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प्राकृतिक प्रकोप

बादलों की घनघोर गड़गड़ाहट और मूसलाधार बारिश से पूरा गांव जलमग्न हो गया था । रात की कालिमा इस मौसम की वजह से और गहरी हो गई थी

मोहना अपने घर में आंगन के पास वाली जगह जिसे कहीं कहीं बरोठ भी कहते हैं। वहां चारपाई पर लेटा था। आंखों से नींद कोसों दूर थी। चिंता के मारे उसका कलेजा बादल की हर गड़गड़ाहट के साथ दहल रहा था । उसकी आंखों के सामने उसके खेत का चित्र वो छोटा सा टुकड़ा नाच रहा है जिसे उसने अपनी पत्नी के गहने बेचकर और कुछ कर्ज लेकर खरीदा था । जहां आज शाम ही उसने लहलहाती गेंहू की बालियों को देखा था। नजर लगने के डर से जी भर के देख भी ना पाया था। सही तो है किसान का खेत उसकी फसल उसके बच्चे की तरह होती है।

उसे बड़ी मेहनत से बड़ा करता है , और फिर उसके सपने देखता है | मोहना के भी इसी तरीके के कई सपने थे बेटी मुनिया को कस्बे वाले स्कूल में कक्षा 9 में दाखिला दिलवाना है। बेटे मुन्ना के लिए नए कपड़े और जूते लेने हैं । 2 साल पहले उसके मामा के विवाह में पहनने के लिए खरीदे थे वो अब छोटे हो गये हैं। गांव के दूसरे बच्चों की तरह उसके लिए भी स्कूल के लिए बस्ता भी लेना है। सोचा है एक गाय भी ले लेंगे ,थोड़ा दूध हो जाएगा तो उसे पीकर बच्चों की सेहत बनेगी।

इसी तरह के सपनों का एक छोटा सा महल बनाया है उसने । मगर यह वर्षा तो लग रहा है सब धाराशायी करने पर आमादा है। मोहन की बेचैनी जब ज्यादा बढ़ गई तो वह उठ कर बैठ गया । दूसरी तरफ पड़ी चारपाई पर उसकी पत्नी मालती अपनी बेटी के साथ थी। उसने मोहना को जब बैठे देखा तो वहीं से पूछा – क्या हुआ ? सो जाओ ।

मोहना ने मालती की बात पर ध्यान नहीं दिया वह फिर बोली- ” सो क्यों नहीं जाते ,पानी तो बरसेगा ही । सो जाओ तो रात जल्दी कट जाएगी। इस बार मोहना ने ध्यान दिया ,वह बोला -“हां तुम सो जाओ। हम सो लेंगे ।

फिर वह पानी की अविरल बरसती धारा को निहारने लगा मानो उसको रोक लेगा । उसके मन के भीतर भी एक बेचैनी का तूफान उमड़ने लगा था। एक डेढ़ घंटा इसी तरह बैठा वर्षा को देखता रहा । तब तक उसकी बेचैनी समुद्र में आए तूफान की तरह प्रचंड रूप ले चुकी थी। उसने एक तरफ मालती की चारपाई पर नजर डाली अंदाजा लगाया कि वह सो गई है। मुनिया अपनी मां के पास सो रही थी। मुन्ना जो उसके पास लेटा था । उसको उसने चादर ओढ़ा दी। फिर अपने गमछे को अपने सर पर बांधा और धीरे से चारपाई से नीचे पैर उतारे । नीचे रखी चप्पलों को पहन लिया। कोने में रखी लाठी को उठाया और दरवाजे की तरफ बढ़ गया। धीरे से बिना आहट किए दरवाजे की सांकल खोली और दरवाजे को थोड़ा सा खोलकर बाहर निकल गया ।

बाहर निकलकर मोहना ने नजर दौड़ाई रात का समय था कोई प्रकाश नहीं फिर भी ऐसा लग रहा था कि उसको सब दिखाई पड़ रहा है। उसने अपने कुर्ते की जेब टटोली जिसमें बिस्तर पर रखी माचिस जो रोज ही रखता था एक पॉलीथिन में लपेट कर अपनी जेब में डाल लिया था। अब उसके कदम खेत की तरफ बढ़ गए । पानी से भरी मिट्टी की डगर पर उसके पैर अंदर तक धंसने लगे । लेकिन ना जाने किस अनदेखी शक्ति द्वारा वह आगे बढ़ता जा रहा था | खेत उसके घर से करीब 500 मीटर की दूरी पर था ।

