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कलम का सिपाही

चुनार के मिशन स्कूल से निकलकर मुंशीजी, जिनकी उम्र उस समय बीस साल थी, साल भर के अन्दर ही फिर बनारस पहुँचे और किसी नये काम की तलाश शुरू हुई।

क्वीन्स कालेज में बेकन साहब प्रिन्सिपल थे। शिक्षा-विभाग में बड़ा असर रखते थे, एक ग़रीब नौजवान को हीले से लगाना उनके लिए मुशकिल बात न थी। नवाब के बारे मे उनका ख़्याल भी अच्छा था। सीधा, सच्चा, जहीन, मेहनती लड़का है। मगर बहुत ग़रीब है। बेकन साहब ने यहाँ-वहाँ दो-एक ख़त लिखे और मुंशीजी की नियुक्ति २ जुलाई १९०० को बहराइच के जिला स्कूल में पाँचवें मास्टर के पद पर हुई। वेतन बीस रुपये महीना। सरकारी नौकरी का सिलसिला शुरू हुआ। चुनार की मास्टरी, मुदर्रिसी के इस लंबे ड्रामे का रिहर्सल थी।

बहराइच में मुंशीजी को ज़्यादा दिन नहीं रहना पड़ा। ढाई महीने बाद ही उनकी बदली परताबगढ़ के लिए हो गयी। २१ सितम्बर से उन्होंने परताबगढ़ के जिला स्कूल में फर्स्ट एडीशनल मास्टर का काम सम्हाला। वेतन वही बीस जो कि घर की ज़रूरतों के लिए काफ़ी न था। रुपया बराबर घर भेजना पड़ता था। चाची अपने बेटे के साथ वहीं रहती थीं । परताबगढ़ में उन लोगों को अपने साथ रखने का सवाल नहीं पैदा होता था क्योंकि मुंशीजी ख़ुद ताले के ठाकुर साहब की हवेली के एक कमरे में रहते थे, उनके दो लड़कों को पढ़ाते थे और उन्हीं के यहाँ रहते थे। ट्यूशन से अब भी छुटकारा न था। लेकिन यह ट्यूशन और ट्यूशनों जैसा न था क्योंकि ताला के वह ठाकुर साहब बिलकुल घर के लड़के की तरह उनको मानते थे। और उनका भी संबंध अपने शिष्यों से गुरु-शिष्य का न होकर दोस्ती का ही ज्यादा था। इस तरह परताबगढ़ में मुंशी जी की ज़िन्दगी काफ़ी इत्मीनान से गुजर रही थी। न कहीं जाते थे न आते थे। घर से स्कूल और स्कूल से घर। मिलने-जुलनेवालों में पहला नंबर बाबू राधा कृष्ण का था, जो आगे चलकर अवध चीफ़ कोट के जज हुए। उनसे मुंशीजी की बहुत बनती थी। बराबर अपनी नयी चीजें उन्हें सुनाते थे। बाबू राधाकृष्ण साहित्यरसिक तो जैसे थे ही, ख़ुद भी शेर कह लेते थे।

पंडित जयराम शास्त्री संस्कृत के पंडित थे, वहीं ठाकुर साहब की हवेली पर वह भी रहते थे, बराबर का साथ था पर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि बिलकुल भिन्न होने के कारण उनके साथ मुंशीजी की मैत्री साहित्यिक मैत्री का रूप न ले पाती, जैसी कि राधाकृष्ण बाबू के साथ थी।

अपना खाना मुंशीजी कभी खुद ही पका लेते थे, मगर‌ ज़्यादातर तो लड़कों के साथ हवेली पर ही उनका खाना भी होता।

पढ़ना-लिखना, यही उनकी ज़िंदगी थी। और पढ़ने से ज्यादा वह लिखते थे। अक्सर रात को बड़ी देर तक लिखते रह जाते।

~ ‘कलम का सिपाही’ किताब का एक अंश।

कलम का‌‌ सिपाही,‌ प्रेमचंद के बेटे अमृतराय द्वारा लिखी गई प्रेमचंद की जीवनी है

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