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मुंशी प्रेमचंद की कहानी : एक आंच की कसर!!

पूरी नगरी में श्रीमान यशोदानंद की खूब चर्चा हो रही थी। उनकी कीर्ति के बारे में नगरवासी ही नहीं, बल्कि अखबारों में तक लोग लिख रहे थे। उन्हें बधाई देने के लिए उनके घर के बाहर लोगों की भीड़ जमा थी। यही तो होती है समाज सेवा, जो इंसान को इतना मान-सम्मान दिला दे। ऊंचे विचार के लोग अक्सर ही अपने समुदाय के लोगों का सिर इसी तरह से ऊंचा कर देते हैं। अब कोई किसी को यह नहीं कह सकेगा कि नेता सिर्फ बातें बनाते हैं और काम नहीं करते। इन्होंने ऐसा कार्य करके साबित कर दिया है कि ये धन-दौलत से ही धनी नहीं हैं, बल्कि सोच से भी हैं।

यह चाहते तो अपने बेटे की शादी में दहेज भी ले सकते थे, लेकिन अपने सिद्धांत पर किस तरह से खड़ा रहना चाहिए, यह इन्होंने पूरी दुनिया को सिखाया है। दहेज में एक रुपये भी न लेकर यशोदानन्द ने बता दिया कि वो साहसी भी हैं और उन्हें अपने सिद्धांतों से खूब प्रेम भी है। इन्होंने वो किया है जो कोई न कर सका। ऐसा करके यशोदानंद ने सबका सिर गर्व से ऊंचा कर दिया।

श्रीमान यशोदानंद के दो बेटे थे। एक बेटा स्नातक की पढ़ाई पूरी करके विद्वान बन चुका था। उसी की शादी हुई और वो भी बिना किसी दहेज। आज दूल्हे का तिलक हुआ, जिसमें कई सम्मानित लोग आए थे। महफिल जमाने के लिए कुछ लोग सितार का हुनर दिखा रहे थे। सब लोग यशोदानंद को बधाइयां दे रहे थे और दावत भी तैयार थी।

एक व्यक्ति ने यशोदानंद से कहा, “आपने कमाल करके दिखा दिया।”

दूसरे मेहमान बोले, “सिर्फ कमाल नहीं, इन्होंने झंडे गाड़ दिए हैं। लोग दहेज के खिलाफ सिर्फ बोलते हैं, लेकिन इन्होंने कर दिखाया है।”

फिर तीसरे अतिथि कहने लगे, “लोग पहले दहेज ले लेते हैं और फिर उस पर पर्दा डालने के लिए कहते हैं कि मुझे नफरत है दहेज से, लेकिन लड़की की दादी, मां या कोई तीसरा नहीं माना।”

तभी चौथे सम्मानित पुरुष बोल पड़े, “आप जानते नहीं कितने तो ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि हमने अपने बेटे की पढ़ाई में खर्च किया है। उस पैसे को तो वापस लेना ही था। उन्हें सुनकर लगता है कि उन्होंने बेटे की शिक्षा पर खर्च करने की जगह पैसा बैंक में जमा करवाया हो।

सबको सुनने के बाद पांचवें व्यक्ति कहते हैं, “मुझे समझ आ रहा है कि आप सब लोग मुझे सुना रहे हैं। क्या सारा दोष लड़के वालों का होता है? लड़की वालों का कोई दोष नहीं है?

यह सुनते ही बात को शुरू करने वाले पहले सज्जन ने पूछा, “इसमें लड़की वालों का दोष कैसे? सिर्फ इतना कि वो लड़की के परिवार वाले हैं?

दूसरे मेहमान ने भी पांचवें से सवाल किया, “हां, सारा दोष भगवान का है कि उसने लड़कियों की रचना की है, क्यों?

तभी पांचवां व्यक्ति बोला, “मैंने ऐसा नहीं कहा कि सारा दोष लड़की वालों का है, लेकिन लड़की और लड़के वाले दोनों ही बराबर के दोषी हैं। लड़की वाले पैसा नहीं देंगे, तो कम-से-कम उन्हें ऐसी शिकायत करने का भी हक नहीं होगा कि लड़की के लिए अच्छा दुल्हन का जोड़ा क्यों नहीं लाए, बाजे-गाजे अच्छे क्यों नहीं हैं। क्यों?

