हल्कू ने घर आकर अपनी पत्नी मुन्नी से कहा, “घर में जो रुपए रखे हैं उसे ले आओ, सहना आया है, उसे दे देता हूं, ताकि उससे पीछा छूटे।” बरामदे में झाड़ू लगा रही मुन्नी ने पलटकर गुस्से से हल्कू को देखा और बोली, “चार रुपए ही तो बचे हैं घर में, अब वो भी सहना को दे दोगे, तो माघ-पूस की कड़कड़ाती ठंड कैसे कटेगी? सहना से कह दो कि अभी पैसे नहीं है, फसल कटने पर दे देंगे।”
हल्कू एक घड़ी सोच में पड़ गया कि मुन्नी की बात भी सही है, कंबल के बिना ठंड काटना मुश्किल हो जाएगा, लेकिन हल्कू उस अड़ियल सहना को जानता था, वो पैसे लिए जाएगा नहीं। हल्कू ने सोचा कि सर्दियों को सर्दियों में देख लेंगे, फिलहाल इस बला से तो पीछा छूटे। हल्कू अपनी पत्नी की ओर बढ़ा और उसके पास जाकर बैठते हुए धीरे से उसकी खुशामद करते हुए बोला, “दे दे ना पैसे, कम से कम यह पीछा तो छोड़ेगा और कंबल के लिए मैं तब तक कोई दूसरा उपाय सोच लूंगा।”
हल्कू की बात सुनकर मुन्नी गुस्सा हो गई। हल्कू को गुस्से से घूरते हुए मुन्नी ने कहा, “तुम तो चुप ही रहो, बताओ जरा कौन-सा उपाय है तुम्हारे पास? ऐसे ही कोई तुम्हें खैरात में कंबल तो देगा नहीं। न जाने कौन-सा कर्ज है, जो कभी चुकता ही नहीं। तुम ना खेती करना छोड़ दो, क्या फायदा खेती का जब फसल होते ही पूरी कमाई कर्ज चुकाने में चली जाए। तुम्हें जो सही लगता है तुम करो, लेकिन मैं तो एक पैसा नहीं दूंगी।”
मुन्नी को गुस्से से लाल होता देख हल्कू उदास हो गया और धीमे से बोला, “तो क्या मैं उसकी गाली खाऊं?” उसकी बात सुनकर मुन्नी का मन पसीज गया और आवाज में थोड़ी नरमी लाते हुए वह बोली, “ऐसे कैसे वह गाली देगा, क्या उसका राज चलता है यहां?” मुन्नी जानती थी कि हल्कू की बात में कड़वी सच्चाई है, इसलिए वह उठी और चुपचाप कमरे से रुपए निकाल कर ले आई और हल्कू को थमाते हुए बोली, “मैं फिर कह रही हूं तुम यह खेती बाड़ी छोड़ दो, मजदूरी करोगे, तो कम से कम किसी की सुननी तो नहीं पड़ेगी और दो वक्त का खाना तो नसीब होगा।”
मुन्नी की बात सुनकर हल्कू चुपचाप सिर झुकाए रुपए लेकर बाहर चला गया। हल्कू उन तीन रुपए की अहमियत जानता था, जिसे उसने पाई-पाई जोड़कर कंबल खरीदने के लिए जमा किए थे। सहना को रुपए थमाते हुए हल्कू के हाथ कांपने लगे, जैसे वह सीने से अपना दिल निकालकर सहना की हथेली में रख रहा हो।
वक्त बीतता गया और पूस की वो कड़कड़ाती सर्द रातें भी आ गईं। आसमान में जैसे चांद-तारे भी ठंड से ठिठुरते लग रहे थे। हल्कू अपने खेत के किनारे बांस व पत्तों से बनाई मचान के नीचे पुरानी-सी चादर ओढ़े कंपकंपाते हुए बैठा था और साथ में उसका कुत्ता जबरा भी उसके साथ था, जो सर्दी के कारण बार-बार कूं-कूं की आवाज निकाले जा रहा था। ठंड इतनी ज्यादा थी कि दोनों की आंखों से नींद कोसों दूर थी।
