एक बार की बात है, अयोध्या में एक सम्मानित पंडित रहते थे, जिनका नाम हृदयनाथ था। भले ही उनके पास बहुत धन-दौलत न था, लेकिन वे थोड़े में ही संतोष रखते थे। हालांकि, उनके पास जो कुछ मकान थे, उनसे आने वाले किराए से उनका जीवन गुजर बसर हो जाता था। किराया बढ़ाने के साथ ही उन्होंने एक सवारी खरीद ली थी। जिंदगी का तजुर्बा होने के बाद भी किस प्रकार से जीवन यापन करना है, इसका बहुत कम ज्ञान था उन्हें। जैसे वे थे वैसी ही उनकी पत्नी जागेश्वरी थी। उन्हीं की तरह समाज के रीति रिवाजों से डरकर रहने वाली। दोनों के विचार कभी अलग नहीं हुए, पत्नी के लिए पति की आज्ञा ही सर्वोपरि थी। जागेश्वरी भगवान शिव की उपासना करने वाली थी और हृदयनाथ जी वैष्णव थे, लेकिन दान, व्रत आदि में दोनों की समान श्रद्धा थी यानी धर्मनिष्ठ थे। उनकी एक पुत्री थी कैलासकुमारी, जिसकी शादी उन्होंने तेरह साल में ही कर दी थी। अब उन्हें उससे एक पुत्र की लालसा थी जिसके नाम वे सब कुछ करके धर्म ध्यान में लग जाना चाहते थे।javascript:false
शायद भाग्य को यह मंजूर न था। कैलासकुमारी की शादी के बाद ही उसके पति की मौत हो गई और वह विधवा हो गई। पूरे घर में शोक का महौल था, लेकिन कैलास कुमारी जिसे विवाह का मतलब ही नहीं पता था वह अपने माता पिता को रोता हुआ देखते तो खुद भी रोने लगती थी। उसे नहीं पता था कि वे क्यों रो रहे थे, वह तो सिर्फ अपने माता-पिता को रोते देखती तो उनका अपने प्रति प्रेम देखकर रोने लगती। उस बेचारी को तो पति का मतलब भी नहीं मालूम था। वहीं, जब भी माता पिता अपनी बेटी का चेहरा देखते तो दुख से और रोने लगते थे।
कैलास कुमारी को लगता की महिलाएं पति के मृत्यु के बाद इसलिए दुखी होती हैं, क्योंकि पति महिला और बच्चे का पालन-पोषण करता है। ऐसे में उसे चिंता करने की क्या जरूरत क्योंकि उसके पास तो उसके माता-पिता है, जो उसकी सारी इच्छाएं पूरी कर सकते हैं। कैलास कुमारी को बस यह दुख था कि उसकी सहेलियां भी उसके साथ खेलने न आती। वह जब मां से सहेलियों को बुलाने की आज्ञा लेने जाती तो मां फूट-फूटकर रोने लगती। इसलिए उसने माता के पास जाना छोड़ दिया और अकेले बैठकर किस्से-कहानियां पढ़ा करती। उसके अकेले रहने से माता-पिता को लगा कि बेटी बहुत दुखी है और अकेले रहकर शोक मना रही है।
एक दिन पिता हृदयनाथ ने अपनी पत्नी से कहा कि- ‘मेरा मन करता है कि यहां से कही दूर चला जाऊं अब मुझसे बेटी का दुख देखा नहीं जाता।’
जागेश्वरी- ‘मैं भी यह सब नहीं देख सकती, भगवान मुझे अब और नहीं जीना है।’
हृदयनाथ- ‘अगर हमारी बेटी दुखी रही तो बहुत बुरा होगा हमें कुछ करना चाहिए।
जागेश्वरी ने कहा- ‘मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा है आप ही बताईए।’
हृदयनाथ- ‘हम लोगों को इस प्रकार से मातम मनाना छोड़कर उसका दिल बहलाना चाहिए। तुम उसका मन कुछ न कुछ मनोरंजन करके बहला दिया करो।’
जागेश्वरी- ‘हां मैं ऐसा ही करुंगी पहले तो मैं उसे देखकर रो पड़ती थी, लेकिन मुझे खुद को संभालकर उसका शोक दूर करना होगा।’
हृदयनाथ बोले- ‘अब मैं भी उसके दिल को बहलाने वाले प्रयास करूंगा। हमें उसे हर समय मनोरंजन में लगाये रखना चाहिए।’
