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महात्मा की कृपा

mahaatma kee krpa
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पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे ।पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे । महात्मा की कृपा – पुण्यभूमि आर्यावर्त के सौराष्ट्र – प्रांत में जीर्णदुर्ग नामक एक अत्यंत प्राचीन ऐतिहासिक नगर है, जिसे आजकल जूनागढ़ कहते हैं । भक्तप्रवर श्रीनरसिंह मेहता का जन्म लगभग सं0 1470 में इसी जूनागढ़ में एक प्रतिष्ठित नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम था कृष्णदामोदर दास तथा माता का नाम लक्ष्मी गौरी । उनके एक और बड़े भाई थे, जिनका नाम था वणसीधर या वंशीधर । अभी वंशीधर की उम्र 22 वर्ष और नरसिंहराम की 5 वर्ष के लगभग थी कि उनके माता – पिता का देहांत हो गया और उसके बाद नरसिंहराम का लालन – पालन बड़े भाई तथा दादी ने किया । दादी का नाम था जयकुंवारी । नरसिंहराम बचपन से गूंगे थे, प्राय: आठ वर्ष की उम्र तक उनका कण्ठ नहीं खुला । इस कारण लोग उन्हें ‘गूंगा’ कहकर पुकारने लगे । इस बात से उनकी दादी जयकुंवारि को बड़ा क्लेश होता था । वह बराबर इस चिंता में रहती थी कि मेरे पौत्र की जुबान कैसे खुले । परंतु मूक को वाचाल कौन बनावे, पंगु को गिरिवर लांघने की शक्ति कौन दे ? जयकुंवारि को पूरा विश्वास था, ऐसी शक्ति केवल एक परम पिता परमेश्वर ही है , उनकी दया होने पर मेरा पौत्र भी तत्काल वाणी प्राप्त कर सकता है और साथ ही यह भी उसे विश्वास था कि उन दयामय जगन्नाथ की कृपा साधारण मनुष्यों को उनके प्रिय भक्तों के द्वारा ही प्राप्त हुआ करती है । अतएव स्वभावत: ही उसमें साधु – महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव था । जब और जहां उसे कोई साधु – महात्मा मिलते, वह उनके दर्शन करती और यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक सेवी भी करती । कहते हैं, श्रद्धा उत्कट होने पर एक – न – एक दिन फलवती होती ही है । आखिर जयकुंवारी श्रद्धा भी पूरी होने का सुअवसर आया । फाल्गुन शुक्ल पंचमी का दिन था । ऋतुराज का सुखद साम्राज्य जगतभर में छा रहा था । मंद – मंद वसंतवायु सारे जगत के प्राणियों में नवजीवन का संचार कर रहा था । नगर के नर – नारी प्राय: नित्य ही सायंकाल हाटकेस्वर महादेव के दर्शन के लिए एकत्र हुआ करते, स्त्रियां मंदिर में एकत्र होकर मनोहर भजन तथा रास के गीत गाया करतीं । नित्य की तरह उस दिन भी खासी भीड़ थी । जयकुंवारि भी नाती को साथ लेकर हाटकेश्वर महादेव के दर्शन को गई । दर्शन करके लौटते समय उसकी दृष्टि एक महात्मापर पड़ी जो मंदिर के एक कोने में व्याघ्राम्बर पर पद्मासन लगाए बैठे थे । उनके मुख से निरंतर ‘नारायण – नारायण’ शब्द का प्रवाह चल रहा था । उनका चेहरा एक अपूर्व ज्योतिष से जगमगा रहा था । देखने से ही ऐसा मालूम होता था जैसे कोई परम सिद्ध योगी हों । उनकी दिव्य तपोपलब्ध प्रतिभा से आकृष्ट होकर जयकुंवरि भी अपने साथ की महिलाओं के संग उनके दर्शन करने के लिए गई । उसने दूर से ही बड़े आदर और भक्ति के साथ महात्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की – ‘महात्मन ! यह बालक मेरा पौत्र है, इसके माता – पिता का देहांत हो चुका है । प्राय: आठ वर्ष का यह होने चला, पर कुछ भी बोल नहीं सकता । इसका नाम नरसिंहराम है, परंतु सब लोग इसे गूंगा कहकर ही पुकारते हैं । इससे मुझे बड़ा क्लेश होता है । महाराज ! ऐसी कृपा कीजिए कि इस बालक की वाणी खुल जाएं ।’ महात्माओं का हृदय मक्खन के समान होता है । इतना ही नहीं, माखन तो केवल अपने ही ताप से द्रवित होता है और सत्पुरुष दूसरों के ताप से द्रवीभूत हो जाते हैं । पिर ये महात्मा तो दैवी शक्ति से संपन्न थे और मानों उस वृद्धा की मन:कामना पूरी करने के ही लिए ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर वहां आएं थे । उन्होंने बालक को अपने पास बिठाया और उसे एक बार ध्यान पूर्वक देखकर कहा – यह बालक तो भगवान का बड़ा भारी भक्त होगा । इतना कहकर उन्होंने अपने कमंडलु से जल लेकर मार्जन किया और बालक के कान में फूंक देकर कहा – बच्चा ! कहो राधे कृष्ण, राधे कृष्ण ! बस, महात्मा की कृपा से जन्म का गूंगा बालक ‘राधे कृष्ण, राधे कृष्ण’ कहने लगा । उपस्थित सभी मनुष्य आश्चर्यचकित हो गए और महात्मा जी की जय – जयकार पुकारने लगे । गूंगे पौत्र के मुख से भगवान का नामोच्चार सुनकर वृद्धा जयकुंवरि को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, इसे कौन बता सकता है ? उसने महात्मा जी को बार – बार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बड़ी दीनता के साथ प्रार्थना की – ‘महाराज ! आपकी ही कृपा से मेरा पौत्र अब बोलने लगा । मेरा बड़ा पौत्र राज्य में थानेदार के पदपर है । आप मेरे घरपर पधारने की कृपा करें और मुझे भी यथाशक्ति सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें । आपके चरण रज से मेरा भी पवित्र हो जाएगा ।’ परंतु सच्चे महात्मा सेवा यापुरस्कार के भूखे नहीं होते । वे तो सदा स्वभाव से ही लोक – कल्याण की चेष्टा करते रहते हैं । महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उत्तर दिया – माता ! मुझे कोई योगबल या तपोबल नहीं प्राप्त है । इस संसार में जो कुछ होता है, सब केवल प्रभु की कृपा से ही होता है । उन महामहिम परमात्मा की माया ‘अघटन – घटनापटीयसी’ कहलाती है । अत: मेरा उपकार भूलकर उन परमात्मा के ही प्रति कृतज्ञता प्रकट करो और उनका नामस्मरण, भजन – पूजन करो । मैं इस तरह अकारण अथवा प्रतिष्ठा के लिए किसी गृहस्थ के घर पर नहीं जाता । तुम घर पर जाकर प्रभु का भजन करो, तुम्हारे इच्छानुसार यह कह जाता हूं कि थोड़े ही दिनों में एक कुलवती सुरूपा कन्या से इसका विवाह भी हो जाएगा । जयकुंवरि को महात्मा जी के सामने विशेष आग्रह करने का साहस न हुआ । पौत्र के साथ प्रसन्नवदन अपने घर चली आयी और उसने बड़े पौत्र वंशीधर से महात्मा जी का चमत्कार कह सुनाया । वंशीधर ने महात्मा जी के दर्शन करने की लालसा से सिपाहियों द्वारा बड़ी खोज करायी, परंतु कहीं उनका पता न लगा । लोगों का विश्वास है कि अपने भावी भक्त नर सिंह मेहता को इष्टमंत्र तथा वाचा देने वाले सिद्धपुरुष स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे ।

