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खेल सारा मन का है

चेखोव रूस का एक बहुत बड़ा लेखक हुआ। उसने अपने संस्मरणों के आधार पर एक कहानी लिखी। उसके मित्र का लड़का कोई दस साल पहले घर से भाग गया। मित्र धनी था। लेकिन जैसे अक्सर धनी होते हैं, महा-कृपण था। और लड़के को बाप के साथ रास न पड़ी। तो लड़का घर छोड़ कर भाग गया।
एक ही लड़का था। जब भागा था तब तो बाप में अकड़ थीं, लेकिन धीरे-धीरे अकड़ कम हुई। मौत करीब आने लगी। दस साल बीत गये। लड़के के लौटने के कोई आसार न मालूम पड़े। खोजने वाले भेजे। थोड़ा झुका बाप। क्योंकि वही तो मालिक है सारी संपदा का। और मौत कभी भी घट सकती है। कोई पता न चलता था लेकिन एक दिन एक पत्र आया, कि लड़का बहुत मुसीबत में है और पास के ही शहर में है। पिता को बुलाया है।
और कहा है, कि अगर आप आ जाएं तो मैं घर लौट आऊंगा। अपने से मेरी आने की हिम्मत नहीं होती। शर्मिन्दा मालूम पड़ता हूं। अपराधी लगता हूं। तो बाप गया शहर। एक शानदार होटल में ठहरा। लेकिन रात उसने पाया, कि होटल के कमरे के बाहर कोई खांसता, खंखारता…तो दरवाजा खोलकर उस आदमी से कहा कि हट जाओ यहां से। सोने दोगे या नहीं? लेकिन रात सर्द। और बर्फ पड़ रही है। और वह आदमी जाने को राजी नहीं है। तो उसने धक्के देकर उसे बरामदे के बाहर कर दिया।
फिर जाकर वह आराम से सो गया। सुबह होटल के बाहर मैदान में भीड़ लगी पाई। कोई मर गया है। तो वह भी गया देखने। कपड़े तो वही मालूम पड़ते हैं, जिस आदमी को रात उसने बरामदे के निकाल दिया था। भीड़ में पास जाकर देखा, तो चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा यह तो उसका लड़का है! अपने ही लड़के को रात उसने बाहर निकाल लिया। मन को पता न हो कि वह अपना है, तो अपना नहीं है। मन को पता हो कि अपना है, तो अपना है।
सारा खेल मन का है। क्षण भर पहले कोई मतलब न था। यह आदमी मरा पड़ा था। भीड़ लग गयी थी। लेकिन क्षण भर बाद अब बाप छाती पीट कर रो रहा है कि मेरा लड़का मर गया है। और अब यह पीड़ा जीवन भर रहेगी क्योंकि मैंने ही मारा। खेल सारा मन का है। और अभी सिद्ध हो जाए, कोई दूसरा आदमी आ जाए और कहे कि यह लड़का मेरा है, तुम्हारा नहीं। तुम भूल में पड़ गए। आंसू सूख जाएंगे। प्रफुल्लता वापिस लौट आएगी।
क्षण भर में सब बदल जाता है। मन का भाव बदला कि सब बदला। चेखोव ने एक और कहानी लिखी है, कि दो पुलिसवाले एक राह से गुजर रहे हैं और एक कुत्ते ने एक आवारा आदमी को काट लिया है। कुत्ता भी आवारा है। और उस आदमी ने उसकी टांग पकड़ ली है। और होटल के पास भीड़ लगी है। और लोग कह रहे हैं इसको मार ही डालो। यह दूसरों को भी सता चुका है। पता नहीं, पागल हो। यह कुत्ता एक उपद्रव हो गया है इस इलाके में। पुलिसवाले भी दोनों उस भीड़ में खड़े हो गए।
उनमें से एक बोला कि खतम ही करो, क्योंकि हमको भी रास्ते पर चलने नहीं देता। कुत्ते कुछ सदा के खिलाफ हैं संन्यासियों, पुलिसवालों, पोस्टमैन…जो भी किसी तरह का यूनिफार्म पहनते हैं, उनके वे खिलाफ हैं। वे एकदम नाराज हो जाते हैं। हमको भी रात चलने नहीं देता। भौंकता है, उपद्रव मचाता है। मार ही डालो।
तभी दूसरे पुलिसवाले ने गौर से कुत्ते को देख कर कहा, कि सोच कर करना। यह तो पुलिस इन्स्पेक्टर जनरल का कुत्ता मालूम पड़ता है। आवारा नहीं है। मैं भलीभांति पहचानता हूं। सब रंग बदल गया। वह पुलिसवाला जो कह रहा था कि मार डालो, झपटा उस आवारा आदमी पर और कहा, कि तुमने उपद्रव मचा रखा है। ट्रैफिक को रोक रखा है? छोड़ो इस कुत्ते को।
जानते हो, यह कुत्ता किसका है? कितना मूल्यवान है? कुत्ते को उठा कर उसने कंधे पर रख लिया। और उस आवारा आदमी का हाथ पकड़कर कहा कि चलो पुलिस-थाने। तभी दूसरे पुलिसवाले ने फिर कहा कि नहीं, नहीं भूल हो गई। यह कुत्ता इन्स्पेक्टर जनरल का नहीं है, सिर्फ मालूम पड़ता है। क्योंकि उसके तो माथे पर काला चिन्ह है, इसके माथे काला चिन्ह नहीं है। कुत्ता फेंक दिया, उस पुलिसवाले ने नीचे और कहा कि कहां का आवारा कुत्ता और मैंने उठा लिया उसको! और उस आदमी से कहा कि पकड़ उसको। खत्म कर इसको। उस आदमी ने फिर उस कुत्ते को उठा लिया। उसकी टांग पकड़ ली और पछाड़ने जा ही रहा है। जमीन पर, कि दूसरे पुलिसवाले ने फिर कहा कि नहीं।
संदेह होता है कि हो न हो, कुत्ता तो वही है क्योंकि बिलकुल वैसे ही मालूम हो रहा है। फिर बात बदल गई। फिर दोनों झपट पड़े उस आदमी पर कि तुझे लाख दफे कहा कि यहां पर उपद्रव मत कर। छोड़ इस कुत्ते को। फिर कुत्ता कंधे पर है। ऐसी वह कहानी चलती है। वह कई दफा बदलती है। और सारी जिंदगी ऐसी कहानी है। मेरा–तो सब बदल जाता है। तेरा–सब बदल जाता है। और जगत वही का वही है। न आकाश तुम्हारा है, न तारे तुम्हारे हैं, न नदी पहाड़ तुम्हारे हैं, न व्यक्ति तुम्हारे हैं।
भला तुमसे पैदा हुए हों, तो भी तुम्हारे नहीं हैं। न कोई अपना है, न कोई पराया है। अगर सब हैं तो परमात्मा के हैं। अगर सब में कोई है, तो परमात्मा है। मेरा और तेरे का सारा मन का है। और मन संसार बनाता है। -ओशो”

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