हिन्दी के कवियों ने बरसात के मौसम का वर्णन अपनी कविताओं में बेहद सुंदरता से किया है। यह ऋतु जीवन को नई ऊर्जा देती है और प्रकृति को हरा-भरा बना देती है। गर्मी की तपिश को दूर करने वाली इस वर्षा ऋतु की कविताओं का संग्रह यहाँ प्रस्तुत है, आओ इन्हें एक साथ पढ़ें
वर्षा ~ अंजनी चौरसिया
दूर गगन में बदरा छाई
बिन घुंघरू के छम- छम करती वर्षा आई,
शीत, शरद, ग्रीष्म बीती
फ़िर मॉनसून सूहानी आई।
बीजों में अंकुर फूटी,
फ़िर पुष्प सभी खिल आए।
हिलोरें मारती नदियां सभी,
फ़िर झीले सारी भर आई,
सागर भी लहराती है,
फ़िर जीवों में नव प्राण समाई।
फ़िर दिशाएं सुगंधित हों आई,
फ़िर सौंधी महक हर ओर समाई,
सुनहरी फुहार फैली जाए
दृश्य मनोरम फ़िर हो आई।
इंद्रधनुष के सातों रंग में
फ़िर प्रकृति रंग आई,
फ़िर खलिहाने खिलखिला ऊठी
हंसी के गीत सुनाएं दिशाएं सभी।
मुरझाई प्रकृति फ़िर मुसकाई,
बिन घुंघरू के छम-छम करती
ठुमक-ठुमक कर वर्षा आई,
प्रियसी वसुधा के तपन बुझाई।
– अंजनी चौरसिया
ग़ज़ल सुना जिन्दगी की, गीत सावन का
बादल घिर आएँ सावन में, तो मजा लीजिएगा
पर गुज़िश्ता की सताए याद, तो क्या कीजिएगा।
वे छूटे खूबसूरत पल, वैसा नहीं दिखता ज़माना
कोई बिगड़कर बिछड़ जाये, तो क्या कीजियेगा।
कोयल की कूक सुकून सी, मन खुश होता था,
किसी दिल में उठे हूक, तो क्या कीजियेगा।
मतवारी मल्हारें मधुर, झूलों के किस्से सावन के
कोई समझ न पाए मर्म, तो क्या कीजियेगा।
हल्की बूँदें हवाओं के गीत, आम की खट्टी कैरियाँ
कड़वे रिश्तों में छायी उदासी, तो क्या कीजियेगा।
आसमान छूती पतंगों की लटकती डोरियाँ हाथों में
हारे प्रेम में होंसले पस्त हो, तो क्या कीजियेगा।
पानी में डालते ही तैर गईं, बच्चों की कश्तियांँ
बड़प्पन में सारे ख्वाब डूब जाए, तो क्या कीजियेगा।
मोरों का नर्तन और कीर्तन, बीज फूटते सावन में
फ़ाक़ाकश इंसान हो जाए, तो क्या कीजियेगा।
रिमझिम फुहारों के मौसम, फैली बहार हर तरफ
मन रेगिस्ताँ दिल दश्त हो, तो क्या कीजियेगा।
अब उपमानों में ही रह गया है, वो मदमस्त सावन
प्यार का अहसास बदल जाये, तो क्या कीजियेगा।
सब चलता है, चलता रहेगा ये जीवन “मौलिक” है।
व्यस्त जिन्दगी भूले बचपन, तो क्या कीजिएगा।।
गुजिश्ताँ- भूतकाल
दश्त- उजाड़ जंगल
फ़ाक़ाकश- रोजी रोटी को मोहताज़
डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया “मौलिक”
मानसून की दुश्वारियां
मानसून की पहली बारिश ने ही
सड़कों का यूं हाल किया है?
घर से निकलने के पहले ही
आत्मा रो दिया है।
जगह जगह बजबजाती/उफनती नालियां..