वह पहुंच कर खेत में लगे नीम के पेड़ के पास पहुंचकर पेड़ की ओट लेकर किसी तरह से उसने माचिस निकालकर जलाई और एक तीली की रोशनी से उसने अपने पूरे खेत को देखने का प्रयास करने के लिए जैसे ही आंखें उठाई तो उसका दिल चीख उठा, उसके होठों से कातरतापूर्ण चीख निकल गई । सारी बालियां मानो धरती के गर्भ में समाने को व्याकुल थी । पूरा खेत पानी से लबालब भर चुका था । छोटे बड़े पौधे सब खड़े रहने की चाहत में एक दूसरे का सहारा लेने के प्रयास में गिर गए थे

यह दृश्य देखकर मोहना की आंखों से बहने वाली अश्रुधारा उसी वर्षा के पानी में सम्मिलित होती जा रही थी। उसने खुद को संभाला कहीं वह गिर ना जाए लेकिन फिर भी खुद को रोक ना सका और इसी मिट्टी पर धम्म से जड़वत सा बैठ गया । उसकी चेतना शून्य होने लगी

सुबह सूरज की किरण निकलने से पहले वर्षा शांत हो गई थी । सभी गांव में जाग गए थे या फिर रात भर किसी को नींद नहीं आई थी। मगर शांत थे, सिर्फ मोहना को छोड़कर। अभी मालती उठी ही थी कि तभी दरवाजे पर तेज तेज खटखटाने की आवाज आई और उसके साथ ही दरवाजा खुल गया और गांव का एक लड़का रमेश सामने आ गया। मालती कुछ समझ पाती कि वह घबड़ाहट भरे स्वर में बोला-” काकी, काका खेत पर बेसुध गिरे पड़े हैं ।”

यह सुनकर मालती चीख पड़ी – क्या!

और बिना समय गवाएं खेत की तरफ दौड़ पड़ी। दोनों बच्चे और आस पड़ोस वाले भी उसके पीछे पीछे दौड़ने लगे ।

खेत में पहुंचकर जब बेहोश मोहना पर मालती की नजर पड़ी तो वह रोती हुई उसके पास ही गिर पड़ी और मदद के लिए चिल्लाने लगी- “ओ दादा और रमेश देखो तो इनको क्या हो गया है ? अरे डॉक्टर बाबू को बुला दो कोई।”

पीछे से पहुंचे किसी गांववाले ने मोहन की नब्ज देखने के लिए उसका हाथ पकड़ा तो देखा उसके दोनो हाथ की मुठ्ठी मे खेत की मिट्टी बंद थी। नब्ज ,धीमी गति से चल रही थी । गांव का एक व्यक्ति अपनी मोटरसाइकिल ले आया और 2 लोग मोहना को उठाकर किसी तरह मोटरसाइकिल पर पीछे से पकड़ कर बैठ गये।और गांव के कोने पर रहने वाले गिरजा डॉक्टर के घर पहुंच गए । उनके पीछे मुन्ना और मुनिया मोहना के कपड़े लेकर दूसरे की गाड़ी से बैठकर वहां पहुंच गए। गांव की औरतें मालती को स॔भाले थीं। जो पछाड़ खाकर गिर रही थी।

डॉक्टर बाबू ने मोहना को देखते ही अपने अनुसार उसको दवा और इंजेक्शन दिया। फिर गांववाले की मदद से मोहना के कपड़े बदलवाए। 2 घंटे के बाद मोहना की पलकें धीरे से फड़फड़ाईं और होठों से निकला -“हाय सब खत्म हो गया ।” उसकी यह धीमी आवाज मुनिया और डॉक्टर दोनों ने सुनी । लेकिन मोहना इतना कहकर फिर शांत हो गया। डॉक्टर ने कहा- ए मोहना, पगला गया है ? जब तक तू जिंदा है कुछ खत्म नहीं हुआ। अपनी बुद्धि से काम ले तेरा परिवार तेरे सहारे है । इनकी तरफ देख आज बर्बाद हुआ है तो कल आबाद भी होगा।”

फिर वह मुनिया की तरफ मुखातिब होकर बोले- क्यों बिटिया तुमने वह कविता पढ़ी है ?

मुनिया डॉक्टर का मुंह प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगी । डॉक्टर ने दिमाग पर जोर डालते हुए कहा- अरे वहीं , “नीड़ का निर्माण फिर – फिर।” मुनिया चौंक कर बोली- हां । और साथ ही मोहना का हाथ पकड़ कर बोली-“बाबू हम सब मिलकर फिर बीज बोएंगे। धरती मैया हम को फिर से फसल देंगी । ” इतना कहते-कहते मुनिया फफक कर रोने लगी और उसके आंसू मोहना के चेहरे पर टपकने लगे।

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