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आठवें अध्याय का माहात्म्य

पार्वती ! अब मैं आदरपूर्वक आठवें अध्यायके माहात्म्यका वर्णन करूँगा , तुम स्थिर होकर सुनो । नर्मदाके तटपर माहिष्मती नामकी एक नगरी है । वहाँ माधव नामके एक ब्राह्मण रहते थे , जो वेद – वेदाङ्गोंके तत्त्वज्ञ और समय – समयपर आनेवाले अतिथियोंके प्रेमी थे । उन्होंने विद्याके द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान् यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया । उस यज्ञमें बलि देनेके लिये एक बकरा मँगाया गया । जब उसके शरीरकी पूजा हो गयी , तब सबको आश्चर्यमें डालते हुए उस बकरेने हँसकर उच्च स्वरसे कहा – ‘ ब्रह्मन् ! इन बहुत – से यज्ञोंद्वारा क्या लाभ है । इनका फल तो नष्ट हो जानेवाला है तथा ये जन्म , जरा और मृत्युके भी कारण हैं । यह सब करनेपर भी मेरी जो वर्तमान दशा है , इसे देख लो । ‘ बकरेके इस अत्यन्त कौतूहलजनक वचनको सुनकर यज्ञमण्डपमें रहनेवाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए ।तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रोंसे देखते हुए बकरेको प्रणाम करके श्रद्धा और आदरके साथ पूछने लगे ।

ब्राह्मण बोले –
आप किस जातिके थे ? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था ? तथा किस कर्मसे आपको बकरेकी योनि प्राप्त हुई ? यह सब मुझे बताइये ।

बकरा बोला –
ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मणोंके अत्यन्त निर्मल कुलमें उत्पन्न हुआ था । समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और वेद – विद्यामें प्रवीण था । एक दिन मेरी स्त्रीने भगवती दुर्गाकी भक्तिसे विनम्र होकर अपने बालकके रोगकी शान्तिके लिये बलि देनेके निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा । तत्पश्चात् जब चण्डिकाके मन्दिरमें वह बकरा मारा जाने लगा , उस समय उसकी माताने मुझे शाप दिया – ‘ ओ ब्राह्मणोंमें नीच , पापी ! तू मेरे बच्चेका वध करना चाहता है ; इसलिये तू भी बकरेकी योनिमें जन्म लेगा । ‘ द्विजश्रेष्ठ ! तब कालवश मृत्युको प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ । यद्यपि मैं पशु – योनिमें पड़ा हूँ , तो भी मुझे अपने पूर्वजन्मोंका स्मरण बना हुआ है । ब्रह्मन् ! यदि आपको सुननेकी उत्कण्ठा हो , तो मैं एक और भी आश्चर्यकी बात बताता हूँ । कुरुक्षेत्र नामका एक नगर है , जो मोक्ष प्रदान करनेवाला है ।

वहाँ चन्द्रशर्मा नामक एक सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे । एक समय जब कि सूर्यग्रहण लगा था , राजाने बड़ी श्रद्धाके साथ कालपुरुषका दान करनेकी तैयारी की । उन्होंने वेद – वेदाङ्गोंके पारगामी एक विद्वान् ब्राह्मणको बुलवाया और पुरोहितके साथ वे तीर्थके पावन जलसे स्नान करनेको चले । तीर्थके पास पहुँचकर राजाने स्नान किया और दो वस्त्र धारण किये । फिर पवित्र एवं प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगलमें खड़े हुए पुरोहितका हाथ पकड़कर तत्कालोचित मनुष्योंसे घिरे हुए अपने स्थानपर लौट आये । आनेपर राजाने यथोचित विधिसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको कालपुरुषका दान किया ।

तब कालपुरुषका हृदय चीरकर उसमेंसे एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ । फिर थोड़ी देरके बाद निन्दा भी चाण्डालीका रूप धारण करके कालपुरुषके शरीरसे निकली और ब्राह्मणके पास आ गयी । इस प्रकार चाण्डालोंकी वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मणके शरीरमें हठात् प्रवेश करने लगी । ब्राह्मण मन – ही – मन गीताके नवम अध्यायका जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे । ब्राह्मणके अन्तःकरणमें भगवान् गोविन्द शयन करते थे । वे उन्हींका ध्यान करने लगे । ब्राह्मणने [ जब गीताके नवम अध्यायका जप करते हुए ] अपने आश्रयभूत भगवान्का ध्यान किया , उस समय गीताके अक्षरोंसे प्रकट हुए विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले । उनका उद्योग निष्फल हो गया । इस प्रकार इस घटनाको प्रत्यक्ष देखकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे । उन्होंने ब्राह्मणसे पूछा – ‘ विप्रवर ! इस महाभयंकर आपत्तिको आपने कैसे पार किया ? आप किस मन्त्रका जप तथा किस देवताका स्मरण कर रहे थे ? वह पुरुष तथा वह स्त्री कौन थी ? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए ? फिर वे शान्त कैसे हो गये ? यह सब मुझे बतलाइये ।

ब्राह्मणने कहा – 
राजन् ! चाण्डालका रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दाकी साक्षात् मूर्ति थी । मैं इन दोनोंको ऐसा ही समझता हूँ । उस समय मैं गीताके नवें अध्यायके मन्त्रोंकी माला जपता था । उसीका माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया । महीपते ! मैं नित्य ही गीताके नवम अध्यायका जप करता हूँ उसी के प्रभावसे प्रतिग्रहजनित आपत्तियोंके पार हो सका हूँ ।

यह सुनकर राजाने उसी ब्राह्मणसे गीताके नवम अध्यायका अभ्यास किया , फिर वे दोनों ही परमशान्ति ( मोक्ष ) -को प्राप्त हो गये ।

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khilji

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