सर्दी से खुद को बचाने के लिए हल्कू ने अपनी गर्दन को घुटनों से सटाते हुए अपने कुत्ते की ओर देखते हुए कहा, “जब पता था कि यहां इतनी ज्यादा ठंड है, तो क्यों मेरे पीछे-पीछे खेतों में आ गया? घर में होता, तो कम से कम चारदीवारी में इतनी ठंड तो न लगती। अब पड़े रहो ठंड में यहां।” अब जबरा शांत हो गया था, शायद उसे पता चल गया था कि उसके मालिक को कूं-कूं की आवाज से नींद नहीं आ रही है।
इसके बाद हल्कू गर्दन को घुटनों पर सटाए सोचने लगा, “सब किस्मत-किस्मत की बात है, हम यहां ठिठुरते हुए रात काट रहे हैं और वो पैसे वाले बिना कुछ किए ही मजा लूट रहे हैं।” इसके बाद हल्कू ने चिलम भरी और ठिठुरते हुए उसे पीने लगा। हल्कू ने अपने कुत्ते जबरे को देखा और कहने लगा, “आज यह रात किसी तरह काट ले, कल में तेरे लिये यहां पुआल बिछा दूंगा, तब ज्यादा ठंड न लगेगी।”
हल्कू वहीं जमीन पर लेट गया और सोचा कि कुछ देर के लिए आंख मूंद कर सो लूं, लेकिन जैसे ही उसने आंखें बंद की, ठंड की चुभन जैसे पूरे शरीर में सुइयां चुभोने लगीं। कुछ देर करवट बदलने के बाद हल्कू पूस की रात को कोसते हुए उठकर बैठ गया। जब सब कुछ करने के बाद भी ठंड जाने का नाम ही नहीं ले रही थी, तो हल्कू ने पास बैठे अपने कुत्ते को उठाया और उसे गोद में लेकर लेट गया।
ठंड से बचने के लिए जबरे के शरीर से आ रही दुर्गंध को भी हल्कू ने नजरअंदाज कर दिया। जबरे को भी गर्माहट मिल रही थी और उसने भी आंखे मूंद ली थी और सोने की कोशिश कर रहा था कि तभी जबरे को कोई आहट सुनाई दी और वो एकदम सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। जबरा अचानक मचान से बाहर निकला और इधर-उधर दौड़ते हुए जोर-जोर से भौंकने लगा। कुछ देर यहां-वहां भौंकने के बाद जबरा दोबारा हल्कू से सटकर बैठ गया।
ऐसे ही रात का एक और घंटा बीत गया और ठंड कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। हल्कू उठ कर बैठ गया। वो दोनों हाथों से टांगों को कसकर पकड़े हुए घुटनों पर सिर टिकाए बैठा था। ठंड में हल्कू को लगा कि जैसे उसका खून जम गया हो और वह बेबसी से बस सुबह होने का इंतजार करने लगा।
हल्कू के खेत के सामने ही आम का एक बड़ा-सा बाग था, जिसे देखकर वह सोचने लगा कि पतझड़ शुरू हो चुकी है और जरूर इन पेड़ों से पत्तियां झड़ी होंगी, तो क्यों ना इसके सूखे पत्ते लाकर देर तक आग सेंक लूं। हल्कू ने सोचा कि वह पत्तियां उठाने तो चला जाए पर कहीं रात के अंधेरे में उस पर कोई जानवर हमला न कर दे और उसे ऐसे देखकर कोई भूत ना समझ ले।
