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मुंशी प्रेमचंद की कहानी : अंधेर!!

साठे में नागपंचमी के दिन सभी जवान लड़कों ने अलग-अलग रंगों की कुश्ती के कपड़े सिलवाए। ढोल-नगाड़े बज रहे थे, क्योंकि कुश्ती का मुकाबला होने वाला था। महिलाएं आंगन को गोबर से लीपकर गीत गाती हुई नाग देवता को पूजने के लिए कटोरी में दूध लेकर जा रही थीं।

साठे की तरह ही पाठे दोनों गंगा किनारे बसे हुए गांव थे। दोनों ही गांवों के बीच हमेशा से ही मुकाबले होते रहते थे। साठे के लोगों को गर्व था कि उन्होंने कभी पाठे वालों को सिर उठाने नहीं दिया। ठीक इसी तरह पाठे वालों को इस बात का घमंड था कि उन्होंने कभी साठे वालों को किसी मुकाबले में जीतने नहीं दिया।

पाठे वाले लोग हमेशा ये गाना गाते थे, “साठे वाले हैं कायर, पाठे वाले हैं और हमेशा रहेंगे सरदार।”

वहीं, साठे वाले गाते थे, “हम हैं साठ हाथ वाले, जो रखते साथ तलवार, पाठे वालों को हराने के लिए लिया है हमने अवतार।”

आपस के इस मुकाबले को साठे और पाठे के बच्चे अपने खून में ही लेकर पैदा होते थे। आपसी मुकाबले को दर्शाने का सबसे अच्छा मौका नागपंचमी का ही होता था। इस दिन के लिए दोनों जगहों में सालभर तैयारियां होती थीं। दोनों गांव के जांबाज कुश्ती के लिए आखाड़े पर उतरते थे। साठे वालों को गोपाल पर खूब गर्व था और पाठे वालों को बलदेव की ताकत पर।

आज भी बलदेव और गोपाल मैदान पर उतरे थे। दोनों अपनी-अपनी ताकत दिखा रहे थे। उनमें जीतने का जुनून था। लोग भी उनके दांव-पेंच देख रहे थे। तभी अचानक वहां खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अपनी खुशी का इजहार करने के लिए कुश्ती देखने के लिए खड़े लोग कभी पैसे उछालते, कभी टोपी, तो कभी बर्तन व बताशे उड़ाते। वहां मौजूद लोगों ने गोपाल को गोद में उठा लिया और जश्न मनाने लगे। बलदेव और उसके जीतने की आस रखने वाले लोग मन-ही-मन निराश हो गए।

रात के दस बजे का समय था, हल्की बिजली चमक रही थी, बारिश पड़ रही थी और पूरी तरह अंधेरा था। सिर्फ वहां अब मेंढ़कों की ही आवाज आ रही थी। अंधेरा इतना गहरा था कि साठे की झोपड़ियां भी नजर नहीं आ रहीं थीं। गांव से थोड़ी दूरी पर खेत थे, जहां फसल लहलहा रहे थे। वहां जंगली जानवरों की आवाज ही आती थीं। इसके अलावा, कोई दूसरी आवाज आती, तो रोंगटे खड़े हो जाते थे। उस अंधेरे में आग की लपटें ही सहारा होती थी। उस लहलहाते खेत की रखवाली करने का जिम्मा हर रात को किसी-न-किसी का होता था। अब किसानों का गांव था, तो खेती-बाड़ी की चिंता तो करना तो बनता था। इस रात खेती की देखरेख करने का जिम्मा गोपाल का ही था।

चारों तरफ काली अंधेरी रात थी। वो खेतों के आसपास ही था, लेकिन नींद बहुत तेज आ रही थी। वो किसी तरह से अपनी नींद को भगाने की कोशिश कर रहा था। इसी कोशिश में कुछ देर बाद गोपाल हल्की आवाज में गाने लगा। तभी गोपाल को पांव की आहटें सुनाई दीं। कान लगाकर गोपाल इन आहटों को सुनने लगा और अब उसकी नींद भी गायब हो गई थी।

वो डंडा हाथ में लेकर इधर-उधर देख रहा था। तभी उसके सिर पर किसी ने जोर से लाठी मार दी। वो नीचे गिरा और रातभर वहीं बेहोश पड़ा रहा। बेहोशी की हालत में भी उसपर कई बार वार किए गए। उस पर वार करने वालों को लगा कि वो मर गया है, लेकिन ऐसा नहीं था। हमला करने वाले पाठे के लोग थे, जिन्होंंने अंधेरे में अपनी हार का इस तरह से बदला लिया था।