चौथे इंसान ने कहा, “आपकी बात पर गौर करना चाहिए।”

फिर पांचवां कहने लगा, “बस तो आपको मानना होगा कि लड़कों के तरफ से दिए जाने वाले गहने, जोड़े भी दहेज की तरह ही एक ऐसी प्रथा है, जिनका त्याग होना चाहिए।”

यह सब सुन रहे यशोदानंद ने कहा, “यह सब बेकार की बहानेबाजी है। मैंने दहेज नहीं लिया, तो क्या मैं अपनी बहू के लिए गहने और कपड़े नहीं ले जाऊंगा?”

इतने में इस बातचीत की शुरुआत करने वाला पहला व्यक्ति बोला, “आपकी बात एकदम अलग है। हम जैसे आम लोगों में आप नहीं आते हैं। आपकी गिनती देवताओं में होनी चाहिए।”

दूसरे ने जवाब में सिर हिलाते हुए कहा, “आपने दहेज की इतनी बड़ी रकम छोड़ दी। बहुत खूब”

यशोदानंद तभी बोल पड़े, “मेरी बढ़ाई मत कीजिए। मेरा साफ मानना है कि इंसान को अपने सिद्धांत पर ही चलना चाहिए। सिद्धांत के सामने पैसों का कोई मोल नहीं होता है। मैंने भरी सभा में कभी दहेज जैसी कुप्रथा के बारे में कुछ नहीं कहा, लेकिन इस प्रस्ताव पर कॉन्फ्रेंस में मैंने हामी भरी थी और मैं इससे बंध चुका हूं। मैं चाहकर भी दहेज नहीं ले सकता हूं। मेरी आत्मा मुझे कभी ऐसा नहीं करने देगी और कभी ऐसा कर लिया, तो मुझे मानसिक रूप से इतना पीड़ा होगी कि मैं सहन नहीं कर पाऊंगा।

पांचवां व्यक्ति एकदम से बोल पड़ा, “आपके इस कार्य के लिए कॉन्फ्रेंस में आपको सभापति नहीं बनाया गया, तो गलत होगा।

यशोदानंद जवाब देते हैं, “मैंने दहेज न लेना का फैसला खुद से किया है। इसके लिए मुझे किसी तरह की पहचान मिले या नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता।

इसी बीच शाहजहांपुर से स्वामी दयाल तिलक लेकर आ गए। सभी उन्हीं के इंतजार में थे। उन्होंने पूरे रीति रिवाज के साथ तिलक किया। उसके बाद दहेज को कुप्रथा बताते हुए यशोदानंद भाषण देने लगे। साफ पता चल रहा था कि उन्होंने भाषण की पूरी तैयारी कर रखी थी।

उन्होंने कहा कि पहले दहेज जैसी कोई प्रथा नहीं थी। बादशाहों के जमाने से यह कुप्रथा शुरू हुई। उस समय सारे नौजवान युवक सेना में चले जाते थे, जिससे लड़के कम होने लगे और दहेज से लड़कों का तोल-मोल का चलन शुरू हुआ। अब यह कुप्रथा इतनी बड़ी हो गई है कि मेरी छोटी सी कोशिश को लेकर इतनी ज्यादा चर्चा हो रही है। मैंने किसी तरह का असाधारण कार्य नहीं किया है। हर कोई यह काम कर सकता है। यह प्रथा जल्द-से-जल्द खत्म होनी चाहिए।

यशोदानंद का भाषण थोड़ा लंबा था, लेकिन लोगों ने उनकी खूब तारीफ की। उसके बाद उन्होंने अपने सात साल के बेटे परमानंद के हाथ में एक पत्र देकर उसे मंच पर खड़ा कर दिया। शायद वो बताना चाहते थे कि उनके घर का सबसे छोटा बेटा भी कितना बुद्धिमान है। वैसे सभाओं में छोटे बच्चों द्वारा अभिनंदन पत्र पढ़ना आम था।

तिलक के कामकाज को देखने के लिए यशोदानंद थोड़ा आगे चले गए और परमानंद ने पत्र पढ़ना शुरू किया।