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punyabhoomi aaryaavart ke sauraashtr – praant mein jeernadurg naamak ek atyant praacheen aitihaasik nagar hai, jise aajakal joonaagadh kahate hain . bhaktapravar shreenarasinh mehata ka janm lagabhag san0 1470 mein isee joonaagadh mein ek pratishthit naagar braahman parivaar mein hua tha . unake pita ka naam tha krshnadaamodar daas tatha maata ka naam lakshmee gauree . unake ek aur bade bhaee the, jinaka naam tha vanaseedhar ya vansheedhar . abhee vansheedhar kee umr 22 varsh aur narasinharaam kee 5 varsh ke lagabhag thee ki unake maata – pita ka dehaant ho gaya aur usake baad narasinharaam ka laalan – paalan bade bhaee tatha daadee ne kiya . daadee ka naam tha jayakunvaaree . narasinharaam bachapan se goonge the, praay: aath varsh kee umr tak unaka kanth nahin khula . is kaaran log unhen ‘goonga’ kahakar pukaarane lage . is baat se unakee daadee jayakunvaari ko bada klesh hota tha . vah baraabar is chinta mein rahatee thee ki mere pautr kee jubaan kaise khule . parantu mook ko vaachaal kaun banaave, pangu ko girivar laanghane kee shakti kaun de ? jayakunvaari ko poora vishvaas tha, aisee shakti keval ek param pita parameshvar hee hai , unakee daya hone par mera pautr bhee tatkaal vaanee praapt kar sakata hai aur saath hee yah bhee use vishvaas tha ki un dayaamay jagannaath kee krpa saadhaaran manushyon ko unake priy bhakton ke dvaara hee praapt hua karatee hai . atev svabhaavat: hee usamen saadhu – mahaatmaon ke prati shraddha aur aadar ka bhaav tha . jab aur jahaan use koee saadhu – mahaatma milate, vah unake darshan karatee aur yathaashakti shraddhaapoorvak sevee bhee karatee . kahate hain, shraddha utkat hone par ek – na – ek din phalavatee hotee hee hai . aakhir jayakunvaaree shraddha bhee pooree hone ka suavasar aaya . phaalgun shukl panchamee ka din tha . rturaaj ka sukhad saamraajy jagatabhar mein chha raha tha . mand – mand vasantavaayu saare jagat ke praaniyon mein navajeevan ka sanchaar kar raha tha . nagar ke nar – naaree praay: nity hee saayankaal haatakesvar mahaadev ke darshan ke lie ekatr hua karate, striyaan mandir mein ekatr hokar manohar bhajan tatha raas ke geet gaaya karateen . nity kee tarah us din bhee khaasee bheed thee . jayakunvaari bhee naatee ko saath lekar haatakeshvar mahaadev ke darshan ko gaee . darshan karake lautate samay usakee drshti ek mahaatmaapar padee jo mandir ke ek kone mein vyaaghraambar par padmaasan lagae baithe the . unake mukh se nirantar ‘naaraayan – naaraayan’ shabd ka pravaah chal raha tha . unaka chehara ek apoorv jyotish se jagamaga raha tha . dekhane se hee aisa maaloom hota tha jaise koee param siddh yogee hon . unakee divy tapopalabdh pratibha se aakrsht hokar jayakunvari bhee apane saath kee mahilaon ke sang unake darshan karane ke lie gaee . usane door se hee bade aadar aur bhakti ke saath mahaatma jee ko pranaam kiya aur haath jodakar vinatee kee – ‘mahaatman ! yah baalak mera pautr hai, isake maata – pita ka dehaant ho chuka hai . praay: aath varsh ka yah hone chala, par kuchh bhee bol nahin sakata . isaka naam narasinharaam hai, parantu sab log ise goonga kahakar hee pukaarate hain . isase mujhe bada klesh hota hai . mahaaraaj ! aisee krpa keejie ki is baalak kee vaanee khul jaen .’ mahaatmaon ka hrday makkhan ke samaan hota hai . itana hee nahin, maakhan to keval apane hee taap se dravit hota hai aur satpurush doosaron ke taap se draveebhoot ho jaate hain . pir ye mahaatma to daivee shakti se sampann the aur maanon us vrddha kee man:kaamana pooree karane ke hee lie eeshvar dvaara prerit hokar vahaan aaen the . unhonne baalak ko apane paas bithaaya aur use ek baar dhyaan poorvak dekhakar kaha – yah baalak to bhagavaan ka bada bhaaree bhakt hoga . itana kahakar unhonne apane kamandalu se jal lekar maarjan kiya aur baalak ke kaan mein phoonk dekar kaha – bachcha ! kaho raadhe krshn, raadhe krshn ! bas, mahaatma kee krpa se janm ka goonga baalak ‘raadhe krshn, raadhe krshn’ kahane laga . upasthit sabhee manushy aashcharyachakit ho gae aur mahaatma jee kee jay – jayakaar pukaarane lage . goonge pautr ke mukh se bhagavaan ka naamochchaar sunakar vrddha jayakunvari ko kitanee prasannata huee hogee, ise kaun bata sakata hai ? usane mahaatma jee ko baar – baar pranaam kiya aur haath jodakar badee deenata ke saath praarthana kee – ‘mahaaraaj ! aapakee hee krpa se mera pautr ab bolane laga . mera bada pautr raajy mein thaanedaar ke padapar hai . aap mere gharapar padhaarane kee krpa karen aur mujhe bhee yathaashakti seva karane ka suavasar pradaan karen . aapake charan raj se mera bhee pavitr ho jaega .’ parantu sachche mahaatma seva yaapuraskaar ke bhookhe nahin hote . ve to sada svabhaav se hee lok – kalyaan kee cheshta karate rahate hain . mahaatma jee ne prasannata poorvak uttar diya – maata ! mujhe koee yogabal ya tapobal nahin praapt hai . is sansaar mein jo kuchh hota hai, sab keval prabhu kee krpa se hee hota hai . un mahaamahim paramaatma kee maaya ‘aghatan – ghatanaapateeyasee’ kahalaatee hai . at: mera upakaar bhoolakar un paramaatma ke hee prati krtagyata prakat karo aur unaka naamasmaran, bhajan – poojan karo . main is tarah akaaran athava pratishtha ke lie kisee grhasth ke ghar par nahin jaata . tum ghar par jaakar prabhu ka bhajan karo, tumhaare ichchhaanusaar yah kah jaata hoon ki thode hee dinon mein ek kulavatee suroopa kanya se isaka vivaah bhee ho jaega . jayakunvari ko mahaatma jee ke saamane vishesh aagrah karane ka saahas na hua . pautr ke saath prasannavadan apane ghar chalee aayee aur usane bade pautr vansheedhar se mahaatma jee ka chamatkaar kah sunaaya . vansheedhar ne mahaatma jee ke darshan karane kee laalasa se sipaahiyon dvaara badee khoj karaayee, parantu kaheen unaka pata na laga . logon ka vishvaas hai ki apane bhaavee bhakt nar sinh mehata ko ishtamantr tatha vaacha dene vaale siddhapurush svayan bhagavaan shreekrshn hee the . mahaatma kee krpa – punyabhoomi aaryaavart ke sauraashtr – praant mein jeernadurg naamak ek atyant praacheen aitihaasik nagar hai, jise aajakal joonaagadh kahate hain . bhaktapravar shreenarasinh mehata ka janm lagabhag san0 1470 mein isee joonaagadh mein ek pratishthit naagar braahman parivaar mein hua tha . unake pita ka naam tha krshnadaamodar daas tatha maata ka naam lakshmee gauree . unake ek aur bade bhaee the, jinaka naam tha vanaseedhar ya vansheedhar . abhee vansheedhar kee umr 22 varsh aur narasinharaam kee 5 varsh ke lagabhag thee ki unake maata – pita ka dehaant ho gaya aur usake baad narasinharaam ka laalan – paalan bade bhaee tatha daadee ne kiya . daadee ka naam tha jayakunvaaree . narasinharaam bachapan se goonge the, praay: aath varsh kee umr tak unaka kanth nahin khula . is kaaran log unhen ‘goonga’ kahakar pukaarane lage . is baat se unakee daadee jayakunvaari ko bada klesh hota tha . vah baraabar is chinta mein rahatee thee ki mere pautr kee jubaan kaise khule . parantu mook ko vaachaal kaun banaave, pangu ko girivar laanghane kee shakti kaun de ? jayakunvaari ko poora vishvaas tha, aisee shakti keval ek param pita parameshvar hee hai , unakee daya hone par mera pautr bhee tatkaal vaanee praapt kar sakata hai aur saath hee yah bhee use vishvaas tha ki un dayaamay jagannaath kee krpa saadhaaran manushyon ko unake priy bhakton ke dvaara hee praapt hua karatee hai . atev svabhaavat: hee usamen saadhu – mahaatmaon ke prati shraddha aur aadar ka bhaav tha . jab aur jahaan use koee saadhu – mahaatma milate, vah unake darshan karatee aur yathaashakti shraddhaapoorvak sevee bhee karatee . kahate hain, shraddha utkat hone par ek – na – ek din phalavatee hotee hee hai . aakhir jayakunvaaree shraddha bhee pooree hone ka suavasar aaya . phaalgun shukl panchamee ka din tha . rturaaj ka sukhad saamraajy jagatabhar mein chha raha tha . mand – mand vasantavaayu saare jagat ke praaniyon mein navajeevan ka sanchaar kar raha tha . nagar ke nar – naaree praay: nity hee saayankaal haatakesvar mahaadev ke darshan ke lie ekatr hua karate, striyaan mandir mein ekatr hokar manohar bhajan tatha raas ke geet gaaya karateen . nity kee tarah us din bhee khaasee bheed thee . jayakunvaari bhee naatee ko saath lekar haatakeshvar mahaadev ke darshan ko gaee . darshan karake lautate samay usakee drshti ek mahaatmaapar padee jo mandir ke ek kone mein vyaaghraambar par padmaasan lagae baithe the . unake mukh se nirantar ‘naaraayan – naaraayan’ shabd ka pravaah chal raha tha . unaka chehara ek apoorv jyotish se jagamaga raha tha . dekhane se hee aisa maaloom hota tha jaise koee param siddh yogee hon . unakee divy tapopalabdh pratibha se aakrsht hokar jayakunvari bhee apane saath kee mahilaon ke sang unake darshan karane ke lie gaee . usane door se hee bade aadar aur bhakti ke saath mahaatma jee ko pranaam kiya aur haath jodakar vinatee kee – ‘mahaatman ! yah baalak mera pautr hai, isake maata – pita ka dehaant ho chuka hai . praay: aath varsh ka yah hone chala, par kuchh bhee bol nahin sakata . isaka naam narasinharaam hai, parantu sab log ise goonga kahakar hee pukaarate hain . isase mujhe bada klesh hota hai . mahaaraaj ! aisee krpa keejie ki is baalak kee vaanee khul jaen .’ mahaatmaon ka hrday makkhan ke samaan hota hai . itana hee nahin, maakhan to keval apane hee taap se dravit hota hai aur satpurush doosaron ke taap se draveebhoot ho jaate hain . pir ye mahaatma to daivee shakti se sampann the aur maanon us vrddha kee man:kaamana pooree karane ke hee lie eeshvar dvaara prerit hokar vahaan aaen the . unhonne baalak ko apane paas bithaaya aur use ek baar dhyaan poorvak dekhakar kaha – yah baalak to bhagavaan ka bada bhaaree bhakt hoga . itana kahakar unhonne apane kamandalu se jal lekar maarjan kiya aur baalak ke kaan mein phoonk dekar kaha – bachcha ! kaho raadhe krshn, raadhe krshn ! bas, mahaatma kee krpa se janm ka goonga baalak ‘raadhe krshn, raadhe krshn’ kahane laga . upasthit sabhee manushy aashcharyachakit ho gae aur mahaatma jee kee jay – jayakaar pukaarane lage . goonge pautr ke mukh se bhagavaan ka naamochchaar sunakar vrddha jayakunvari ko kitanee prasannata huee hogee, ise kaun bata sakata hai ? 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usane mahaatma jee ko baar – baar pranaam kiya aur haath jodakar badee deenata ke saath praarthana kee – ‘mahaaraaj ! aapakee hee krpa se mera pautr ab bolane laga . mera bada pautr raajy mein thaanedaar ke padapar hai . aap mere gharapar padhaarane kee krpa karen aur mujhe bhee yathaashakti seva karane ka suavasar pradaan karen . aapake charan raj se mera bhee pavitr ho jaega .’ parantu sachche mahaatma seva yaapuraskaar ke bhookhe nahin hote . ve to sada svabhaav se hee lok – kalyaan kee cheshta karate rahate hain . mahaatma jee ne prasannata poorvak uttar diya – maata ! mujhe koee yogabal ya tapobal nahin praapt hai . is sansaar mein jo kuchh hota hai, sab keval prabhu kee krpa se hee hota hai . un mahaamahim paramaatma kee maaya ‘aghatan – ghatanaapateeyasee’ kahalaatee hai . at: mera upakaar bhoolakar un paramaatma ke hee prati krtagyata prakat karo aur unaka naamasmaran, bhajan – poojan karo . main is tarah akaaran athava pratishtha ke lie kisee grhasth ke ghar par nahin jaata . tum ghar par jaakar prabhu ka bhajan karo, tumhaare ichchhaanusaar yah kah jaata hoon ki thode hee dinon mein ek kulavatee suroopa kanya se isaka vivaah bhee ho jaega . jayakunvari ko mahaatma jee ke saamane vishesh aagrah karane ka saahas na hua . pautr ke saath prasannavadan apane ghar chalee aayee aur usane bade pautr vansheedhar se mahaatma jee ka chamatkaar kah sunaaya . vansheedhar ne mahaatma jee ke darshan karane kee laalasa se sipaahiyon dvaara badee khoj karaayee, parantu kaheen unaka pata na laga . logon ka vishvaas hai ki apane bhaavee bhakt nar sinh mehata ko ishtamantr tatha vaacha dene vaale siddhapurush svayan bhagavaan shreekrshn hee the . mahaatma kee krpa – punyabhoomi aaryaavart ke sauraashtr – praant mein jeernadurg naamak ek atyant praacheen aitihaasik nagar hai, jise aajakal joonaagadh kahate hain . bhaktapravar shreenarasinh mehata ka janm lagabhag san0 1470 mein isee joonaagadh mein ek pratishthit naagar braahman parivaar mein hua tha . unake pita ka naam tha krshnadaamodar daas tatha maata ka naam lakshmee gauree . unake ek aur bade bhaee the, jinaka naam tha vanaseedhar ya vansheedhar . abhee vansheedhar kee umr 22 varsh aur narasinharaam kee 5 varsh ke lagabhag thee ki unake maata – pita ka dehaant ho gaya aur usake baad narasinharaam ka laalan – paalan bade bhaee tatha daadee ne kiya . daadee ka naam tha jayakunvaaree . narasinharaam bachapan se goonge the, praay: aath varsh kee umr tak unaka kanth nahin khula . is kaaran log unhen ‘goonga’ kahakar pukaarane lage . is baat se unakee daadee jayakunvaari ko bada klesh hota tha . vah baraabar is chinta mein rahatee thee ki mere pautr kee jubaan kaise khule . parantu mook ko vaachaal kaun banaave, pangu ko girivar laanghane kee shakti kaun de ? jayakunvaari ko poora vishvaas tha, aisee shakti keval ek param pita parameshvar hee hai , unakee daya hone par mera pautr bhee tatkaal vaanee praapt kar sakata hai aur saath hee yah bhee use vishvaas tha ki un dayaamay jagannaath kee krpa saadhaaran manushyon ko unake priy bhakton ke dvaara hee praapt hua karatee hai . atev svabhaavat: hee usamen saadhu – mahaatmaon ke prati shraddha aur aadar ka bhaav tha . jab aur jahaan use koee saadhu – mahaatma milate, vah unake darshan karatee aur yathaashakti shraddhaapoorvak sevee bhee karatee . kahate hain, shraddha utkat hone par ek – na – ek din phalavatee hotee hee hai . aakhir jayakunvaaree shraddha bhee pooree hone ka suavasar aaya . phaalgun shukl panchamee ka din tha . rturaaj ka sukhad saamraajy jagatabhar mein chha raha tha . mand – mand vasantavaayu saare jagat ke praaniyon mein navajeevan ka sanchaar kar raha tha . nagar ke nar – naaree praay: nity hee saayankaal haatakesvar mahaadev ke darshan ke lie ekatr hua karate, striyaan mandir mein ekatr hokar manohar bhajan tatha raas ke geet gaaya karateen . nity kee tarah us din bhee khaasee bheed thee . jayakunvaari bhee naatee ko saath lekar haatakeshvar mahaadev ke darshan ko gaee . darshan karake lautate samay usakee drshti ek mahaatmaapar padee jo mandir ke ek kone mein