कुछ देर यूं ही सोचने के बाद हल्कू एकदम से उठा और एक सूखे पौधे को उखाड़ कर उसे मशाल की तरह जला कर पेड़ों की ओर चल पड़ा। अपने मालिक को जाता देख जबरा भी झट से उठ गया और दुम हिलाते हुए हल्कू के पीछे हो लिया। पेड़ों के पास पहुंच कर हल्कू ने उन विशाल पेड़ों को देखा, जो अंधेरे में और भी डरावने लग रहे थे। अपने मन के डर को दबाते हुए हल्कू नीचे झुका और पेड़ों के आसपास पड़ी पत्तियों को बटोरने लगा।
सूखे पत्तों को समेटने की वो आवाज और ठंडी हवा के झोंकों से आ रही पेड़ों की सरसराहट हल्कू को डरा रही थी। ठंड में नंगे पांव पर कंकड़ तो मानों तीर की तरह चुभ रहे थे। उन सब से ध्यान भटकाने के लिए हल्कू ने जबरे से बातें करना शुरू कर दिया और कहने लगा, “लग रही है ना तुझे भी बहुत ठंड, बस थोड़ी-सी पत्तियां और इकट्ठी कर लेते हैं, फिर दोनों खूब आग सेकेंगे।” हल्कू जितनी पत्तियां समेट सकता था समेट ली और मचान की ओर चल पड़ा।
मचान के बाहर पहुंचकर हल्कू ने पत्तियों में आग लगाई। देखते ही देखते आग धधकने लगी और उसकी लपटें पेड़ों को छूने लगीं। हल्कू और जबरा वहीं आग के पास बैठ गए। हल्कू अलाव में कभी अपने हाथ सेंकता, तो कभी पांव, तो कभी आग की ओर पीठ कर बैठ जाता। जबरा भी आग के पास पसर कर लेट गया और उन लपटों को देखने लगा। हल्कू जबरे की ओर देख कर कहने लगा, “कहा था ना मैंने, अलाव जलाते ही ठंड नहीं लगेगी, अब सेंक ले जी भरकर आग।”
कुछ समय बाद वो आग की लपटें जैसे कहीं गुम हो गईं और पत्तियों का ढेर सिमट कर राख में बदल गया। अब तो बस कोई हवा का झोंका आता, तो बची कुची चिंगारी कहीं बीच में लाल-लाल अनार के दानों-सी दिखाई देती। हल्कू राख की थोड़ी-सी गर्माहट में वहीं चादर ओढ़े दुबक कर बैठा हुआ था, लेकिन जैसे-जैसे रात बढ़ती जा रही थी, ठंड उसे और जकड़ने लगी थी। कुछ देर बाद हल्कू वहीं राख के ढेर के पास लेट गया।
हल्कू को नींद आने ही वाली थी कि जबरा फिर से अचानक उठ गया और खेत की ओर जोर-जोर से भौंकने लगा। हल्कू के कानों में भी कुछ आवाजें आ रही थीं, जैसे जानवरों का बड़ा झुंड खेतों में घुस आया हो और उसकी फसल चर रहा हो। जानवरों की हलचल की पूरी आवाजें हल्कू के कानों में पड़ रही थीं। हल्कू आंखें मूंदे ही सोचने लगा कि जबरे के होते हुए आखिर कोई जानवर खेतों में कैसे घुस सकता है, जरूर मुझे कोई धोखा हो रहा होगा।
हल्कू ने आंखें खोले बिना ही जबरे को आवाज लगाई, लेकिन जबरा खेतों की ओर मुंह किए जोर-जोर से भौंकता रहा, पर उसके पास नहीं आया। कुछ देर बाद खेत में चरने की आहटें तेज हो गई और अब हल्कू को पूरा यकीन हो गया कि खेत में जरूर जानवर घुस आए हैं। अपने आलस को झकझोरते हुए हल्कू आधे मन से उठ कर बैठ गया। इस कंपकंपाती ठंड में उठकर खेत में जाना और फिर जानवरों को भगाना उसे बेहद मुश्किल-सा लग रहा था। हल्कू वहीं बैठे-बैठ जबरे को आवाज देने लगा। हल्कू की आवाज सुनकर जबरा और भी जोरों से भौंकने लगा।