दोनों ने ऐसा विचार बनाया और फिर कैलासी के लिए मनोरंजन के सामान इकट्ठा करना शुरू कर दिए। इससे हंसते हुए बात करना, घुमाने ले जाना, नदी में नाव की सैर कराना, रोज थिएटर ले जाकर नए-नए नाटक दिखाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। हृदयनाथ भी कभी उसे कश्मीर के दृश्य, कभी स्विट्जरलैंड की झांकी और झरने दिखाते तो, कभी ग्रामोफोन पर गाने बजाकर सुनाते। कैलास कुमारी इन सब के खूब मजे लेती। अब उसकी सहेलियां भी आने लगी थी।
इस प्रकार कुछ साल कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। कैलासी को इन सब की आदत हाे गई थी और वह बिना इन सब के एक भी दिन चैन से नहीं रह पाती थी। उसे थिएटरों और फिर सिनेमा उसके बाद मेस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म वाले नाटकों की आदत हो गई थी। साथ ही में ग्रामोफोन पर आने वाले नए रिकार्ड भी सुनने लगी और नए संगीत की लत भी लग गई थी। उसे अब बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं था, वह तो अपने काल्पनिक संसार में डूबी रहती थी। कैलासी अपनी सहेलियों से भी घमंड भरी बातें करती और कहती कि यहां के लोगों को जिंदगी जीना नहीं आता है। जीवन तो विदेशों के लोग जीते हैं मनोरंजन के साथ, इसलिए वे इतना खुश रहते हैं। किसी भी कार्यक्रम में मां और बेटी साथ जाते थे
उनका इस प्रकार से बाहर घूमना और सैर सपाटा लोगों को देखा नहीं गया। लोगों का मानना था कि विधवा औरत को सिर्फ पूजा, पाठ, तीर्थ, व्रत करने चाहिए। यह मनोरंजन के साथ उनके लिए नहीं होते हैं। कैलासी के माता-पिता को शर्म करना चाहिए कि इस प्रकार से अपनी बेटी को सिर पर चढ़ा कर रखा है। महिलाएं बोलतीं, बाप तो ठीक है, लेकिन मां ने बिलकुल भी नहीं सोचा कि दुनिया वाले क्या कहेंगे।
इस प्रकार से लोगों में बातें होने लगीं, लेकिन एक दिन सभी स्त्रियों ने जागेश्वरी के यहां जाने का फैसला किया। उनके आने पर जागेश्वरी ने बड़े ही आदर-सत्कार से उनका स्वागत किया। फिर कुछ देर यहां-वहां की बातों के बाद एक स्त्री ने कहा कि – ‘बहन, तुम तो आराम से हो तुम्हारे दिन हंसी-खुशी में निकल जाते हैं। हमारे लिए तो हर दिन पहाड़ जैसा कटता है।’
तभी दूसरी औरत ने कहा- ‘आखिर तुम्हारे पास इतना समय कैसे मिल जाता है हमारा दिन तो चूल्हा चक्की करते हुए ही निकल जाता है। जब समय मिलता है तो कभी बच्चे को संभालो, तो कभी घर वालों को। हम तो पूरी कठपुतलियों के जैसे नाचते रहते हैं।’
तभी तीसरी औरत ने व्यंग करते हुए कहा – ‘इसमें सोचने वाली बात क्या है, यह सब करने के लिए जागेश्वरी जैसा कलेजा चाहिए। तुम लोग तो राज सिंहासन पर बैठने के बाद भी रोती रहोगी।’
इस बात पर एक वृद्ध महिला बोल उठी- ‘ऐसा दिल किस काम काम का, जो दुनिया कितना भी मजाक उढ़ाए फिर भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़े। वह दिल किसी पत्थर से कम नहीं। हम गृहिणी हैं, और हमारा काम गृहस्थी को संभालना है मौज मस्ती करना नहीं।’
महिलाओं के द्वारा इस प्रकार मजाक उड़ाए जाने पर जागेश्वरी ने अपना सिर नीचे कर लिए। महिलाओं का काम हो चुका था। उनका उद्देश्य उसके मन को तड़पाना था। जागेश्वरी को सबक मिल चुका था। महिलाओं के जाने के बाद उसने यह सब अपने पति से कहा। वह मायूस होकर बोलने लगे कि- ‘अब क्या करें?’
