहकर क्रोध को पास नहीं फटकने देता, उसे धर्मशास्त्रों में आदर्श क्षमाशील कहा गया है।

महावीर कहते हैं, ‘जीव जन्म, जरा और मरण से होने वाले दुःख को जानता है, उसका विचार भी करता है, किंतु विषयों से विरत नहीं हो पाता। माया की गाँठ सुदृढ़ होती है।

आत्मा को दूषित करने वाले भोग विलासों में निमग्न शरीर को जर्जर करने वाले दुष्कर्मों में रत अज्ञानी और मूढ़ जीव उसी तरह कर्मों में बंध जाता है, जैसे मीठे रस में मक्खी।

खुजली होने पर जैसे खुजलाने के दुष्परिणाम को व्यक्ति सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजनित दुःख को ही सुख मानकर उसमें लिप्त रहता है।

जन्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु सभी दुःख हैं और संसार दुःख की खान । जीवन को सार्थक करने का साधन न जानने के कारण मूढ़ व्यक्ति मृत्यु तक दुःखरूपी संसार की यातनाएँ सहन करता रहता है। जो व्यक्ति मिथ्या तत्त्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है । उसे धर्म के कार्य अच्छे नहीं लगते।’

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