यह बात सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की है। उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद में सलोन तहसील है। वहां पर एक अंग्रेज अधिकारी की नियुक्ति थी। पूरे भारत की तरह सलोन में भी क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था।
जब अंग्रेज अधिकारी को अपने और परिवार के जीवन पर संकट नजर आने लगा। तब उसने लखनऊ रेजीडेंसी जाने का प्रयास किया। किन्तु रास्ते में कान्तिकारियों का खतरा था।
तब उसने कहीं अन्य शरण लेने के बारे में सोचा। उसके अनुचरों ने बताया कि कालाकांकर के प्रतापी एवं वीर राजा महाराज हनुमन्त सिंह ही उन्हें शरण दे सकते हैं। लेकिन अंग्रेज अधिकारी को पता था कि वे तो स्वयं इस स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्धरत हैं।
शुभचिंतकों के बार बार आश्वासन देने पर वह महाराज हनुमन्त सिंह के पास गया और शरण की याचना की। महाराज ने उसे और उसके परिवार को सम्मनपूर्वक अपने महल में स्थान दिया।
कुछ दिनों बाद एक अंग्रेज टुकड़ी उसे लेने आई। जाते समय उसने हनुमन्त सिंह को धन्यवाद दिया और उनसे क्रांतिकारियों के विरुद्ध युद्ध में अंग्रेजों का साथ देने की प्रार्थना की।
इतना सुनते ही महाराजा हनुमन्त सिंह का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। वे गरजते हुए बोले, “शरणागत की रक्षा करना भारतीय संस्कृति है। फिर चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो ? इसलिए मैंने तुमको शरण दी थी। देश की रक्षा में अपने प्राण अर्पण कर देना राष्ट्रधर्म है।”
“तुम मुझे स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों के विरुद्ध कार्य करने के लिए कह रहे हो। शायद तुम नही जानते, मैं स्वयं एक क्रांतिकारी हूँ। मेरा पुत्र इलाहाबाद से लखनऊ जाने वाली अंग्रेज पलटन को बीच में ही रोकने के लिए सेना लेकर युद्ध के लिए जा रहा है।”
यह सुनकर वह अंग्रेज अधिकारी चुपचाप अपने सैनिकों के साथ चला गया। कुछ दिनों के बाद उसे महाराजा हनुमन्त सिंह के पुत्र की युद्ध में वीरगति प्राप्ति की खबर प्राप्त हुई।
भारतीयों की उच्च नैतिक मूल्यों में आस्था को याद करके उसकी आंखें नम हो गईं।