जागेश्वरी- ‘आप ही कुछ विचार करो।’
हृदयनाथ लंबी सांस छोड़ते हुए बोले- ‘पड़ोसियों ने मजाक उड़या है और यह एक दिन होना ही था और सही भी है। मुझे खुद पता चल रहा है, कि कैलासी के हाव भाव बहुत बदल गए हैं। विधवाओं का यह सब करना ठीक नहीं है। अब यह सब बंद करना होगा।’
जागेश्वरी टोकते हुए बोली- ‘पर कैलासी को तो इन सब की आदत हो गई है कैसे रहेगी वह इनके बिना।’
हृदयनाथ- ‘हमें यह सब रोकना पड़ेगा।’
धीरे धीरे घर का माहौल बदलने लगा। हृदयनाथ शाम को ग्रामोफोन की जगह धर्म ग्रंथ पढ़कर सुनाने लगे। घर में मां और बेटी धर्म-निष्ठा का पालन करने लगी, संयम, उपासना करने लगीं। गुरु जी ने कैलासी को दीक्षा दी (गुरु से मिलने वाली शिक्षा), और सभी महिलाओं ने वहां आकर उत्सव मनाया।
अब मां-बेटी गंगा स्नान करने लगीं, मंदिर जातीं, एकादशी का निर्जला व्रत रखतीं। गुरुजी कैलासी को रोजाना संध्या के समय धर्मोपदेश देते। कैलासी को कुछ दिनों तक यह सब कष्टप्रद लगा, लेकिन थोड़े ही दिनों में उसे इन सबमें रुचि होने लगी गयी। उसने मनोरंजन का मार्ग छोड़कर अध्यात्म और त्याग का मार्ग अपना लिया। उसे पति और अपनी स्थिति का मतलब समझ आने लगा। अब उसने प्रायश्चित करने का मन बना लिया था। वह साधु-महात्माओं की सेवा करने लगी और यहां तक कि तीन साल में ही उसने संन्यास लेने का सोच लिया।
जैसे ही माता पिता को इस बात का पता चला उन्होंने अपना सिर पकड़ लिया। मां ने कहा कि- ‘बेटी अभी सन्यास लेने की तुम्हारी उम्र नहीं है, ऐसी बातें मत सोचो।’’
कैलासी- ‘मां इन सब झंझटों को जितने जल्दी छोड़ दिया जाए उतना अच्छा है।’
हृदयनाथ- ‘क्या घर में रहकर इन सब से मुक्ति नहीं मिल सकती है?’
तभी मां ने कहा – ‘इन सब से बदनामी होगी।’
कैलास कुमारी- ‘जो भगवान के चरणों में अर्पण हो जाते हैं उन्हें बदनामी की चिंता नहीं होती?’
जागेश्वरी ने समझाया- ‘बेटी हमें तुम्हारा ही आसरा है। अगर तुमने संन्यास लिया तो हम किसके सहारे जिएंगे?’
