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एकमात्र श्रीकृष्ण ही धन्य एवं श्रेष्ठ हैं

एक कथा आती है कि देवर्षि नारद ने एक बार गंगा – तट पर भ्रमण करते हुए एक ऐसे कछुए को देखा, जिसका शरीर चार कोस में फैला हुआ था । नारद जी को उसे देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, वह उस कछुए से बोले, हे कूर्मराज ! तू धन्य एवं श्रेष्ठ है, जो इतने विशाल शरीर को धारण किए हुए है । कछुए ने उत्तर दिया कि धन्य और श्रेष्ठ मैं नहीं, श्रीगंगा जी हैं, जिनमें मुझ जैसे विशालकाय अनन्त जीव वास करते हैं । यह सुनकर नारद जी गंगा जी से कहा कि हे गंगे ! तुम धन्य और श्रेष्ठ हो जो इतने इतने बड़े असंख्य जीव जंतुओं को आश्रय देने में समर्थ हो । गंगा जी बोलीं कि मैं धन्य और श्रेष्ठ नहीं हूं, धन्य और श्रेष्ठ तो समुद्र है जिसमें मेरी जैसी अनेक नदियां जाकर गिरती हैं । इस पर नारद जी समुद्र के समीप पहुंचे और उससे बोले कि हे समुद्र ! तुम धन्य और श्रेष्ठ हो, तो अनेक नदियों को अपने में समा लेते हो । समुद्र बोला, इसमें मेरी कुछ भी बड़ाई नहीं है, यदि बड़ाई किसी की है तो वह मेघसमुदाय की है, जो वर्षा कर मुझे परिपूर्ण करते हैं । फिर नारद जी मेघों के पास पहुंचे और उन्हें धन्य तथा श्रेष्ठ बतलाया, पर उन्होंने भी यह उपाधि स्वीकार नहीं की ।

उन्होंने कहा, इसमें हमारा क्या, हमारा उद्गमस्थान तो यज्ञ हैं । यज्ञों के पास जाकर यहीं बड़ाई उनको देने लगने पर उन्होंने कहा कि हमारे प्रतिपादक तो वेद हैं, इसलिए वही धन्य और श्रेष्ठ हो सकते हैं, हम नहीं । वेदों के पास जाने से मालूम हुआ कि वे भी यह बड़ाई लेने को तैयार नहीं । उन्होंने कहा कि हमें सत्ता स्फूर्ति सब भगवान श्रीकृष्ण से प्राप्त होती है, इसलिए वहीं धन्य और श्रेष्ठ हैं । यह सुनकर ऋषिवर सीधे द्वारका पहुंचे । वहां उन्होंने ऋषि मुनियों की भरी सभा में भगवान से कहा कि हे कृष्ण ! आप धन्य और श्रेष्ठ हैं, भगवान ने उत्तर दिया, हां नारद ! सत्य कहते हो, मैं धन्य एवं श्रेष्ठ हूं ।

सत्य कहते हो, मैं धन्य एवं श्रेष्ठ हूं । भगवान के मुख से ये शब्द सुनकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने इसका रहस्योद्घाटन करने के लिए भगवान से प्रार्थना की । भगवान् ने बताया के भक्तिपूर्वक मेरी एक बार प्रदक्षिणा करने वाला व्यक्ति सारी पृथ्वी की परिक्रमा करने का फल प्राप्त करके बैकुण्ठ धाम में निवास करता है। जिसने कभी भक्ति भाव से मुझे नमस्कार किया है, उसने अनायास ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप फल प्राप्त कर लिया। जो स्तोत्र और जप के द्वारा मेरे समक्ष होकर स्तुति करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर मेरे लोक में पूजित होता है। जो मेरे मंदिर में शंख, तुरही आदि बाजों के शब्द से युक्त गाना−बजाना और नाटक करता है, वह मनुष्य मेरे धाम को प्राप्त होता है।

मैं ही नारायण, वासुदेव, परमात्मा, अच्युत, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर तथा हिरण्यगर्भ आदि अनेक नामों से पुकारा जाता हूँ । कल्प के प्रारम्भ में एकमात्र मैं ही था । मैं ही संपूर्ण जगत की सृष्टि करके सबका पालन करता हूँ और अंत में सबका संहार करता हूँ । इसीलिए मेरा नाम हरि है। मत्स्य, कूर्म, वाराह, वामन, हयग्रीव तथा श्रीराम−कृष्णादि सब मेरे ही अवतार हैं।

मैं दयालु हैं अकारण ही जीवों पर करुणा वृष्टि करता हूँ । मेरी शरण में आने पर परम कल्याण हो जाता है। जो भक्त मेरे नामों का कीर्तन, स्मरण, उनका दर्शन, वंदन, गुणों का श्रवण और उनका पूजन करता है, उसके सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं। यद्यपि मेरे के अनन्त गुण हैं, तथापि उनमें भक्तवत्सलता का गुण सर्वोपरि है। चारों प्रकार के भक्त जिस भावना से मेरी उपासना करते हैं, मैं उनकी उस भावना को परिपूर्ण करता हूँ। ध्रुव, प्रहलाद, अजामिल, द्रौपदी, गणिका आदि अनेक भक्तों का मेरी कृपा से उद्धार हुआ। मुझसे भक्तों का कल्याण करने में यदि विलम्ब हो जाये तो मैं उसे अपनी भूल मानता हूँ ।