सड़कों के बीच गड्ढे/रोड़े हैं,बड़ी दुश्वारियां।
पता नहीं कब, कहां?
मैं और मेरा स्कूटर उलट जाएं,
या फिर पानी में स्कूटर ही बंद हो जाए।
नरक हेल कर खुद निकलूं या निकालूं स्कूटर
आफ़त हो जाएगी बड़ी, जो हो जाए पंक्चर।
क्या कहें नगर निगम वालों का ?
मानसून अवसर है। उनके कमाने का ।
उनका कार्यालय भी है जलमग्न,
फिर नहीं उन्हें किसी प्रकार का नहीं है शर्म।
नालियां बजबजाती/उफनाती रहें,
चाहे जनता अंदर ही अंदर गुस्साती रहे।
इसकी कद्र वो न करते-
नियमित उड़ाही की कभी न सोचते।
मानसून शुरू होते ही, दिखावटी सफाई में हो जाते व्यस्त..
आधी उड़ाही कर गीला कचरा सड़क पर बिखेर देते हैं,
रात में बारिश आ उन्हें फिर से नालियों में धकेल देते हैं।
समस्या जस की तस बनी रहती है,
धीरे-धीरे विकराल हो जाती है।
जब पूरे शहर में स्थिति एक ही हो जाती है।
जनता में मच जाती है हाहाकार,
तब एक मास्टर प्लान होता है तैयार।
लाखों लाख का टेंडर होता है,
जिसमें बड़ा खेल छुपा होता है!
कुछ काम होता है, और बहुत कुछ
जेब में चला जाता है,
ऐसा खेल खेलने में,
निगम को मजा बहुत आता है ।
जनता का क्या है? सोई है।
हर बारिश में रोई है।
– –मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
अबकी सावन
सुनो..
इतना आसान भी नहीं
दर्द के गलियारों से
बाहर आना मेरा
असीमित,असहनीय दर्द के
जाने कितने ग्लेशियर
जम गए चुके हैं अंतस्तल में मेरे..
जो अश्क़ बनकर आँखों से
पिघलते तो रहते हैं हरदम
परंतु पुनः बर्फ़ बन जम जाते हैं
आकर तलहटियों में हृदयतल के..
जैसे बरसता है बादल
बारिश के मौसम में
बूंदों की फुहार बनकर
और जब्त कर लेता है पुनः स्वयं ही
उन बूंदों को वाष्प के रूप में..
मेरा मन भी इसी वाष्पीकरण
या यूँ कहो इक उपापोह से गुज़र रहा
जहाँ कुछ शोर की
जबदस्त टकराहट है और
कुछ मौन की अनवरत चुप्पी
तुम्हें भुलाने की मेरी हर नाकाम कोशिशें..
और अशांत से मन में दबी अनकही
छटपटाती अनवांछित घुटन
आह से उफ्फ़ तक का
सफ़र तय करने के जद्दोजहद
में सिसकती रहती है हरपल
देखो न… कई दिनों बाद़
आज फिर बरसा है बादल
इतना कि बारिश की फुहारें
खिड़कियों को स्पर्श करती मेरे
पूरे जिस्म को भिगो रही हैं
नीला आसमां बिल्कुल
स्याह काला हो गया है
उमड़ते घुमड़ते काले बादल के कारण
दिन में ही आसमां ने
रात की चादर ओढ ली हो जैसे
और ऐसे में मख़मली रातों में चमकता
कभी बदलियों में छुपता महताब
देखकर यूँ लग रहा
जैसे छुप रहे हो तुम अपनी शोखियों के साथ
बीच काले बादलों के
वहीं मंद-मंद चलती हवाएँ
तुम्हारा पैगाम लेकर आयी हो जैसे
और तुम्हारे मेरे पास होने का
एहसास करा रही हो
लेकिन जाने क्यूँ आज़ हृदय वेदना
कम होने की नाम नहीं ले रहीं
मन अस्थिर है और चितवन व्याकुल
यूँ तो रोज़ ही समेट लिया करती हूँ
तुम्हारे यादों के पुलिंदों को जेहन में अपनी
लेकिन आज़ जितनी देर बारिश बरसती रही
जाने क्यूँ उतनी देर तुम्हारी
यादों में भीगती रही मैं
ऐसा लगता रहा मानों
हल्की-हल्की बौछार बन
बरस रहे हो तुम मुझपर
और मेरे अन्तर्मन को छू रहे हो
वैसे भी इन बारिश की बूंदों में
तुम्हारे साथ की जाने
कितनी यादें समाहित है मेरी
और फिर तुम्हें तो पता ही है
जब जब तुम ऐसे बरसे हो
झरना बन जाया करती थी मैं..