vyaaghraambar par padmaasan lagae baithe the . unake mukh se nirantar ‘naaraayan – naaraayan’ shabd ka pravaah chal raha tha . unaka chehara ek apoorv jyotish se jagamaga raha tha . dekhane se hee aisa maaloom hota tha jaise koee param siddh yogee hon . unakee divy tapopalabdh pratibha se aakrsht hokar jayakunvari bhee apane saath kee mahilaon ke sang unake darshan karane ke lie gaee . usane door se hee bade aadar aur bhakti ke saath mahaatma jee ko pranaam kiya aur haath jodakar vinatee kee – ‘mahaatman ! yah baalak mera pautr hai, isake maata – pita ka dehaant ho chuka hai . praay: aath varsh ka yah hone chala, par kuchh bhee bol nahin sakata . isaka naam narasinharaam hai, parantu sab log ise goonga kahakar hee pukaarate hain . isase mujhe bada klesh hota hai . mahaaraaj ! aisee krpa keejie ki is baalak kee vaanee khul jaen .’ mahaatmaon ka hrday makkhan ke samaan hota hai . itana hee nahin, maakhan to keval apane hee taap se dravit hota hai aur satpurush doosaron ke taap se draveebhoot ho jaate hain . pir ye mahaatma to daivee shakti se sampann the aur maanon us vrddha kee man:kaamana pooree karane ke hee lie eeshvar dvaara prerit hokar vahaan aaen the . unhonne baalak ko apane paas bithaaya aur use ek baar dhyaan poorvak dekhakar kaha – yah baalak to bhagavaan ka bada bhaaree bhakt hoga . itana kahakar unhonne apane kamandalu se jal lekar maarjan kiya aur baalak ke kaan mein phoonk dekar kaha – bachcha ! kaho raadhe krshn, raadhe krshn ! bas, mahaatma kee krpa se janm ka goonga baalak ‘raadhe krshn, raadhe krshn’ kahane laga . upasthit sabhee manushy aashcharyachakit ho gae aur mahaatma jee kee jay – jayakaar pukaarane lage . goonge pautr ke mukh se bhagavaan ka naamochchaar sunakar vrddha jayakunvari ko kitanee prasannata huee hogee, ise kaun bata sakata hai ? usane mahaatma jee ko baar – baar pranaam kiya aur haath jodakar badee deenata ke saath praarthana kee – ‘mahaaraaj ! aapakee hee krpa se mera pautr ab bolane laga . mera bada pautr raajy mein thaanedaar ke padapar hai . aap mere gharapar padhaarane kee krpa karen aur mujhe bhee yathaashakti seva karane ka suavasar pradaan karen . aapake charan raj se mera bhee pavitr ho jaega .’ parantu sachche mahaatma seva yaapuraskaar ke bhookhe nahin hote . ve to sada svabhaav se hee lok – kalyaan kee cheshta karate rahate hain . mahaatma jee ne prasannata poorvak uttar diya – maata ! mujhe koee yogabal ya tapobal nahin praapt hai . is sansaar mein jo kuchh hota hai, sab keval prabhu kee krpa se hee hota hai . un mahaamahim paramaatma kee maaya ‘aghatan – ghatanaapateeyasee’ kahalaatee hai . at: mera upakaar bhoolakar un paramaatma ke hee prati krtagyata prakat karo aur unaka naamasmaran, bhajan – poojan karo . main is tarah akaaran athava pratishtha ke lie kisee grhasth ke ghar par nahin jaata . tum ghar par jaakar prabhu ka bhajan karo, tumhaare ichchhaanusaar yah kah jaata hoon ki thode hee dinon mein ek kulavatee suroopa kanya se isaka vivaah bhee ho jaega . jayakunvari ko mahaatma jee ke saamane vishesh aagrah karane ka saahas na hua . pautr ke saath prasannavadan apane ghar chalee aayee aur usane bade pautr vansheedhar se mahaatma jee ka chamatkaar kah sunaaya . vansheedhar ne mahaatma jee ke darshan karane kee laalasa se sipaahiyon dvaara badee khoj karaayee, parantu kaheen unaka pata na laga . logon ka vishvaas hai ki apane bhaavee bhakt nar sinh mehata ko ishtamantr tatha vaacha dene vaale siddhapurush svayan bhagavaan shreekrshn hee the . mahaatma kee krpa – punyabhoomi aaryaavart ke sauraashtr – praant mein jeernadurg naamak ek atyant praacheen aitihaasik nagar hai, jise aajakal joonaagadh kahate hain . bhaktapravar shreenarasinh mehata ka janm lagabhag san0 1470 mein isee joonaagadh mein ek pratishthit naagar braahman parivaar mein hua tha . unake pita ka naam tha krshnadaamodar daas tatha maata ka naam lakshmee gauree . unake ek aur bade bhaee the, jinaka naam tha vanaseedhar ya vansheedhar . abhee vansheedhar kee umr 22 varsh aur narasinharaam kee 5 varsh ke lagabhag thee ki unake maata – pita ka dehaant ho gaya aur usake baad narasinharaam ka laalan – paalan bade bhaee tatha daadee ne kiya . daadee ka naam tha jayakunvaaree . narasinharaam bachapan se goonge the, praay: aath varsh kee umr tak unaka kanth nahin khula . is kaaran log unhen ‘goonga’ kahakar pukaarane lage . is baat se unakee daadee jayakunvaari ko bada klesh hota tha . vah baraabar is chinta mein rahatee thee ki mere pautr kee jubaan kaise khule . parantu mook ko vaachaal kaun banaave, pangu ko girivar laanghane kee shakti kaun de ? jayakunvaari ko poora vishvaas tha, aisee shakti keval ek param pita parameshvar hee hai , unakee daya hone par mera pautr bhee tatkaal vaanee praapt kar sakata hai aur saath hee yah bhee use vishvaas tha ki un dayaamay jagannaath kee krpa saadhaaran manushyon ko unake priy bhakton ke dvaara hee praapt hua