गोपल न तो पढ़ा-लिखा था और न ही तेज दिमाग वाला। बस उसका शरीर छह फुट का था और आवाज काफी भारी। मन से ऐसा निडर कि शेर की दहाड़ से भी न डरे। आज वो चोट खाए हुए अपने घर के बिस्तर में लेटा हुआ था।

रात को हुई इस तरह की वारदात की वजह से गांव में पुलिस पहुंच गई। गांव में पुलिस को देखकर कुछ लोग डर गए, तो कुछ रोने-धोने लगे। गोपाल ने अपने साथ जो भी हुआ उसकी रिपोर्ट भी नहीं लिखाई थी।

दरोगा ऐसा था कि बिना गाली के उसके मुंह से एक बात भी नहीं निकलती थी। वो मुखिया से सवाल जवाब करने लगा।

मुखिया ने दरोगा से कहा, “मुझे माफी दे दीजिए।”

दरोगा ने पूछा कि अगर मुझे इसी तरह से तुम्हें माफ करना होता, तो मैं यहां क्यों आता?

मुखिया चुपचाप गोपाल की पत्नी गौरा के पास पहुंचा। उसने कहा कि यह पुलिस वाला काफी बेकार है। पैसों के बिना बात ही नहीं करता था। उसे पचास रुपये चाहिए। मैंने उसे बहुत मनाने की कोशिश की, लेकिन वो किसी की एक नहीं सुनता।

गौरा ने मुखिया से कहा कि पैसे की क्या बात है। बस हमारे पति की जान बच जाए। जान से बढ़कर और कुछ नहीं होता। आज के लिए ही तो कमाया था ।

गोपाल इन सभी बातों को खाट पर लेटे-लेटे सुन रहा था। उसने कहा कि जब किसी ने कोई गलती ही नहीं की, तो पचास रुपये क्यों देना। उसे एक पैसा भी नहीं दिया जाना चाहिए।

ये बात सुनकर मुखिया का चेहरा पीला पड़ गया। वो बोले, “धीरे कहो इन बातों को। अगर दरोगा ने सुन लिया, तो परेशानी बढ़ जाएगी।”

गोपाल ने जवाब दिया, “एक कौड़ी उसे नहीं दी जाएगी। देखता हूं कि मेरी बातें सुनकर कौन मुझे फांसी पर चढ़ाता है।”

तभी गौरा ने मजाक में कहा कि ठीक है, आपसे मैं पैसे मांगू तो बिल्कुल भी मत देना। इतना कहने के बाद गौरा अंदर गई और एक पोटली में पैसे लेकर आई। फिर मुखिया को पैसा दे दिया। यह सब देखकर गोपाल को बहुत गुस्सा आया और मुखिया पैसे लेकर तुरंत भाग गया।

मुखिया पैसे लेकर बाहर आया। दरोगा भी वहीं मौजूद था, उसने गोपाल की बातें सुन ली थी। उसके मन में हो रहा था कि गोपाल पैसे दे दे। अब पचास रुपये बाहर आते-आते 25 हो गए थे। मुखिया ने 25 रुपये दरोगा को दिए और चला गया। मुखिया ने गोपाल को शुक्रिया कहा। पूरे गांव वालों के सामने मुसबित टालने का सेहरा मुखिया ने अपने सिर पर लिया और उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई।  उधर गोपाल ने गौरा पर गुस्सा किया।

अब गांव में सत्यनारायण की कथा हुई। देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होने लगी। आखिर गांव से मुसीबत जो टल गई थी।

सभी लोग मिलकर सत्यनारायण की कथा सुनने लगे। गोपाल भी चादर ओढ़कर कथा सुनने लगा। वहां गांव के कई प्रतिष्ठित लोग भी मौजूद थे। पटवारी ने गोपाल से कहा कि सत्यानारायण की वजह से ही तुम पर किस तरह की आंच नहीं आई। गोपाल ने अंगडाई लेते हुए कहा कि सत्यनारायण की महिमा का तो नहीं पता, लेकिन यह अंधेर जरूर है।

कहानी से सीख : मुसीबत पड़ने पर दिमाग से काम लेना चाहिए, यूं ही किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए।

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