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करनी और सब्र

हीरा लाल जी अस्पताल के कमरे में लेटे लेटे अपनी बीती उम्र के बारे में सोच रहे थे।सारी उम्र परिवार माता पिता और भाई बहनों के प्रति कर्तव्य निभाने में ही गुजर गई।अपने बच्चों की अधिक परवाह नहीं कर पाए।पत्नी शिकायत करती भी तो यह कहकर चुप करा देते ।
“अरे भागवान! अभी उनको मेरी जरूरत हैं कल वे मेरी सहायता करेंगे।”
समय अपनी चाल चलता रहा।सभी अपने कामों और गृहस्थी में ऐसे रम गए।अब पारिवारिक काम काज में ही मिल पाते थे।
अब बीमारी में हाथ तंग हो रहा था।बच्चे अभी पढ़ाई पूरी कर रोजगार की तलाश में थे।पत्नी सावित्री कभी उनको कहती अपने भाइयों को अपनी तकलीफ़ बताओ तो सही।पर वे मानते नहीं थे।कहते मांग कर सहायता मिली तो क्या? वे शायद अपना फर्ज भूल गए हैं।
अब तो डाक्टरों की राय में इलाज तभी संभव था जब भारी बैंक बैलेंस हो या इंश्योरेंस की सुविधा।ये सुनकर वे हताश हो बैठे। सारे पैसे खर्च
कर दें तो पत्नी व बच्चों का क्या होगा ?अतः उन्होंने घर जाना ही उचित समझा। आज उन्हें डिस्चार्ज होना था।सारी कार्यवाही और पेमेंट हो चुका था। बेटे उन्हें लेने आने ही वाले थे।तभी उनके भाई और बहन उनके सामने खड़े थे।ग्लानि और पछतावा उनकी बातों से झलक रहा था।
“भैया! हम आपकी कुशल भी न ले सके।पर आपने भी हमें बताना उचित नहीं समझा।परिवार की महत्ता आप हमे समझाते रहे पर खुद भूल गए।हमें एक दूसरे के काम आना चाहिए। वो तो हमारे बचपन के मित्र ने सूचना दे कर हमें कर्तव्य बोध करा दिया।”
” अब आप घर नहीं बल्कि हमारे साथ आ रहे हैं।बड़े स्पेशल अस्पताल में इलाज होगा।भाभी और बच्चे सब साथ चल रहे हैं।सारा प्रबंध हो चुका आप निश्चित रहें।”
हीरालाल की आंखों में आँसू और होंठों पर मुस्कान फैल गई उनके विश्वास की जीत हुई
कर भला हो भला।

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