लेकिन सुनों न.. बिन तुम्हारे
अबकी सावन बरसता बादल
रास नहीं आ रहा मुझे
खाली खाली सा लग रहा है
मुझे अस्तित्व मेरा
सुनो न.. आ जाओ
कि भर सकूँ हरियाली
अबकी सावन साथ मिल तुम्हारे
सूने मन में अपनी
जो हो चुकी है सुपुर्द ए खाक तन्हाइयों के
और जो बन चुकी है राख़
जल कर विरह अग्नि में तुम्हारे
आओ न.. बरसो मुझपर फिर से..
जैसे बरसते थे पहले..
बरसो फिर ऐसे
कि स्पर्श कर सकूँ तुम्हें
बूँद बूँद बारिश की फुहारों में
महसूस कर सकूँ मैं
नस-नस में अपनी तुम्हें
आ जाओ कि अबकी सावन
खाक न कर दे तुम्हारा दर्द ए हिज्र मुझे
जलाकर राख़ न कर दे
तुम्हारा हिज्र ए ग़म कहीं..!
आ जाओ कि अबकी सावन
रास नहीं आ रहा मुझे
आओ कि प्यासा है मन का
हर आँगन तुम बिन
तन मन और ये यौवन तुम बिन!
–विनोद सिन्हा “सुदामा”
सुबह से ही
सुबह से ही खुशगवार मौसम है
बरस रहा जो पानी, जमजम है
जिधर भी देखो, निगाहें उठाकर
उधर ही उधर तक, ज़मीन नम है
दरख़्त हरें है, मिजाज़ भी हरा है
मगर दिल के परदे, हरे कम है
चमकते नूर को, पानी न समझो
वह केवल व केवल, भर भरम है
देह भी सारी जो, शीतल सी ठंडी
दिल के अंदर तो गरम ही गरम है
बौझारों को लेतो हो, भले मुखों पर
ये भी जानों ना, ख़ुदा का करम है।
बादल जो बरसा, गिरा तो नहीं ना
गिरता जो पाथर, केवल वहम है
चूती जो छतियां, कभी टपककर
मेरी अगर मानों, यही तो सितम है
लेटा मुसलसल बारिश में “इमरान”
जिधर भी देखो तो, हमीं हम है।
~ इमरान सम्भलशाही
सावन का रंग
सावन के इस मौसम का,
आलम भी बड़ा निराला है।
झूम झूम जो बरसा है,
वो बारिश बड़ा मतवाला है।।
कारे कजरारे बदरा ने भी,
यूँ जमकर धूम मचाया है।
चाहूँओर हरियाली का,
मनोरम शमा बंध आया है।।
भर गए हैं ताल तलैया,
मौसम ने ली अंगड़ाई है।
बलखाती नदियों को देखो,
अपने यौवन पर इठलाई है।
ये मदमस्त पवन का झोंका,
मन को यूँ महकाती है।
हो प्रियतम पास में जैसे,
दिल को ये भरमाती है।।
सावन के इस मौसम का,
रंग ही यार निराला है।
यूँ होता है मन प्रफुल्लित,
जैसे दिलवर आने वाला है।।
~ सुजीत संगम
बारिश का इंतजार आज है
जेष्ठ मास की तेज धुप में,
गरम हवा की लू चाल में,
तपती धरती सूरज की ज्वाल में,
करती अरदास एक इन्द्रराज,
करदो शीतल नम धरा आज,
बारिश का इंतजार आज है,
बस जीवन का आधार साज है,
