श्री नारायण जी बोले हे लक्ष्मी ! अब तेरहँवे अद्याय का महात्मय सुनो। दक्षिण देश में हरी नमक नगर था ,वहां एक व्यभिचारिणी स्त्री रहती थी। एक दिन एक पुरुष को उसने वचन दिया की ,मैं अमुक स्थान में तेरे पास आऊँगी ,तुम वहां चलो। वह पुरुष किसी और वन में चला गया और स्त्री ढूंढती – ढूंढती हैरान हो गयीपैर वह पुरुष न मिला।
सांझ पद गयी तेह गणिका प्रीतम का नाम लेकर पुकारने लगी। इतने में वह पुरुष मिल गया। दोनों प्रसन्न होकर बैठे की इतने में शेर आ गया। और गणिका को खा लिया। तब देवदूत धर्मराज के पास गणिका को ले गए। धर्मराज ने हुक्म दिया ,इसको चाण्डालिनी का जन्म देवो। श्री नारायण जी कहते हैं ,हे लक्ष्मी ! उसने गणिका की देह तयाग कर, चाण्डालिनी की देह पायी
कई दिन बाद वह एक नर्मदा नदी के तट पर चली गयी ,वहां क्या देखा की एक साधु गीता जी के बारहवे अध्याय करता है ,उसने उसे सुन लिया और भोग पाया, तुरंत चाण्डालिनी के प्राण छूट गए ,देव देहि पायी,आकाश से विमान आये,जिस पर बैठकर बैकुंठ को चली गयी ,तब श्री नारायण जी ने कहा – हे लक्ष्मी यह तेरहँवे अध्याय का माहात्म्य है जो प्रीति साथ पढ़ते हैं का फल कहा नहीं जा सकत। अनजानेपन से पढ़े तो परमधान को प्राप्त होता है।
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