मासषिवरात्रि व्रत ki vidhi
मासषिव रात्रि व्रत कृष्णपक्ष की चतुर्दषी को किया जाता है। इस दिन एक दिन पूर्व भोजन कर दिनभर निराहार रहकर पत्रपुष्प तथा सुंदर वस्त्रों से मंडल तैयार करके वेदी पर कलष की स्थापना कर गौरी शंकर की स्वर्णमूर्ति तथा नंदी की चाॅदी की मूर्ति रखकर अथवा सामान्य रूप से उपयोग करने वाली मूर्ति स्थापित कर कलष में जल से भरकर रोली, मोली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, चंदन, दूध, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र आदि का प्रसाद षिवजी पर अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातः जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन करके ब्राम्हणों को भोजन करवाकर व्रत का पारण करना चाहिए। इस प्रकार इस व्रत के करने से भगवान महादेव तथा भगवती गौरी का आर्षीवाद प्राप्त होने से जीवन के कष्ट समाप्त होकर सांसारिक दुखों से निवृत्ति प्राप्त होती है।
प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि व्रत रखा जाता है. इस दिन भगवान शंकर की पूजा तथा व्रत किया जाता है. शिवरात्रि के दिन पूरा दिन निराहार रहकर इनके व्रत का पालन करना चाहिए. रात्रि में स्वच्छ वस्त्र धारण कर शुद्ध आसन पर बैठकर भगवान भोलेनाथ का ध्यान करना चाहिए. उनके मंत्र की माला का जाप करना शुभफलदायी होता है. शिव की भक्ति के महत्व का वर्णन ऋग्वेद में किया गया है.
हिंदू शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिवरात्रि का दिन माना जाता है. धार्मिक मान्यताओं के आधार पर चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शिव हैं. इसी के साथ पौराणिक मान्यताओं में दिव्य ज्योर्तिलिंग का उदभव भी चतुर्दशी तिथि को ही माना गया है.
शिव चतुर्दशी में भगवान शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों सहित की जाती है. शिवलिंग के अभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी,गंगाजल तथा गन्ने के रस इत्यादि का उपयोग किया जाता है. अभिषेक पश्चात बेलपत्र, समीपत्र, कुशा तथा दूब इत्यादि को अर्पण किया जाता है. भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रुप में चढा़या जाता है.
उपवास की पूजन सामग्री में जिन वस्तुओं को प्रयोग किया जाता हैं, उसमें पंचामृत फूल, वस्त्र, बिल्व पत्र, धूप, दीप, नैवेद्य, चंदन इत्यादि का उपयोग होता है. इस व्रत में चारों पहरमें पूजन किया जाता है, चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुण्य प्राप्त होता है. रुद्राभिषेक करने से भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है.
इन्हीं सभी महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर चतुर्दशी तिथि के दिन भगवान शंकर की पूजा तथा व्रत का विधान है. विधिपूर्वक व्रत रखने पर तथा शिवपूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ “उँ नम: शिवाय” का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं. व्रत के दूसरे दिन ब्राह्मणों को यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट किया जाता हैं
मास शिवरात्रि की व्रत-कथा
एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’
उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- ‘एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।
अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’
शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।’
शिकारी हँसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’
उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।’
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।
शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।’
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’
उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।
देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।’