karatee hai . atev svabhaavat: hee usamen saadhu – mahaatmaon ke prati shraddha aur aadar ka bhaav tha . jab aur jahaan use koee saadhu – mahaatma milate, vah unake darshan karatee aur yathaashakti shraddhaapoorvak sevee bhee karatee . kahate hain, shraddha utkat hone par ek – na – ek din phalavatee hotee hee hai . aakhir jayakunvaaree shraddha bhee pooree hone ka suavasar aaya . phaalgun shukl panchamee ka din tha . rturaaj ka sukhad saamraajy jagatabhar mein chha raha tha . mand – mand vasantavaayu saare jagat ke praaniyon mein navajeevan ka sanchaar kar raha tha . nagar ke nar – naaree praay: nity hee saayankaal haatakesvar mahaadev ke darshan ke lie ekatr hua karate, striyaan mandir mein ekatr hokar manohar bhajan tatha raas ke geet gaaya karateen . nity kee tarah us din bhee khaasee bheed thee . jayakunvaari bhee naatee ko saath lekar haatakeshvar mahaadev ke darshan ko gaee . darshan karake lautate samay usakee drshti ek mahaatmaapar padee jo mandir ke ek kone mein vyaaghraambar par padmaasan lagae baithe the . unake mukh se nirantar ‘naaraayan – naaraayan’ shabd ka pravaah chal raha tha . unaka chehara ek apoorv jyotish se jagamaga raha tha . dekhane se hee aisa maaloom hota tha jaise koee param siddh yogee hon . unakee divy tapopalabdh pratibha se aakrsht hokar jayakunvari bhee apane saath kee mahilaon ke sang unake darshan karane ke lie gaee . usane door se hee bade aadar aur bhakti ke saath mahaatma jee ko pranaam kiya aur haath jodakar vinatee kee – ‘mahaatman ! yah baalak mera pautr hai, isake maata – pita ka dehaant ho chuka hai . praay: aath varsh ka yah hone chala, par kuchh bhee bol nahin sakata . isaka naam narasinharaam hai, parantu sab log ise goonga kahakar hee pukaarate hain . isase mujhe bada klesh hota hai . mahaaraaj ! aisee krpa keejie ki is baalak kee vaanee khul jaen .’ mahaatmaon ka hrday makkhan ke samaan hota hai . itana hee nahin, maakhan to keval apane hee taap se dravit hota hai aur satpurush doosaron ke taap se draveebhoot ho jaate hain . pir ye mahaatma to daivee shakti se sampann the aur maanon us vrddha kee man:kaamana pooree karane ke hee lie eeshvar dvaara prerit hokar vahaan aaen the . unhonne baalak ko apane paas bithaaya aur use ek baar dhyaan poorvak dekhakar kaha – yah baalak to bhagavaan ka bada bhaaree bhakt hoga . itana kahakar unhonne apane kamandalu se jal lekar maarjan kiya aur baalak ke kaan mein phoonk dekar kaha – bachcha ! kaho raadhe krshn, raadhe krshn ! bas, mahaatma kee krpa se janm ka goonga baalak ‘raadhe krshn, raadhe krshn’ kahane laga . upasthit sabhee manushy aashcharyachakit ho gae aur mahaatma jee kee jay – jayakaar pukaarane lage . goonge pautr ke mukh se bhagavaan ka naamochchaar sunakar vrddha jayakunvari ko kitanee prasannata huee hogee, ise kaun bata sakata hai ? 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usane mahaatma jee ko baar – baar pranaam kiya aur haath jodakar badee deenata ke saath praarthana kee – ‘mahaaraaj ! aapakee hee krpa se mera pautr ab bolane laga . mera bada pautr raajy mein thaanedaar ke padapar hai . aap mere gharapar padhaarane kee krpa karen aur mujhe bhee yathaashakti seva karane ka suavasar pradaan karen . aapake charan raj se mera bhee pavitr ho jaega .’ parantu sachche mahaatma seva yaapuraskaar ke bhookhe nahin hote . ve to sada svabhaav se hee lok – kalyaan kee cheshta karate rahate hain . mahaatma jee ne prasannata poorvak uttar diya – maata ! mujhe koee yogabal ya tapobal nahin praapt hai . is sansaar mein jo kuchh hota hai, sab keval prabhu kee krpa se hee hota hai . un mahaamahim paramaatma kee maaya ‘aghatan – ghatanaapateeyasee’ kahalaatee hai . at: mera upakaar bhoolakar un paramaatma ke hee prati krtagyata prakat karo aur unaka naamasmaran, bhajan – poojan karo . main is tarah akaaran athava pratishtha ke lie kisee grhasth ke ghar par nahin jaata . tum ghar par jaakar prabhu ka bhajan karo, tumhaare ichchhaanusaar yah kah jaata hoon ki thode hee dinon mein ek kulavatee suroopa kanya se isaka vivaah bhee ho jaega . jayakunvari ko mahaatma jee ke saamane vishesh aagrah karane ka saahas na hua . pautr ke saath prasannavadan apane ghar chalee aayee aur usane bade pautr vansheedhar se mahaatma jee ka chamatkaar kah sunaaya . vansheedhar ne mahaatma jee ke darshan karane kee laalasa se sipaahiyon dvaara badee khoj karaayee, parantu kaheen unaka pata na laga . logon ka vishvaas hai ki apane bhaavee bhakt nar sinh mehata ko ishtamantr tatha vaacha dene vaale siddhapurush svayan bhagavaan shreekrshn hee the . mahaatma kee krpa – punyabhoomi aaryaavart ke sauraashtr – praant mein jeernadurg naamak ek atyant praacheen aitihaasik nagar hai, jise aajakal joonaagadh kahate hain . bhaktapravar shreenarasinh mehata ka janm lagabhag san0 1470 mein isee joonaagadh mein ek pratishthit naagar braahman parivaar mein hua tha . unake pita ka naam tha krshnadaamodar daas