नमस्कार,

आपके पत्र से ऐसा मालूम होता है कि आपको मुझ पर थोड़ा भी भरोसा नहीं है। मैं कसम खाता हूं कि पैसों की बात इतनी गुप्त रहेगी कि किसी को कुछ पता नहीं चलेगी। वैसे इसे राज रखने से आपका खूब नाम होगा, लेकिन मेरी काफी बदनामी होगी। अब इस लेनदेन को गुप्त रखने से मेरी जो बदनामी दुनिया में होगी उसके लिए आप 25 में से 5 कम करने की मुझ पर कृपा करें।

भले ही यशोदानंद दूर था, लेकिन उसके कान में 25 से 5 कम करने वाली बात पड़ गई। यह सुनते ही वो दौड़कर अपने बेटे के पास गया और कहने लगा कि नालायक ये क्या पढ़ रहे हो। यह तो कुछ कानूनी कागज है।

यह सुनकर एक व्यक्ति ने कहा कि पढ़ने दीजिए न। ऐसा कानूनी कागज हमने कभी नहीं सुना और इसे सुनने में जो मजा है वो बहुत ही अलग है।

तभी यशोदानंद की बढ़ाई में बात शुरू करने वाले पहले मेहमान ने परमानंद से पूछा, “बेटा, तुम्हें यह कागज कहां से मिला?”

उसने जवाब दिया, “मेज की दराज में यह रखा हुआ था। इन्होंने मुझे पहले ही कहा था कि कमरे में पत्र रखा है पढ़ लेना। जब पढ़ा, तो गुस्सा करने लगे।

यशोदानंद ने कहा, “नालायक वो यह कागज था। इसे मेज के ऊपर रखा था मैंने। तुम्हें किसने दराज खोलने के लिए बोला था।”

इतना कहकर गुस्से से यशोदानंद अपने बेटे परमानंद की तरफ देखने लगा। पहले व्यक्ति ने कहा, “साहब! ये आकाशवाणी थी। अब कोई फायदा नहीं सारा भांडा फूट चुका है।

तभी अन्य लोग कहने लगे कि यह भी ऐसा ही निकला। चलो, अब सब अपने-अपने घर चलते हैं।

दूसरा व्यक्ति बोला, “इसी को तो नेतागिरी कहते हैं। किसी तरह से अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। पता ही नहीं चलता। चलिए, चलते हैं अब।

यशोदानंद ने लोगों को रोकते हुए कहा, “अरे, बैठिए दावत तैयार है। पत्तल भी लग गए हैं। कुछ खाकर ही जाइयेगा।

तीसरे इंसान ने एकदम पूछा, “आपको इस तरह की हरकत करते हुए शर्म नहीं आई? इतना सम्मान जो मिला था, वो असली त्याग से मिलता है। इस कदर धोखाधड़ी से नहीं।

चौथे व्यक्ति ने कहा, “नहीं-नहीं इन्हें धोखाधड़ी से ही मिल गया था सब कुछ। बस एक आंच की कसर रह गई सब कुछ में।”

पांचवां अतिथि बोला, “झूठा दिखावा करने वालों को भगवान इसी तरह से सजा देते हैं।”

इतना कहकर लोग यशोदानंद के घर से चले गए और वो अपने बेटे को गुस्से से देखता रह गया।

उधर, रास्ते में जाते हुए लोग यशोदानंद के घर हुए उस पूरे नाटक के बारे में कहने लगे कि पढ़े-लिखे, धनी और विद्वान लोग भी ऐसी हरकत करते हैं। इन्हें पैसा लेना ही था, तो खुलकर लेते कोई रोक थोड़ी रहा था। इस तरह से दिखावा करके लोगों को क्या जताना चाहते थे। इन्हें पैसा भी कमाना है और मुफ्त की इज्जत भी चाहिए।

इसपर एक व्यक्ति ने कहा कि अब मुझे यशोदानंद पर दया आ रही है। उसने इतना सब कुछ रचा और अपना झूठ छुपाया, लेकिन आखिर में सब कुछ सामने आ ही गया। बस एक आंच की कसर रह गई, इन सबमें।

कहानी से सीख :

झूठ-फरेब की उम्र लंबी नहीं होती। सच कभी-न-कभी सामने आ ही जाता है। सच सामने आने का रास्ता खुद ढूंढता और झूठ का भांडा फोड़ देता है। दूसरी सीख यह मिलती है कि दहेज एक कुप्रथा है, जिसे किसी को भी बढ़ावा नहीं देना चाहिए

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