जो मनुष्य मेरे निम्नांकित पचपन नामों का जप करता है, वह मंत्रजप आदि के फल का भागी होता है तथा तीर्थों में पूजन आदि के अक्षय पुण्य को प्राप्त करता है।

प्रत्येक वटवृक्ष पर कुबेर का, प्रत्येक चौराहे पर शिव का, प्रत्येक पर्वत पर राम का तथा सर्वत्र मेरे नाम का स्मरण करें। धरती और आकाश में नरका, वसिष्ठती में गरुडध्वज का तथा सर्वत्र मेरे नाम का स्मरण करने वाला पुरुष भोग एवं मोक्ष का भागी होता है। मेरे इन नामों का जप करके मनुष्य सब कुछ पा सकता है। उपर्युक्त क्षेत्र में जो जप, श्राद्ध, दान और तर्पण किया जाता है, वह सब कोटिगुना हो जाता है। जिसकी वहां मृत्यु होती है, वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।

वे सब मोह – ममता त्यागकर भगवान को श्रेष्ठता में लीन हो गये । हम लोगों को भी इस अनित्य दु:खरूप धनधान्य की वाञ्छा को त्यागकर कृष्णपरायण हो सबसे अधिक धन्य और श्रेष्ठ श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप में लीन हो जाना चाहिए ।

There is a legend that Devarshi Narada once saw a turtle whose body was spread in four Kos, while walking on the Ganges. Narada ji was surprised to see him, he said to that turtle, O Kurmraj! You are blessed and superior, who is wearing such a huge body. The turtle replied that I am not blessed and superior, Sriganga ji, in whom a huge eternal creature like me resides. Hearing this, Narada ji told Ganga ji, O Ganges! You are blessed and superior who is able to give shelter to so many innumerable animals. Ganga ji said that I am not blessed and superior, blessed and superior is the sea in which many rivers like mine go and fall. On this, Narada reached near the sea and said to him, O sea! If you are blessed and elevated, then you take many rivers into your own. The sea said, I have nothing to brag about, if someone is to be praised, it belongs to the people who rain and make me full. Then Narada came to the clouds and told him to be blessed and superior, but he too did not accept this title.

He said, what is ours in this, our origin is Yagya. After going to the Yagyas and started giving them the magnification here, he said that our proponents are Vedas, so they can be blessed and elevated, not us. After going to the Vedas, it was found that they too were not ready to brag. He said that we get power from Lord Krishna, so there are blessed and elevated. Hearing this, Rishiwar reached Dwaraka directly. There he told the Lord in a full gathering of sages, O Krishna! You are blessed and superior, God replied, yes Narada! You say truth, I am blessed and elevated.

You say truth, I am blessed and elevated. The sages were surprised to hear these words from the mouth of God. He prayed to God to reveal it. God said that once a person who is devoutly worshiping me, after receiving the fruits of revolving the whole earth, resides in Baikuntha Dham. Whoever has greeted me with devotion, he has unintentionally received the fruits of religion, art, work and salvation. The one who praises before me with hymns and chanting, he is worshiped in my world, free from all sins. The man who performs the song and plays in my temple with the words of conch, trumpet, etc., is the person who receives my dham

I am called by many names like Narayana, Vasudeva, Paramatma, Achyuta, Krishna, eternal, Shiva, God and Hiranyagarbha. I was the only one at the beginning of the cycle. I am the creator of the whole world and follow them and in the end, kill everyone. That is why my name is Hari. Matsya, Koorm, Varah, Vamana, Hayagreeva and Shriram-Krishnadi are all my incarnations.

I am kind and show compassion on creatures without any reason. On coming to my refuge, one gets ultimate welfare. All the sins of a devotee who worships and recites my names in Kirtan, remembrance, vision, worship, virtues are destroyed. Although I have eternal qualities, the quality of devotion is paramount in them. All the four types of devotees worship me, I fulfill that feeling.

Many devotees like Dhruva, Prahlada, Ajamil, Draupadi, Ganika etc. were saved by my grace. If there is any delay in welfare of devotees from me, then I consider it my mistake.

A person who chants the following fifty-five names, participates in the fruits of chanting etc. and attains the renewable virtue of worshiping in the pilgrimages.

Remember Kubera on every Vatavriksha, Shiva at every crossroads, Rama on every mountain and my name everywhere. Naraka in the earth and sky, of Garudadhvaja in Vasisthati and a man who remembers my name everywhere is part of bhoga and moksha. Man can get everything by chanting these names of mine. The chanting, shraddh, donation and tarpan performed in the above mentioned area all become Kotiguna. The person who dies there becomes Brahmaswaroop.

All of them fell in love with God and became absorbed in superiority. We, too, should abandon the will of this eternal sorrowful wealth and become Krishnaprayan and be absorbed in the true form of the most blessed and exalted Shri Krishna.

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