“अच्छा मम्मा, आप अपना बहुत ध्यान रखना. आपके यहां अकेले रहने से आपकी फिक्र लगी रहती है।”
“अरे बेटा, मेरी चिंता मत किया कर। मैं यहां अपने घर में बहुत खुश हूं। यहां मेरी सहेलियां है, मेरा बगीचा है, टफ़ी है। जा जा… तू निश्चिंत जा।”
“आप भी न मम्मा, बहुत जिद करती हो। खैर… चलती हूं। ओके मम्मा…बाय…!”
तीन महीनों से वर्क फ्रॉम होम के चलते मेरी इकलौती बिटिया मेरे पास ही थी। कितना बढ़िया समय गुज़रा वह, लेकिन बिटिया के जाने के बाद घर भांय भांय कर रहा था। बहुत सूनेपन का एहसास हो रहा था। ऐसा लग रहा था मानो कलेजा खाली हो गया।
तभी टफ़ी आकर मेरे पैर चाटने लगा, लेकिन मैंने उसे भी एक नजर तक नहीं देखा, और गुमसुम बैठी रही।
अप्रेल की बेमौसम पर खुशनुमा बूंदाबूंदी भी मेरे मायूस मन को कोई दिलासा न दे सकी। एक अबूझ सी उदासी मन को मथने सी लगी थी।
तभी आवाज आई, “पालक ले लो… धनिया पुदीना लेलो… ।”
मैंने चौंक कर देखा, नीचे सड़क पर घाघरा लुगड़ी पहने लगभग मेरी ही उम्र की वृद्धा खड़ी खड़ी मुझे किंचित हसरत भरी निगाहों से देख रही थी।
“ओ मैडमजी! सुबह से डोलते डोलते हलकान हो आई, लेकिन अभी तक बोहनी नहीं हुई। ताजा पालक, धनिया और पुदीना है मेरे अपने खेत का। ले लो जी, इस गरीब का भला हो जावेगा।”
उसकी उम्मीद भरी आंखों में कुछ तो ऐसा था कि मैं उसे मना नहीं कर पाई और उसकी गठरी से झाँकते सब्ज पत्ते देख मैंने उसे ऊपर बुला लिया।
उसका विवर्ण, गहरा तांबई रंग का चेहरा और उस पर पड़ी अनगिनत झुर्रियां और लकीरें उसके संघर्ष की कहानी बयां कर रही थीं।
“आपका नाम क्या है बाईजी?”
“मीठीबाई।”
“अरे! बड़ा प्यारा नाम है। मीठा मीठा सा।”
“हां जी! नाम का क्या है? नाम ही नाम मीठा है जी। असल जिंदगानी मैं तो सब कुछ कड़वा ही कड़वा है।”
“ऐसा क्यों कह रही हो? पति क्या करते हैं आपके?” उसकी सूनी मांग और माथा देखकर तनिक हिचकिचाते हुए मैंने उससे पूछा।
“जी मेरा पति तो पांच बरस पहले मुझे मझधार छोड़ भगवान को प्यारा हो गया,” कहते कहते उसकी आंखों में एक दर्द की लहर कौंध उठी।
“और बच्चे?”
“बस एक शादीशुदा बेटी है। अपनी ससुराल में रहती है।”
“आप कहां रहती हो बाई जी?”
“पास की पुलिया के पार पुरखों का छोड़ा हुआ सौ गज का प्लॉट है। बस उसी के एक कोने में एक झोपड़ी बना रखी है। बाकी की कच्ची जमीन में सर्दियों में पालक, मेथी, चौलाई, धनिया बो कर आस पास की कॉलोनियों में रोज़ीना बेच आती हूँ। किसी तरह गुजारा हो जाता है। गर्मियों में भिंडी, लौकी, तोरई उगा लेती हूं जी।”
“गुजारे भर लायक कमा लेती हो?”
“हां जी! बस किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ हो ही जाता है।”
“अकेली क्यों रहती हो? बेटी के पास क्यों नहीं रहती?”