आषाढ़ मास में हुआ आगाज यूँ,
इन्द्रराज का घुमा चक्रव्यूह,
घिरी गहरी घटा गगन में,
चली पुरवाई लिये बादली,
धरती को कराने मगन में,
मास सावन का आनन्द आज यों,
चले फुन्हारे लगे मदन के तीर ज्यों,
पिया मिलन की आशा जगी यों,
प्रेम रासलीला की रात गली ज्यों,
उमंग भरा उत्सव बना वो,
ज्यों वृंदावन का महोत्सव सजा हो।।
~ मदन सिंह सिन्दल “कनक”
सावन का महीना
सावन का महीना आया है,
बरखा रानी को संग लाया है…
नन्ही नन्ही रिमझिम बूंदों ने,
धरती को महकाया है…
काली काली घटाओं ने,
चारो तरफ शोर मचाया है..
कड़कती हुई बिजलियों ने,
हिय को डराया है…
उमड़ते घुमड़ते बादलों के बीच,
इंद्रधनुष ने आकाश को सजाया है..
अमुआ की डाली पर,
कोयल ने गीत सुनाया है..
मोर भी हर्षित होकर,
नृत्य करने आया है..
कौवे ने मुंडेर पर,
कांव-कांव का
शोर मचाया है..
लग रहा है मायके से,
मां का बुलावा आया है..
सब सखियों के संग मिलकर,
मल्हारे गाने का मौसम आया है
इस बार मां मायके नहीं आऊंगी,
बैरी कोरौना ने
चारों ओर हाहाकार मचाया है..
आज मायके की याद करके,
मन मेरा भर आया है
सावन का महीना आया है,
बरखा रानी को संग लाया हैं.
~ प्रेम कुमारी सेंगर
रिमझिम-रिमझिम
रिमझिम-रिमझिम
आओ फूहारों,
मीठे गीत सुनाओं फुहारों।
प्यारी-प्यासी इस धरती पे।
प्रेम का जल बरसाओं फूहारों।।
रिमझिम-रिमझिम
आओं फूहारों।
धान के खेत की आस पूजादों।
पपीहे-चातक की प्यास बुझादों।
प्रेमी-मन भीगे संग-संग।
पुलकित सपनों को,
आस बंधा दो।
रिमझिम रिमझिम
आओं फूहारों।।
मिलन के राग,
सुनाओं फूहारों।
सा-रे-गा-मा को
सुरों में भरके।
मचले मन में,
तरंग उठाओं।
बचपन भी,
भूलकर सारे बंधन।
कहों आ के
कागज़ की नाव चलाओं।
सबकी आंखों में,
उल्लास बन छा जाओं।
सूखी धरा हरी-भरी कर जाओं।
रिमझिम-रिमझिम
सावन आओं।।
~प्रीति शर्मा “असीम”
सावन
सावन में चहुँओर छा रहीं श्याम घटा घनघोर।
शीतल मंद वयार झूमती नाचे मन का मोर।
झरने झरते छेड़ रागिनी हरियाली है छायी
झूला झूलें अमराई में राधा नंद किशोर।
कलित कुञ्ज की सघन छाँव में औ’ कदंब की डाली।
झूला झूलें श्याम राधिका शोभा सुखद निराली।
पंछी मधु कलरव करते हैं सखियाँ सँग में झूलें
ऐसे दृश्य मनोरम जैसे नाच रही खुशहाली।
~ श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ‘कोमल’