1.तुम्हारे कर्म ही तुम्हारी अच्छाई का निर्माण करते हैं। जैसे चाहकर भी तुम परछाई को अपने से अलग नहीं कर सकते ठीक इसी प्रकार तुम्हारे कर्म भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ते।
2.जैसे प्रकाश के अभाव में परछाई नहीं दिखती ऐसे ही अज्ञान के अन्धकार में तुमको अपने कर्मों का परिणाम भी नजर नहीं आता तो यह मान लेते हो कि शायद कर्म फल से बच गए हो! ऐसा नहीं होता मेरे बच्चों।
3.जैसे प्रकाश हो जाने पर अदृश्य परछाई भी सामने उपस्थित हो जाती है ठीक ऐसा ही है ज्ञान। ज्ञानरूपी दीपक जल जाने पर तुम्हें विलुप्त कर्म प्रभाव भी साफ-साफ नजर आने लग जाएगा। तब तुम वास्तव में अपना मूल्यांकन कर पाओगे कि की जो तुम कर रहे हो वह उचित है?
4. क्या इस प्रकार से तुम मुझे प्राप्त करना चाहते हो! क्या ऐसे कर्मों से युक्त तुम्हारी मैं शोभा सदा बढ़ा पाऊँगी! मैं तो पुत्र गणेश के साथ ही स्थायी रूप से विराजती हूँ। गणेश को तो दो ही प्रकार से प्रसन्न कर सकते हो- सद्बुद्धि और आचरण की शुद्धि।
5. इसलिए कर्म ऐसे करो कि तुम्हारी परछाई तुम्हें ही न डराएं, तुम्हारे कर्म ही तुमको न सताए इसके लिए आचरण अवश्य सुधार लेना।
।।ॐ कमलवासिन्ये नमः।।
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