कैलासकुमारी- ‘भगवान ही सबका सहारा है मां।’
अगले रोज यह बात मोहल्ले वालों को पता चल गई। शुरू में तो उन्होंने आपस में ही खूब मजाक उड़ाया, लेकिन फिर कुछ पुरुष इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हृदयनाथ के यहां आए।
एक सज्जन बोले- ‘क्या तुमने सुना है कि डाक्टर गौड़ का हुअ प्रस्ताव बहुत अधिक मतों से मान लिया गया है।’
दूसरे व्यक्ति ने कहा कि- ‘ये लोग हिंदू धर्म का नाश करके मानेंगे।’
तीसरे व्यक्ति ने कहा- ‘नाश तो होगा ही, जब हमारे ही साधु-महात्मा मासूम लड़कियों को बहकाने लगे हैं।’
हृदयनाथ- ‘मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ है आपको तो पता ही है सब कुछ।’
पहले व्यक्ति- ‘आपके ही नहीं हमारे साथ भी हो रहा है।’
हृदयनाथ- ‘आप लोग कोई रास्ता निकालिए।’
पहले व्यक्ति- ‘आपने उसे समझाया नहीं था क्या?’
हृदयनाथ- ब’हुत समझाया और अब हार गया। किसी की कुछ नहीं सुनती।’
तीसरे व्यक्ति- ‘उसे इस मार्ग पर नहीं लाना था।’
पहले व्यक्ति- ‘पर अब पछताने पर क्या होगा? कुछ लोगों की सलाह है कि विधवाओं से अध्यापिका का काम कराना चाहिए।’
दूसरे व्यक्ति- ‘सलाह अच्छी है। आस पड़ोस की कन्याएं पढ़ने को आ जाएंगी और लड़की का भी मन लग जायगा।’
हृदयनाथ- ‘मैं उसे फिर से समझाऊंगा।’
जैसे ही लोग गए हृदयनाथ ने कैलास कुमारी को समझाने का प्रयास किया। पहले तो हृदयनाथ को कैलास कुमारी को समझाने में कठिनाई हुई, लेकिन धीरे-धीरे कैलासी की सोच बदलने लगी और वह मान गई। हृदयनाथ ने मोहल्ले वालों की बच्चियों को जोड़ कर पाठशाला शुरू कर दी। पंडितजी खुद कैलासी के साथ पाठशाला में पढ़ाने लगे। कुछ ही दिन में पाठशाला चल गयी और दूसरे मुहल्लों की बालिकाएं आने लगीं।
कैलासकुमारी पूरे दिन लड़कियों के साथ रहती, पढ़ाने के साथ ही, उनके साथ खेलती, सिलाई सिखाती रहती। पाठशाला अब एक परिवार बन गया था। किसी भी लड़की के बीमार होने पर कैलास कुमारी उसके घर जाकर उसकी सेवा करती।
एक दिन की बात है पाठशाला की एक बच्ची को चेचक निकल आया। तब कैलासी उसके घर उसकी तबीयत के बारे में पूछने गयी। लड़की की तबीयत खराब थी। कैलासी को देखकर ऐसा लगा कि उसके सारे दुख भाग गये। एक घंटे के बाद कैलासी जब जाने लगी तो लड़की रोने लगी। लड़की उसे छाेड़ने के लिए तैयार नहीं थी। हृदयनाथ जब भी कैलासी को बुलाने के लिए आदमी भेजते, वह मना कर देती। कैलासी तीन दिन तक लड़की के पास रही। अगले दिन जब लड़की की तबीयत में सुधार हुआ तो वह घर आ गई। मगर जैसे ही नहाने के लिए तैयार हुई कि तभी एक आदमी दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि लड़की की हालत नाजुक हो रही है और वह आपको ही याद कर रही है।
हृदयनाथ ने गुस्से में कहा कि – ‘किसी अस्पताल से नर्स बुला लो।’
कैलास कुमारी ने कहा- ‘बाबा आप गुस्सा मत हो। उसकी जान बचाने के लिए मैं तीन महीने तक उसकी सेवा कर सकती हूं।’
हृदयनाथ- ‘तो फिर पाठशाला कौन संभालेगा?’