“अरे मैडमजी, बेटी की ज़िंदगी कौन सी आसान है? सौ झमेले हैं उसकी नन्ही सी जान को। बियाह को पाँच बरस हो गए जी, गोद अभी तक हरी ना हुई उसकी। सो सास और मरद ने उसका जीना हराम कर रखा है। मैं और पड़ जाऊं उसके गले। मैं तो जी एक बात जानूं हूँ। जिंदगानी की लड़ाई अपने दम पर ही लड़नी पड़ती है।
फिर यहां मेरी जमीन है, झौंपड़ी है। अजी, मैं तो एक दिन को भी अपना घर छोड़कर नहीं जा पाती। बगल वाले प्लॉट के मालिक की नियत खराब है। मेरी जमीन पर उसकी बुरी नजर है। वह तो ताक में बैठा है, कब मेरी आंखें मुंदें, और वह मेरे बाप दादों की जमीन हथिया ले।”
“अरे, कोई जंगलराज थोड़े ही है ना, जो ऐसे ही तुम्हारी जमीन हड़प लेगा कोई भी!”
“अजी मैडमजी, हम फटेहाल गरीबों के लिए तो जंगलराज ही है। मैं ठहरी निपट अकेली जान, वह मेरा पड़ौसी तो इतना बेईमान, मुंहजोर है, मैं जरा साग बेचने निकलती हूं, इतनी सी देर में उसके पोता पोती खेत में लगी साग सब्जी चुरा कर ले जाते हैं। मैं गरियाती… कोसती हूँ तो दाँत निकाल खी खी हँसते हैं मरदुए। कभी कभी तो मेरे खेत का पानी तक बंद कर देते हैं। कीड़े पड़ेंगे नासपीटों के शरीर में। सोचते हैं, इनके तंग करने पर मैं डर कर यहाँ से कहीं और चली जाऊँगी, लेकिन मैंने भी शेरनी का दूध पिया है जी। यूं डर कर पीठ दिखा कर भागने वाली नहीं हूँ मैं। भगवान के घर से बुलावा आयेगा, तभी छोड़ूँगी अपनी चौखट।”
“अरे…, ये लोग इतना तंग करते हैं, तो पुलिस के पास क्यों नहीं जाती?”
“अरे मैडमजी, उस बगल वाले के दो दो जवान जहान बेटे हैं। उनका थानेदारजी के साथ उठना बैठना है। वो मुझ गरीब की कहाँ सुनेंगे। ये सब छोड़ो जी । जब तक ये प्रान हैं, तब तक इस दुनिया के गोरखधंधे तो यूं ही चलते रहेंगे। इनसे क्या डरना? लो देखो तो सही, मैं अपनी ही रामायण बाँचने लग पड़ी।
देखो, ये मेरे खेत का ताजा पालक है। बस अभी तोड़ कर लाई हूँ। बहुत स्वाद बनेगा। बताओ, कितनी गड्डी दूं?”
“बस एक गड्डी दे दो मीठी बाई। मैं भी अकेली जान हूं।”
“आपके मरद बच्चे?”
“मेरे आदमी ने मुझे किसी और की खातिर भरी जवानी में छोड़ दिया। एक बेटी है। वह दूर शहर में रहती है।”
“आप भी मेरी तरह निपट अकेली? गुजारा कैसे होता है मैडमजी?”
“मैं सरकारी नौकरी करती थी। सो पेंशन आती है।”
“चलो, फिर तो कोई फिक्र नहीं। किस्मत वाली हो जी। हमें देखो, हम तो रोज कुआं खोदते हैं, पानी पीते हैं। अच्छा मैडमजी। चलती हूँ। राम राम।”
“वह चली गई थी, लेकिन मुझे सबक दे गई थी, जिंदगी की लड़ाई जीवट से अपने दम पर बिताने की।”
मैंने पास बैठे हुए टफी को बड़ी ममता से सहलाते हुए उससे कहा, “चल टफ़ी, गार्डेन में चलते हैं।
तभी आसमान से फिर से अचानक रिमझिम बौछारें पड़ने लगीं।
मंद मंद पुरवाई में हरहरा कर बरसती चैत की बेमौसम फुहारें!
मेरे मन की मायूसी कतरा कतरा बह चली।