गुरु तेगबहादुरजी ने अपने पुत्र गोविंदरायजी (गुरु गोविंदसिंहजी ) को लखनऊ से आनंदपुर साहिब बुला लिया था। उन्होंने उन्हें घुड़सवारी तथा अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिलाया।
उन्हें समय-समय पर वे धर्म व भगवद्-भक्ति के महत्त्व से भी अवगत कराते रहे। लाहौर के खत्रीवंश के प्रतिष्ठित व्यक्ति हरजसमल अपनी पुत्री जीतो का विवाह गोविंदरायजी के साथ तय कर चुके थे।
वे लाहौर से सपरिवार आनंदपुर साहिब पहुँचे। उन्होंने जीतो की कुड़माई (सगाई) का शगुन जैसे ही गोविंदरायजी की झोली में डाला, सभी उपस्थित जन आनंदित हो उठे।
गुरु तेगबहादुरजी ने सोने की मोहरें बेटे के सिर पर वारकर लुटा दीं। उन्होंने दिल खोलकर गरीबों को दान दिया। पवित्र गुरुवाणी से समारोह गूँज उठा।
हरजसमल ने हाथ जोड़कर गुरुजी से प्रार्थना की, ‘मैंने आपके चरणों का आसरा लिया है। आप धूम-धाम से बारात लेकर लाहौर आएँ। आप जैसी दिव्य विभूति व अन्य संतों तथा बारातियों की सेवा का सौभाग्य लाहौरवासियों को प्राप्त होगा। ‘
गुरुजी ने कहा, ‘विवाह कार्य अत्यंत सादगी से यहीं होगा। हम यहीं लाहौर बसा देंगे, चिंता मत करो।’ यह सुनकर हरजसमल भाव-विभोर होकर गुरुजी के चरणों में झुक गए ।
गुरुजी के आदेश से आनंदपुर से सात मील दूर नया लाहौर बसा दिया गया। इसी नगर में 21 जून, 1677 को गोविंदरायजी का विवाह संपन्न हुआ। यह नगर ‘गुरु का लाहौर’ नाम से विख्यात है।