कैलासी- ‘कुछ दिन आप संभाल लो जैसे वह अच्छी होगी मैं आ जाऊंगी।’
हृदयनाथ- ‘बात को समझो यह बीमारी छूने से फैलती है।’
कैलासी- ‘अगर मर गई तो आपकी ही विपत्ति टलेगी।’
इतना बोलकर ‘वह बिना भोजन किए वहां से चली गई।’
हृदयनाथ जागेश्वरी से कहने लगे- ‘मुझे लगता है कि जल्दी ही पाठशाला को बंद करना होगा।’
जागेश्वरी- ‘आपने सही कहा आखिर पाठशाला को कौन संभालेगा।’
हृदयनाथ- ‘मैं भी क्या करूं जो भी उपाय करता हूं कुछ ही दिनों में हमें ही मुसीबत में डाल देता है। मुझे अब बदनामी का डर सताने लगा है क्योंकि लोग कहेंगे कि लड़की पराए लोगों के घर आती-जाती है कई-कई दिनों तक वहीं रहती है।’
जागेश्वरी- ‘तो आप उसे पढ़ाने से मना कर दीजिए, और क्या कहें।’
कैलास कुमारी के वापस आने तक हृदयनाथ पाठशाला बंद कर चुके थे। इसे देखकर कैलासी ने गुस्से से तीव्र स्वर में कहा – ‘यदि बदनामी का डर है, तो मुझे जहर दे दें। आपके पास इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं हो सकता है।’
हृदयनाथ ने उसे समझाया- ‘बेटी इस संसार में रहना है तो संसार के अनुसार ही काम करना पड़ेगा।’
कैलासी- ‘अगर ऐसा है तो मुझे बताइए कि ये लोग आखिर क्या चाहते हैं मुझसे? मैं क्यों संसार के नियमों को निभाने के चक्कर में एक कठपुतली बनूं? मेरे अंदर भी जान है, मुझे भी जीने की चाह है। मैं अपने आपको दुखिया नहीं मान सकती और ना ही रोटी का एक टुकड़ा खाकर रह सकती हूं। बताइए मैं ऐसा क्यों करूं? ये लोग मुझे जो चाहे समझे, लेकिन मैं अभागिनी नहीं। मुझे पता है कि खुद के आत्मसम्मान की रक्षा कैसे करनी है। मैं कोई जानवर नहीं हूं जो समाज लाठी लेकर मेरे पीछे पड़ा रहे।’
इतना बोलकर कैलास कुमारी वहां से चली गई। इसके बाद से वह अपनी लाचारी और स्त्रियों की बेबसी के बारे में सोचने लगी। उसे लगने लगा कि महिला पुरुषों के अधीन क्यों है, क्या एक स्त्री का यही भाग्य है। यह सोचकर अपने नसीब और समाज के द्वारा किए गए अत्याचार पर दुखी और नाराज हो जाती थी।
पाठशाला के बंद होने के बाद कैलास कुमारी को पुरुषों से अंदर ही अंदर जलन होने लगी। महिलाओं की बेबसी पर कैलासी बार-बार झुंझला जाती।
एक दिन की बात है, उसने अपने बाल गूंथ कर जूड़े में गुलाब का फूल लगा लिया। जैसे ही मां ने उसे ऐसा देखा तो गुस्से में होठों से जीभ दबा ली। ठीक ऐसे ही एक दिन उसने रेशमी साड़ी पहनी, जिसे देखकर आस-पड़ोस की महिलाओं ने खूब आलोचनाएं की। अब वह एकादशी व्रत भी नहीं रखती थी। साथ ही कंघी और आईने को वह छोड़ने लायक नहीं समझती थी।
शादियों के दिन शुरू हो गए थे। मोहल्ले की सभी स्त्रियां गैलरी में आकर दूल्हे को देखती थीं। जागेश्वरी भी उनमें से एक थी। इसके विपरीत कैलासकुमारी कभी भी इन बारातों को नहीं देखती थी। उसकी नजरों में बारात का मतलब था कि यह सीधी साधी लड़कियों का शिकार है। बारातियों को वह शिकारी कुत्ते समझती। उसे बस यही लगता था कि यह शादी नहीं बलिदान है एक महिला का।