खेतों में नीलगाय का झुंड घुस आया था, जो पूरी तैयार फसल को चरने के साथ ही उसे तहस नहस किए जा रहा था। जबरा अपना गला फाड़-फाड़ कर भौंके जा रहा था, जैसे उन्हें वहां से चले जाने को कह रहा हो। इस बार हल्कू ने पक्का इरादा करते हुए खुद को समझाया और चादर को शरीर पर लपेटते हुए खेत की ओर जाने के लिए कदम बढ़ाने लगा। हल्कू कुछ कदम ही चला था कि अचानक तेज हवा के झोंके ने उसके कदम रोक लिए। हल्कू को ऐसा लगा कि जैसे किसी ने सैकड़ों सुइयां उसके शरीर में चुभों दी हों और उसका पूरा शरीर अकड़ गया हो।
हल्कू दौड़ता हुआ राख के ढेर के पास लौट आया और पास पड़ी लकड़ी से उसे कुरेदने लगा, ताकि उसके शरीर को कुछ तो गर्माहट मिले। जबरा खेतों के पास भौंकता रहा और हल्कू उस राख के ढेर के पास सिकुड़ कर बैठा रहा, जैसे उसे किसी ने जकड़ रखा हो। नीलगाय के झुंड ने देखते ही देखते पूरे खेत को तहस नहस कर दिया। हल्कू उसी राख के ढेर के पास चादर ताने सो गया और जानवरों के जाने के बाद जबरा भी हांफते हुए हल्कू के पास आकर बैठ गया।
सुबह जब हल्कू की आंख खुली, तो दिन चढ़ आया था और धूप निकल आई थी। सामने बैठी मुन्नी उसे गुस्से से घूरते हुए जोर-जोर से कह रही थी, “दिन भर सोए रहोगे क्या? उठ कर देखो तो सही, जानवरों ने पूरी फसल का क्या हाल कर दिया? अब हम क्या करेंगे? तुम्हारे रात में खेत में होने का क्या फायदा, अगर चादर तान कर सोना ही था, तो घर पर ही पड़े रहते।”
मुन्नी को चुप होते ना देख हल्कू धीरे उठा और उससे पूछा, “क्या तुम खेत से होकर आ रही हो? क्या सच में हमारी पूरी फसल तबाह हो गई है?” मुन्नी ने गुस्से से जवाब देते हुए कहा, “हां, सब कुछ खत्म हो चुका है, हम तबाह हो चुके हैं।” हल्कू जानता था कि मुन्नी ऐसे चुप न होगी, तो उसने बहाना बनाते हुए कहा, “तुझे तो बस खेत की पड़ी है, मैं यहां रात में मरने से बाल-बाल बचा। रात को मेरे सीने में इतना तेज दर्द उठा की मैं हिल भी न पाया। यह तो मैं ही जानता हूं कि दर्द के साथ मैंने कड़कड़ाती ठंड के बीच रात कैसे काटी है।”
हल्कू की बात सुनकर मुन्नी कुछ न बोली। फिर दोनों खेत के पास आ गए और बुरी तरह रौंदे हुए खेत को देखने लगे। खेत की दुर्दशा देख कर मुन्नी के चेहरे पर उदासी छा गई और वह मन ही मन सोचने लगी कि अब गुजारा कैसे होगा, पर हल्कू के चेहरे पर एक अलग शांति थी। मुन्नी ने चिंता जताते हुए हल्कू से कहा, “लगता है अब मजदूरी करके ही दिन काटने पड़ेंगे।” हल्कू ने चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, “चलो, कम से कम अब इन सर्द रातों में यहां सोना तो नहीं पड़ेगा।”
कहानी से सीख : मजबूरी में इंसान को कई बार न चाहते हुए भी कठिन फैसले लेने पड़ते हैं, जो हमारे भविष्य को प्रभावित कर सकते हैं। विपदा कभी भी आ सकती है, इसलिए हमेशा चौकस रहना जरूरी है।