tatha maata ka naam lakshmee gauree . unake ek aur bade bhaee the, jinaka naam tha vanaseedhar ya vansheedhar . abhee vansheedhar kee umr 22 varsh aur narasinharaam kee 5 varsh ke lagabhag thee ki unake maata – pita ka dehaant ho gaya aur usake baad narasinharaam ka laalan – paalan bade bhaee tatha daadee ne kiya . daadee ka naam tha jayakunvaaree . narasinharaam bachapan se goonge the, praay: aath varsh kee umr tak unaka kanth nahin khula . is kaaran log unhen ‘goonga’ kahakar pukaarane lage . is baat se unakee daadee jayakunvaari ko bada klesh hota tha . vah baraabar is chinta mein rahatee thee ki mere pautr kee jubaan kaise khule . parantu mook ko vaachaal kaun banaave, pangu ko girivar laanghane kee shakti kaun de ? jayakunvaari ko poora vishvaas tha, aisee shakti keval ek param pita parameshvar hee hai , unakee daya hone par mera pautr bhee tatkaal vaanee praapt kar sakata hai aur saath hee yah bhee use vishvaas tha ki un dayaamay jagannaath kee krpa saadhaaran manushyon ko unake priy bhakton ke dvaara hee praapt hua karatee hai . atev svabhaavat: hee usamen saadhu – mahaatmaon ke prati shraddha aur aadar ka bhaav tha . jab aur jahaan use koee saadhu – mahaatma milate, vah unake darshan karatee aur yathaashakti shraddhaapoorvak sevee bhee karatee . kahate hain, shraddha utkat hone par ek – na – ek din phalavatee hotee hee hai . aakhir jayakunvaaree shraddha bhee pooree hone ka suavasar aaya . phaalgun shukl panchamee ka din tha . rturaaj ka sukhad saamraajy jagatabhar mein chha raha tha . mand – mand vasantavaayu saare jagat ke praaniyon mein navajeevan ka sanchaar kar raha tha . nagar ke nar – naaree praay: nity hee saayankaal haatakesvar mahaadev ke darshan ke lie ekatr hua karate, striyaan mandir mein ekatr hokar manohar bhajan tatha raas ke geet gaaya karateen . nity kee tarah us din bhee khaasee bheed thee . jayakunvaari bhee naatee ko saath lekar haatakeshvar mahaadev ke darshan ko gaee . darshan karake lautate samay usakee drshti ek mahaatmaapar padee jo mandir ke ek kone mein vyaaghraambar par padmaasan lagae baithe the . unake mukh se nirantar ‘naaraayan – naaraayan’ shabd ka pravaah chal raha tha . unaka chehara ek apoorv jyotish se jagamaga raha tha . dekhane se hee aisa maaloom hota tha jaise koee param siddh yogee hon . unakee divy tapopalabdh pratibha se aakrsht hokar jayakunvari bhee apane saath kee mahilaon ke sang unake darshan karane ke lie gaee . usane door se hee bade aadar aur bhakti ke saath mahaatma jee ko pranaam kiya aur haath jodakar vinatee kee – ‘mahaatman ! yah baalak mera pautr hai, isake maata – pita ka dehaant ho chuka hai . praay: aath varsh ka yah hone chala, par kuchh bhee bol nahin sakata . isaka naam narasinharaam hai, parantu sab log ise goonga kahakar hee pukaarate hain . isase mujhe bada klesh hota hai . mahaaraaj ! aisee krpa keejie ki is baalak kee vaanee khul jaen .’ mahaatmaon ka hrday makkhan ke samaan hota hai . itana hee nahin, maakhan to keval apane hee taap se dravit hota hai aur satpurush doosaron ke taap se draveebhoot ho jaate hain . pir ye mahaatma to daivee shakti se sampann the aur maanon us vrddha kee man:kaamana pooree karane ke hee lie eeshvar dvaara prerit hokar vahaan aaen the . unhonne baalak ko apane paas bithaaya aur use ek baar dhyaan poorvak dekhakar kaha – yah baalak to bhagavaan ka bada bhaaree bhakt hoga . itana kahakar unhonne apane kamandalu se jal lekar maarjan kiya aur baalak ke kaan mein phoonk dekar kaha – bachcha ! kaho raadhe krshn, raadhe krshn ! bas, mahaatma kee krpa se janm ka goonga baalak ‘raadhe krshn, raadhe krshn’ kahane laga . upasthit sabhee manushy aashcharyachakit ho gae aur mahaatma jee kee jay – jayakaar pukaarane lage . goonge pautr ke mukh se bhagavaan ka naamochchaar sunakar vrddha jayakunvari ko kitanee prasannata huee hogee, ise kaun bata sakata hai ? usane mahaatma jee ko baar – baar pranaam kiya aur haath jodakar badee deenata ke saath praarthana kee – ‘mahaaraaj ! aapakee hee krpa se mera pautr ab bolane laga . mera bada pautr raajy mein thaanedaar ke padapar hai . aap mere gharapar padhaarane kee krpa karen aur mujhe bhee yathaashakti seva karane ka suavasar pradaan karen . aapake charan raj se mera bhee pavitr ho jaega .’ parantu sachche mahaatma seva yaapuraskaar ke bhookhe nahin hote . ve to sada svabhaav se hee lok – kalyaan kee cheshta karate rahate hain . mahaatma jee ne prasannata poorvak uttar diya – maata ! mujhe koee yogabal ya tapobal nahin praapt hai . is sansaar mein jo kuchh hota hai, sab keval prabhu kee krpa se hee hota hai . un mahaamahim paramaatma kee maaya ‘aghatan – ghatanaapateeyasee’ kahalaatee hai . at: mera upakaar bhoolakar un paramaatma ke hee prati krtagyata prakat karo aur unaka naamasmaran, bhajan – poojan karo . main is tarah akaaran athava pratishtha ke lie kisee grhasth ke ghar par nahin jaata . tum ghar par jaakar prabhu ka bhajan karo, tumhaare ichchhaanusaar yah kah jaata hoon ki thode hee dinon mein ek kulavatee suroopa kanya se isaka vivaah bhee ho jaega . jayakunvari ko mahaatma jee ke saamane vishesh aagrah karane ka saahas na hua . pautr ke saath prasannavadan apane ghar chalee aayee aur usane bade pautr vansheedhar se mahaatma jee ka chamatkaar kah sunaaya . vansheedhar ne mahaatma jee ke darshan karane kee laalasa se sipaahiyon dvaara badee khoj karaayee, parantu kaheen unaka pata na laga . logon ka vishvaas hai ki apane bhaavee bhakt nar sinh mehata ko ishtamantr tatha vaacha dene vaale siddhapurush svayan bhagavaan shreekrshn hee the . mahaatma kee krpa – punyabhoomi aaryaavart ke sauraashtr – praant mein jeernadurg naamak ek atyant praacheen aitihaasik nagar hai, jise aajakal joonaagadh kahate hain . bhaktapravar shreenarasinh mehata ka janm lagabhag san0 1470 mein isee joonaagadh mein ek pratishthit naagar braahman parivaar mein hua tha . unake pita ka naam tha krshnadaamodar daas tatha maata ka naam lakshmee gauree . unake ek aur bade bhaee the, jinaka naam tha vanaseedhar ya vansheedhar . abhee vansheedhar kee umr 22 varsh aur narasinharaam kee 5 varsh ke lagabhag thee ki unake maata – pita ka dehaant ho gaya aur usake baad narasinharaam ka laalan – paalan bade bhaee tatha daadee ne kiya . daadee ka naam tha jayakunvaaree . narasinharaam bachapan se goonge the, praay: aath varsh kee umr tak unaka kanth nahin khula . is kaaran log unhen ‘goonga’ kahakar pukaarane lage . is baat se unakee daadee jayakunvaari ko bada klesh hota tha . vah baraabar is chinta mein rahatee thee ki mere pautr kee jubaan kaise khule . parantu mook ko vaachaal kaun banaave, pangu ko girivar laanghane kee shakti kaun de ? jayakunvaari ko poora vishvaas tha, aisee shakti keval ek param pita parameshvar hee hai , unakee daya hone par mera pautr bhee tatkaal vaanee praapt kar sakata hai aur saath hee yah bhee use vishvaas tha ki un dayaamay jagannaath kee krpa saadhaaran manushyon ko unake priy bhakton ke dvaara hee praapt hua karatee hai . atev svabhaavat: hee usamen saadhu – mahaatmaon ke prati shraddha aur aadar ka bhaav tha . jab aur jahaan use koee saadhu – mahaatma milate, vah unake darshan karatee aur yathaashakti shraddhaapoorvak sevee bhee karatee . kahate hain, shraddha utkat hone par ek – na – ek din phalavatee hotee hee hai . aakhir jayakunvaaree shraddha bhee pooree hone ka suavasar aaya . phaalgun shukl panchamee ka din tha . rturaaj ka sukhad saamraajy jagatabhar mein chha raha tha . mand – mand vasantavaayu saare jagat ke praaniyon mein navajeevan ka sanchaar kar raha tha . nagar ke nar – naaree praay: nity hee saayankaal haatakesvar mahaadev ke darshan ke lie ekatr hua karate, striyaan mandir mein ekatr hokar manohar bhajan tatha raas ke geet gaaya karateen . nity kee tarah us din bhee khaasee bheed thee . jayakunvaari bhee naatee ko saath lekar haatakeshvar mahaadev ke darshan ko gaee . darshan karake lautate samay usakee drshti ek mahaatmaapar padee jo mandir ke ek kone mein vyaaghraambar par padmaasan lagae baithe the . unake mukh se nirantar ‘naaraayan – naaraayan’ shabd ka pravaah chal raha tha . unaka chehara ek apoorv jyotish se jagamaga raha tha . dekhane se hee aisa maaloom hota tha jaise koee param siddh yogee hon . unakee divy tapopalabdh pratibha se aakrsht hokar jayakunvari bhee apane saath kee mahilaon ke sang unake darshan karane ke lie gaee . usane door se hee bade aadar aur bhakti ke saath mahaatma jee ko pranaam kiya aur haath jodakar vinatee kee – ‘mahaatman ! yah baalak mera pautr hai, isake maata – pita ka dehaant ho chuka hai . praay: aath varsh ka yah hone chala, par kuchh bhee bol nahin sakata . isaka naam narasinharaam hai, parantu sab log ise goonga kahakar hee pukaarate hain . isase mujhe bada klesh hota hai . mahaaraaj ! aisee krpa keejie ki is baalak kee vaanee khul jaen .’ mahaatmaon ka hrday makkhan ke samaan hota hai . itana hee nahin, maakhan to keval apane hee taap se dravit hota hai aur satpurush doosaron ke taap se draveebhoot ho jaate hain . pir ye mahaatma to daivee shakti se sampann the aur maanon us vrddha kee man:kaamana pooree karane ke hee lie eeshvar dvaara prerit hokar vahaan aaen the . unhonne baalak ko apane paas bithaaya aur use ek baar dhyaan poorvak dekhakar kaha – yah baalak to bhagavaan ka bada bhaaree bhakt hoga . itana kahakar unhonne apane kamandalu se jal lekar maarjan kiya aur baalak ke kaan mein phoonk dekar kaha – bachcha ! kaho raadhe krshn, raadhe krshn ! bas, mahaatma kee krpa se janm ka goonga baalak ‘raadhe krshn, raadhe krshn’ kahane laga . upasthit sabhee manushy aashcharyachakit ho gae aur mahaatma jee kee jay – jayakaar pukaarane lage . goonge pautr ke mukh se bhagavaan ka naamochchaar sunakar vrddha jayakunvari ko kitanee prasannata huee hogee, ise kaun bata sakata hai ? 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