दिन गुजरे तीज व्रत का दिन भी आ गया। घरों में सफाई के साथ ही स्त्रियां व्रत रखने की तैयारियां करने लगीं। वहीं, व्रत की तैयारी जागेश्वरी ने भी की। अपने लिए नई-नई साड़ियां मंगाईं। हमेशा के जैसे ही कैलासी के ससुराल से भी कपड़े, मिठाइयां और खिलौने आये। यह विवाहित महिलाओं का व्रत है, लेकिन विधवा भी इसे सही रीति-रिवाज से करती हैं। उनका संबंध पति से शारीरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक होता है। अभी तक तो कैलास कुमारी यह व्रत रखती थी, लेकिन अब उसने निश्चय कर लिया था कि वह व्रत नहीं रखेगी। मां ने सुना तो सिर पीट लिया। वह बोली कि- ‘बेटी, यह व्रत रखना हमारा धर्म है।’
कैलासी- ‘अगर यह धर्म है तो पुरुष महिलाओं के लिए क्यों कोई व्रत नहीं रखते हैं?’
जागेश्वरी ने कहा- ‘पुरुषों में इसको निभाने की रीत नहीं है।’
कैलासी बोली- ‘वो इसलिए कि जितनी महिलाओं को मर्दों की जान प्यारी है, उतनी मर्दों को महिलाओं की प्यारी नहीं।’
जागेश्वरी- ‘तू ही बोल कि महिलाएं मर्दों की बराबरी करें भी तो कैसे? उसका धर्म है अपने पति की सेवा।’
कैलासकुमारी- ‘यह मेरा धर्म नहीं है। मेरा धर्म केवल आत्मरक्षा है और कुछ नहीं।’
जागेश्वरी- ‘बेटी, एक बार फिर सोच ले गजब हो जाएगा, क्या कहेगी ये दुनिया?’
कैलासकुमारी- ‘क्या मां आप फिर उसी दुनिया को लेकर बैठ गईं? मुझे खुद की आत्मा के अलावा किसी का भी डर नहीं है।’
हृदयनाथ को जागेश्वरी ने यह बातें बताईं तो वे चिंता में डूब से गए। उनके मन में हुआ क्या मतलब है इन सब का? क्या उसके अंदर आत्म-बोध हुआ है या फिर यह सब नैराश्य है? वैसे भी जब धनहीन व्यक्ति का कष्ट दूर नहीं होता, तो लाज को छोड़ ही देता है। इसमें कोई शक नहीं कि नैराश्य यानी निराशा ने ही यह रूप ले लिया है। इससे दिल के सारे कोमल और अच्छे भाव खत्म से होने लगते हैं और अचानक अलग सा बदलाव होने लगता है। इंसान जग हंसाई पर भी गौर नहीं करता। उसके लिए दुनिया के मानो सारे रिश्ते ही टूट से जाते हैं। इसी को नैराश्य यानी निराशा की आखिरी स्थिति माना जाता है।
हृदयनाथ अपने विचारों में खोए हुए थे तभी जागेश्वरी ने पूछा- ‘अब क्या करेंगे?’
हृदयनाथ ने कहा कि- ‘क्या बताऊं अब।’
जागेश्वरी ने फिर पूछा- ‘आपके पास कोई और उपाय है क्या?’
हृदयनाथ ने असहाय होते हुए कहा – ‘अब तो एक उपाय ही हो सकता है, लेकिन उसके बारे में बात नहीं कर सकता।’
कहानी से सीख:
हमें कभी भी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करना चाहिए, दोनों ही सुखी और स्वतंत्र जीवन जीने के समान रूप से अधिकारी होते हैं।